UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 4 दीनबन्धुर्गन्धी (पद्य-पीयूषम्)

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 9
Subject Sanskrit
Chapter Chapter 4
Chapter Name दीनबन्धुर्गन्धी (पद्य-पीयूषम्)
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 4 दीनबन्धुर्गन्धी (पद्य-पीयूषम्)

परिचय–प्रस्तुत पाठ पण्डिता क्षमाराव द्वारा रचित ‘सत्याग्रहगीता’ से उद्धृत है। इस पुस्तके में इन्होंने सरस, सरल और रोचक पद्यों में राष्ट्रीय स्वतन्त्रता संग्राम का तथा महात्मा गाँधी के आदर्श चरित्र, का सुचारु रूप से वर्णन किया है। इस ग्रन्थ में गाँधी जी द्वारा संचालित सत्याग्रह का विशद् वर्णन है। प्रस्तुत पाठ में महात्मा गाँधी के प्रति सम्मान व्यक्त करते हुए दोनों के प्रति उनकी उदारता व उनके उद्धार के लिए खादी-वस्त्रों के उत्पादन की शिक्षा का वर्णन किया गया है। पाठ की समाप्ति पर गाँधी जी को प्रणाम निवेदित कर कवयित्री ने उनके प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त की है।

पाठ-सारांश

दीनों और कृषकों के मित्र –गाँधी जी ने सदैव समाज के दुर्बल वर्ग की उन्नति करने के लिए उनकी सहायता की है। उन्होंने कृषकों की दीन-हीन दशा को सुधारने के लिए मित्र की भाँति जीवनपर्यन्त महान् प्रयास किये।।

सम्मान-गाँधी जी अपने अपूर्व गुणों के कारण सम्पूर्ण भारत में पूजे जाते थे। विदेशों में भी उनका अत्यधिक सम्मान हुआ। इसीलिए उन्हें विश्ववन्द्य कहा जाता है। | गुणवान्–गाँधी जी महात्मा कहलाते थे। उनमें महात्मा के समान वीतरागिता, अक्रोध, सत्य, अहिंसा, स्थिर-बुद्धि, स्थितप्रज्ञता आदि सभी गुण विद्यमान थे। वे अनेकानेक गुणों की खान थे।

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परम कारुणिक-गाँधी जी ग्रामीणों के भूखे-प्यासे और नग्न रहने के कारण अल्पभोजन और अल्पवस्त्र से शरीर का निर्वाह करते थे। वे भूखे-प्यासे ग्रामीणों के अस्थिपञ्जर मात्र शरीर को देखकर दु:खी हो जाते थे। वे उच्च वर्ग के लोगों द्वारा अपमानित हरिजनों की दीन दशी को देखकर भी द्रवित हो जाते थे।

कृषकों के बन्धु–गाँधी जी ने किसानों की दयनीय स्थिति और उनके कष्ट के कारणों को जानने के लिए भारत के गाँव-गाँव में भ्रमण किया। उन्होंने देखा कि किसान वर्ष में छः महीने बिना काम किये रहते हैं। उन्होंने उनके खाली समयं के उपयोग के लिए सूत कातने और बुनने को सर्वश्रेष्ठ बताया और इस कार्य के माध्यम से धनोपार्जन की शिक्षा दी। ” | जन-जागरण कर्ता-गाँधी जी ने पराधीन भारत में, न केवल ग्रामीण क्षेत्र में जन-जागरण का कार्य किया, अपितु नागरिकों को भी अपने धर्म के पालन के प्रति जाग्रत किया।

खादी के प्रचारक-गाँधी जी ने स्वदेश में स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार पर बल दिया और खादी ग्रामोद्योग की स्थापना की। उन्होंने देश की प्रगति के लिए सूत कातने में श्रम करने की प्रेरणा दी, जिससे वस्त्र बनाने वाले कारीगर लाभ प्राप्त कर सकें और सभी । लोग खादी के वस्त्र प्राप्त कर सकें।

