UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 10 क्रियाकारक-कतूहलम् (पद्य-पीयूषम्)

UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 10 क्रियाकारक-कतूहलम् (पद्य-पीयूषम्) the students can refer to these answers to prepare for the examinations. The solutions provided in the Free PDF download of UP Board Solutions for Class 9 are beneficial in enhancing conceptual knowledge.

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 9
Subject Sanskrit
Chapter Chapter 10
Chapter Name क्रियाकारक-कतूहलम् (पद्य-पीयूषम्)
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 10 क्रियाकारक-कतूहलम्  (पद्य-पीयूषम्)

परिचय-कोरक और क्रिया के सम्बन्ध से वाक्य का निर्माण होता है। अतः कारक और क्रिया-पदों के भली-भाँति ज्ञान से ही वाक्य का ज्ञान सम्भव है। वाक्य-रचना के समुचित ज्ञान से ही किसी भाषा को समझने एवं बोलने की शक्ति मिलती है। संस्कृत भाषा के लिए तो इस ज्ञान का होना और भी आवश्यक है, क्योंकि इसमें परिस्थिति-विशेष में विभक्ति-विशेष के प्रयोग के अतिरिक्त नियम भी हैं। कारक और क्रिया के अतिरिक्त संस्कृत भाषा के ज्ञान के लिए क्रिया के कालों अर्थात् लकारों का ज्ञान होना भी आवश्यक है। । प्रस्तुत पाठ में सरल एवं मनोरम ढंग से सात विभक्तियों एवं पाँच लकारों का प्रयोग किया गया है। प्रारम्भ में ऐसे सात श्लोक हैं, जिनमें प्रथम, (UPBoardSolutions.com) द्वितीया, तृतीया आदि विभक्तियों का