प्रणाम- भारत के रत्न और अपने वंश के दीपकस्वरूप महात्मा गाँधी सदैव प्रणाम किये जाने योग्य हैं।

पद्यांशों की ससन्दर्भ व्याख्या

(1)
बहुवर्षाणि देशार्थं दीनपक्षावलम्बिना।।
कृषकाणां सुमित्रेण कृतो येन महोद्यमः ॥

शब्दार्थ
बहुवर्षाणि = अनेक वर्षों तक।
देशार्थं = देश के उद्धार के लिए।
दीनपक्षावलम्बिना = दीनों का पक्ष लेने वाले।
कृषकाणां = किसानों के।
सुमित्रेण = अच्छे मित्र।
महोद्यमः = महान् प्रयत्न।।

सन्दर्य
प्रस्तुत श्लोक संस्कृत की परम विदुषी पण्डिता क्षमाराव की प्रसिद्ध कृति ‘सत्याग्रहगीता’ से संगृहीत हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत पद्य-पीयूषम्’ के ‘दीनबन्धुर्गान्धी’ पाठ से उद्धृत है।

[संकेतु-इस पाठ के शेष सभी श्लोकों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा। अन्वय-दीनपक्षावलम्बिना कृषकाणां सुमित्रेण ये देशार्थं बहुवर्षाणि महोद्यमः कृतः। प्रसंग-प्रस्तुत श्लोक में गाँधी जी के गुणों का वर्णन किया गया है।

व्याख्या-दीन-दुःखियों का पक्ष लेने वाले, कृषकों के सच्चे मित्र जिन (महात्मा गाँधी) ने देश के उद्धार के लिए बहुत वर्षों तक महान् प्रयत्न किया। तात्पर्य यह है कि महात्मा गाँधी जो दीन-दु:खियों को पक्ष लेने वाले और किसानों के अच्छे मित्र थे, ने देश के उद्धार अर्थात् स्वतन्त्रता के लिए बहुत वर्षों तक लगातार प्रयत्न किया।

(2)
यश्चापूर्वगुणैर्युक्तः पूज्यतेऽखिलभारते।
सतां बहुमतो देशे विदेशेष्वपि मानितः ॥

शब्दार्थ

अपूर्वगुणैः = अद्भुत गुणों से।
पूज्यते = पूजे गये।
अखिल भारते = सम्पूर्ण भारतवर्ष में।
सताम् = सज्जन पुरुषों का।
बहुमतः = सम्मानित।
मानितः = सम्मान को प्राप्त हुए।

अन्वय
अपूर्वगुणैः युक्तः यः अखिलभारते पूज्यते। देशे सतां बहुमतः यः विदेशेषु अपि मानितः अस्ति।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में गाँधी जी के गुणों का वर्णन किया गया है।

व्याख्या
अपने अद्भुत गुणों से युक्त जो (गाँधी जी) सम्पूर्ण भारतवर्ष में पूजे जाते हैं, देश के सज्जनों द्वारा सम्मानित वे विदेशों में भी सम्मान को प्राप्त हुए। तात्पर्य यह है कि अपने अद्भुत गुणे के. द्वारा गाँधी जी केवल अपने देश में ही नहीं, वरन् विदेशों में भी अत्यधिक सम्मानित हुए।

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(3)
वीतरागो जितक्रोधः सत्याऽहिंसाव्रती मुनिः।। 
स्थितधीर्नित्यसत्त्वस्थो महात्मा सोऽभिधीयते ॥

शब्दार्थ-
वीतरागः = राग-द्वेष से रहित।
जितक्रोधः = क्रोध को जीतने वाले।
सत्यहिंसाव्रती = सत्य और अहिंसा व्रत वाले।
स्थितधीः = स्थिर बुद्धि वाले।
नित्य सत्त्वस्थः = सदैव आत्मबल में स्थित रहने वाले।
अभिधीयते = कहलाता है।

अन्वय
सः वीतरागः, जितक्रोधः, सत्याहिंसाव्रती, मुनिः, स्थितधीः, नित्यसत्त्वस्थः महात्मा अभिधीयते।।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में गाँधी जी के गुणों का वर्णन किया गया है।

व्याख्या
वे (गाँधी जी) राग-द्वेष से रहित, क्रोध को जीतने वाले, सत्य और अहिंसा का नियमपूर्वक पालन करने वाले, मुनिस्वरूप, स्थिर बुद्धि वाले, अपने आत्मबल में स्थित रहने वाले महात्मा कहलाते हैं। तात्पर्य यह है कि इन (ऊपर उल्लिखित) गुणों से युक्त व्यक्ति महात्मा कहलाते हैं; क्योंकि गाँधी जी भी इन गुणों से युक्त थे, इसलिए वे भी महात्मा कहलाए।

(4)
क्षुत्पिपासाऽभिभूतासु ग्रामीण-जन-कोटिषु ।
अल्पान्नेन निजं देहमस्थिशेषं निनाय सः॥

शब्दार्थ
क्षुत्पिपासाऽभिभूतासु = भूख और प्यास से पीड़ित होने पर।
ग्रामीणजन कोटिषु = करोड़ों ग्रामीण लोगों के।
अल्पान्नेन = थोड़े अन्न से।
अस्थिशेषं निनाय = हड्डीमात्र रूप शेष वाला बना लिया।

अन्वय
स: ग्रामीणजनकोटिषु क्षुत्पिपासाऽभिभूतासु (सतीषु) अल्पान्नेन निज़ देहम् अस्थिशेषं निनाय।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक से गाँधी जी के चरित्र-व्यक्तित्व का ज्ञान होता है।

व्याख्या
वे (महात्मा गाँधी) थोड़े-से अन्न पर ही निर्वाह करते थे; क्योंकि करोड़ों भारतीय ग्रामीण बिना अन्न के ही भूखे-प्यासे रहते थे। इसलिए उनका शरीर हड्डियों का ढाँचामात्र ही रह गया था। तात्पर्य यह है कि अधिकांश भारतीयों को भूखे-प्यासे जीवन व्यतीत करते देखकर गाँधी जी भी बहुत कम अन्न ग्रहण करते थे। इससे उनका शरीर अस्थि-पंजर मात्र रह गया था। |

(5)
ग्रामीणानां क्षुधाऽऽर्तानां क्षेत्रे क्षेत्रेऽपि निर्जले ।।
दृष्ट्वाऽस्थिपञ्जरान् भीमान् विषण्णोऽभू दयाकुलः ॥

शब्दार्थ
ग्रामीणानां = ग्रामवासियों को।
क्षुधाऽऽर्तानां = भूख से पीड़ित।
क्षेत्रे = क्षेत्र में।
निर्जले = जल से रहित।
दृष्ट्वा = देखकर।
अस्थिपञ्जरान् = हड़ियों के ढाँचे रूप शरीर को।
भीमान् = भयंकर रूप से।
विषण्णः = दु:खी।
अभूत = हुए।
दयाकुलः = दया से व्याकुल।

अन्वय
दयाकुलः (स:) निर्जले क्षेत्रे क्षेत्रेऽपि क्षुधार्तानां ग्रामीणानां भीमान् अस्थिपञ्जरान् दृष्ट्वा विषण्णः अभूत्।।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक से गाँधी जी के चरित्र-व्यक्तित्व का ज्ञान होता है।

व्याख्या
वे महात्मा गाँधी अत्यन्त दयालु थे। स्थान-स्थान पर भूखे और प्यासे ग्रामीणों के भयंकर अस्थि-पंजर को देखकर वे अत्यन्त दु:खी हो गये। तात्पर्य यह है कि गाँधी जी ने अनेकानेक स्थानों पर भूख और प्यास से व्याकुल जर्जर शरीर वाले ग्रामीणों को देखा। इससे वे दयालु पुरुष अत्यधिक दु:खी हुए।

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(6)
इतरैरवधूतानामन्त्यजानामवस्थया

द्रवीभूतो महात्माऽसौ दीनानां गौतमो यथा ॥

शब्दार्थ
इतरैः = दूसरों के द्वारा।
अवधूतानां = अपमानित किये हुए।
अन्त्यजानाम् = शूद्रों की।
अवस्थया = स्थिति के द्वारा।
द्रवीभूतः = दयापूर्ण हो गये।
गौतमः = गौतम बुद्ध।

अन्वय
असौ महात्मा इतरैः अवधूतानाम् अन्त्यजानाम् अवस्थया दीनानां (अवस्थया) यथा गौतमः (दीनानाम् अवस्थया) द्रवीभूतः।

प्रसंग
प्रस्तुत पद्यांश में उपेक्षितों और अपमानितों के प्रति गाँधी जी के दयाभाव को दर्शाया गया है।

व्याख्या
वह महात्मा दूसरे (उच्च वर्ग के) लोगों के द्वारा अपमानित किये गये शूद्रों की अवस्था से उसी प्रकार दयापूर्ण हो गये, जैसे महात्मा बुद्ध दीनों की अवस्था से द्रवित हो गये थे। विशेष प्रस्तुत श्लोक में महात्मा गाँधी को महात्मा गौतम बुद्ध के समतुल्य सिद्ध किया गया है।

(7)
स्वबान्धवानसौ पौरान मोहसुप्तानबोधयत् ।
स्वधर्मः परमो धर्मो न त्याज्योऽयं विपद्यपि ॥

शब्दार्थ
स्वबान्धवान् = अपने बन्धु-बान्धवों को।
असौ = उन्होंने।
पौरान् = पुरवासियों को।
मोहसुप्तान् = मोह या अज्ञान में पड़े हुए।
अबोधयत् = जगाया, समझाया।
स्वधर्मः = अपना धर्म।
परमः = श्रेष्ठ।
न त्याज्यः = नहीं त्यागना चाहिए।
विपद्यपि (विपदि + अपि) = विपत्ति में भी।

अन्वय
असौ मोहसुप्तान् स्वबान्धवान् पौरान् अबोधयंत्। स्वधर्मः परम: धर्मः (अस्ति), अयं विपदि अपि न त्याज्य:।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में गाँधी जी द्वारा नगरवासियों को प्रोत्साहित किये जाने का वर्णन है।

व्याख्या
उस महात्मा ने मोह (अज्ञान) में सोये हुए अपने नगरवासी बन्धुओं को समझाया कि अपना धर्म उत्तम धर्म है, इसे विपत्ति में भी नहीं त्यागना चाहिए। तात्पर्य यह है कि गाँधी जी ने अज्ञानावस्था में सुप्त जनों को अपने धर्म की महत्ता बैतलायी। अन्यत्र कहा भी गया है-‘स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।।

(8)
कर्षकाणां स्थितिं तेषां कष्ट-मूलं च वेदितुम् ।
त्यक्तभोगो विपद्बन्धुग्रमे ग्रामे चचार सः॥

शब्दार्थ
कर्षकाणाम् = किसानों की।
कष्ट-मूलम् = कष्टों के मूल कारण को।
वेदितुम् = जानने के लिए।
त्यक्त भोगः = सुख-भोगों का त्याग किया हुआ।
विपद्बन्धुः = विपत्ति में बन्धु के समान सहायता करने वाले।
ग्रामे-ग्रामे = गाँव-गाँव में।
चचार = विचरण किया।

अन्वय
विपद्बन्धुः सः कर्षकाणां स्थितिं तेषां कष्टमूलं च वेदितुं त्यक्तभोगः (सन्) ग्रामे-ग्रामे चचार।।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में कृषकों के उत्थान के लिए गाँधी जी द्वारा किये गये प्रयास का वर्णन किया गया है।

व्याख्या
विपत्ति के समय में बन्धु के समान सहायता करने वाले उसे महात्मा ने किसानों की दशा को और उनके कष्टों के मूल कारणों को जानने के लिए अपने सुखभोगों का त्याग करते हुए गाँव-गाँव में भ्रमण किया।

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(9)
मासषकं निरुद्योगा निवसन्ति कृषीवलाः।
अतएव हि, संवृद्धिर्दारिद्र्यस्य पदे पदे ॥

शब्दार्थ
मासषट्कम् = छः महीने तक।
निरुद्योगाः = बिना काम किये (निठल्ले)।
निवसन्ति = रहते हैं।
कृषीवलाः = कृषि वाले अर्थात् किसान।
संवृद्धिः = बढ़ोत्तरी।
दारिद्र्यस्य = गरीबी की।
पदे-पदे = पग-पग पर।

अन्वय
कृषीवला: मासषट्कं निरुद्योगाः निवसन्ति। अतएव पदे-पदे (तेषां) दारिद्र्यस्य हि संवृद्धिः (भवति)। | प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश में गाँधी जी द्वारा कृषकों की निर्धनता के मूल कारण के ज्ञान का वर्णन किया गया है।

व्याख्या
किसान लोग छः महीने तक बिना काम किये निठल्ले रहते हैं। इसी कारण पग-पग पर उनकी दरिद्रता की निश्चय ही बढ़ोत्तरी होती है; क्योंकि बिना कर्म किये धनागम असम्भव है। |

(10)
विधेयं तान्तवं तस्मादल्पलाभमपि ध्रुवम्।।
येन सुषुपयोगः स्यात्कालस्येति जगाद सः ।।

शब्दार्थ
विधेयम् = करना चाहिए।
तान्तवम् = सूत की कताई व बुनाई।
तस्मात् = उससे।
अल्पलाभम् अपि = थोड़े लाभ वाला भी।
धुवं = अवश्य।
सुष्टु = अच्छा, सही।
सत्यात् = होगा।
कालस्य = समय का।
जगाद = कहा।

अन्वय
तस्मात् अल्पलाभम् अपि तान्तवं ध्रुवं विधेयम्। येन कालस्य सुष्ष्ठ उपयोगः । स्यात् इति सः जगाद।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में गाँधी जी ने किसानों को सूत कातने के लिए प्रेरित किया है।

व्याख्या
उन्होंने ग्रामीण कृषकों को समझाया कि थोड़े लाभ वाला होते हुए भी सूत की कताई-बुनाई का कार्य अवश्य करना चाहिए, जिससे उनके समय का उत्तम उपयोग हो सके। तात्पर्य यह है कि गाँधी जी ने किसानों को उनके खाली समय के सदुपयोग हेतु उन्हें कताई-बुनाई की ओर प्रेरित किया।

(11)
उत्तिष्ठत ततः शीघ्रं तान्तवे कुरुतोद्यमम्।
पट-कर्मा जनो येन प्रतिपद्येत तत्फलम् ॥

शाख्दार्थ
उत्तिष्ठत = उठो।
ततः = तब।
शीघ्रम् = शीघ्र।
तान्तवे = सूत कताई-बुनाई के कार्य में।
कुरुत = करो।
उद्यमम् = श्रम।
पटकर्मा = वस्त्र बनाने वाला जुलाहा।
प्रतिपद्येत = प्राप्त करे।

अन्वय
ततः शीघ्रम् उत्तिष्ठत। तान्तवे उद्यमं कुरुत। येन पटकर्मा जनः तत्फलं प्रतिपद्येत।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में गाँधी जी ने किसानों को सूत कातने के लिए प्रेरित किया है।

व्याख्या
इसलिए शीघ्र उठो और सूत की कताई-बुनाई के कार्य में परिश्रम करो, जिससे वस्त्र बनाने वाला कारीगर उसका लाभ प्राप्त कर सके।

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(12)
हस्तनिर्मितवासांसि प्राप्स्यत्येवं जनोऽखिलः।।
ततो देशोदय-प्राप्तिरिति भूयो न्यवेदयत् ॥

शब्दार्थ
हस्तनिर्मितवासांसि = हाथ से बने हुँए कपड़े।
प्राप्स्यति = प्राप्त करेगा।
अखिलः = समस्त।
ततः = तब।
देशोदय प्राप्तिः = देश की उन्नति की प्राप्ति।
भूयः = बार-बार।
न्यवेदयत् = निवेदन किया।

अन्वय
एवम् अखिलः जनः हस्तनिर्मित वासांसि प्राप्स्यति। ततः देशोदय प्राप्तिः (भविष्यति) इति सः भय: न्यवेदयत्।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में गाँधी जी ने स्वदेशी वस्त्रों के उपयोग के प्रति लोगों को जाग्रत किया है।

व्याख्या
इस प्रकार सभी मनुष्य हाथ से बने कपड़े प्राप्त कर लेंगे। इसके पश्चात् देश को उन्नति की प्राप्ति होगी। ऐसा उन्होंने बार-बार निवेदन किया। तात्पर्य यह है कि स्वदेशी वस्तुओं को अपनाने से ही देश की उन्नति होगी, ऐसा गाँधी जी का मानना था।

(13)
भारतावनि-रत्नाय सिद्ध-तुल्य-महात्मने ।
गान्धि-वंश-प्रदीपाय प्रणामोऽस्तु महात्मने ।।

शब्दार्थ
भारतावनि-रत्नाय = भारतभूमि के रत्नस्वरूप के लिए।
सिद्धतुल्यमहात्मने = सिद्ध योगी के समान महान् आत्मा वाले।
गान्धिवंशप्रदीपाय = गाँधी वंश को प्रकाशित करने वाले दीपक के समान।
प्रणामः अस्तु = नमस्कार हो।
महात्मने = महात्मा के लिए।

अन्वय
भारतावनि-रत्नाय, सिद्धतुल्यमहात्मने, गान्धिवंशप्रदीपाय महात्मने (अस्माकं) प्रणामः अस्तु।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में कवयित्री ने गाँधी जी को अपना प्रणाम निवेदित किया है।

व्याख्या
भारतभूमि के रत्नस्वरूप, सिद्ध योगी के समान महान् आत्मा वाले, गाँधी कुल को : प्रकाशित करने वाले दीपक के समान उस महात्मा को प्रणाम हो।

सूक्तिपरक वयवस्या

(1)
स्थितधीर्नित्यसत्त्वस्थो महात्मा सोऽभिधीयते।
सन्दर्य
प्रस्तुत सूक्ति हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत-पद्य-पीयूषम्’ के ‘दीनबन्धुर्गान्धी’ नामक पाठ से ली गयी है।

[संकेत-इस शीर्षक के अन्तर्गत आयी हुई समस्त सूक्तियों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]

प्रसंग
प्रस्तुत सूक्ति में महात्माओं के गुणों पर प्रकाश डाला गया है।

अर्थ
स्थिर बुद्धि वाले और अपने आत्मबल में स्थित रहने वाले महात्मा कहलाते हैं।

व्याख्या
महापुरुषों के लक्षण बताती हुई सुप्रसिद्ध कवयित्री पण्डिता क्षमाराव कहती हैं कि महात्मा पुरुष स्थितप्रज्ञ होते हैं। वे महान् संकट आने पर भी विचलित नहीं होते। महात्मा पुरुष सदैव अपने स्वाभाविक रूप में स्थित रहते हैं। उनके ऊपर सुख और दुःख का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। गाँधी जी में भी उपर्युक्त सभी गुण विद्यमान् थे; इसीलिए वे महात्मा कहे जाते थे।

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(2)
द्रवीभूतो महात्माऽसौ दीनानां गौतमो यथा। |

प्रसंग
प्रस्तुत सूक्ति में महात्मा गाँधी के कोमल हृदय की तुलना गौतम बुद्ध से की गयी है।

अर्थ
यह महात्मा (गाँधी) इसी प्रकार दयापूर्ण हो गये जैसे दोनों को देखकर गौतम (द्रवित हो गये 
थे)।

व्याख्या
जिस प्रकार महात्मा गौतम बुद्ध दीन-दुःखियों के दुःखों को देखकर द्रवीभूत हो जाते थे, उसी प्रकार उच्चवर्ग के लोगों से अपमानित शूद्रजनों की अत्यन्त हीन दशा को देखकर उस परम कारुणिक महात्मा गाँधी का हृदय भी दया से भर जाता था। तात्पर्य यह है कि गाँधी जी का हृदय दीन-दुखियों के प्रति अत्यधिक दया से युक्त था।

(3)
स्वधर्मः परमो धर्मो, न त्याज्योऽयं विपद्यपि।

प्रसंग

प्रस्तुत सूक्ति में महात्मा गाँधी द्वारा अपने धर्म को न त्यागने की बात कही गयी है।

अर्थ
अपना धर्म ही श्रेष्ठ धर्म है, उसे विपत्ति में भी नहीं छोड़ना चाहिए।

व्याख्या
जो धारण करने योग्य है, वही धर्म है। धर्म का अर्थ होता है-कर्त्तव्य। व्यक्ति के द्वारा किये जाने वाले सभी कर्तव्यों को धर्म के अन्तर्गत रखा जाता है। प्रत्येक व्यक्ति के कुछ कर्तव्य होते हैं। अपना कर्तव्य करना ही श्रेष्ठ है, उन्हें विपत्ति आने पर भी नहीं त्यागना चाहिए। गाँधी जी ने अज्ञान में पड़े हुए अपने बन्धुओं को विपत्ति में भी स्वधर्म का पालन करने के लिए समझाया। गीता में भी कहा गया है-‘स्वधर्मे निधनं श्रेयः, परधर्मो भयावहः।’ अर्थात् अपने धर्म-पालन करने में यदि मृत्यु भी हो जाती है तो श्रेष्ठ है। दूसरे के धर्म का अवलम्ब नहीं लेना चाहिए।

श्लोक का संस्कृतअर्थ

(1) इतरैरवधूतानां  •••••••••• गौतमो यथा ॥ (श्लोक 6)
संस्कृतार्थः-
सवर्णाः जनाः शूद्रान् जनान् तिरस्कुर्वन्ति, तेषाम् अवस्थां दृष्ट्वा असौ महात्मागान्धी तथा परमकारुणिकः अभवत् यथा गौतम बुद्धः दीनानां दशां दृष्ट्वा परम: दयालुः अभवत्।।

(2) विधेयं तान्तवं.•••••••••••••••• जगांद सः ।। (श्लोक 10 )
संस्कृतार्थः–
कृषीवलाः षट्मासान् निरुद्योगा एव यापयन्ति इयमेव तेषां दरिद्रतायाः कारणं महात्मागान्धी अमन्यत। तेषां समयस्य सदुपयोगाय सः तन्तु निष्कासन रूपं कार्यं युक्तम् अमन्यत, अनेन कार्येण अल्पलाभ एव वरम्। अनेन कार्येण तेषां समयस्य सदुपयोगस्तु भविष्यति इति महात्मागान्धिः अकथयत्।

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(3) भारतावनि रत्नाय••••••••••••••••••••••••••••प्रणामोऽस्तु महात्मने ॥ (श्लोक 13 )
संस्कृतार्थः–
भारतदेशस्य रत्नस्वरूपाय, गौतमतुल्यस्वभावाय, गान्धीवंशस्य यशोविस्तारकाय महात्मने पूज्य महात्मागान्धीमहाभागाय भारतीयानां भूयो भूयः प्रणामाः समर्पिताः सन्ति।

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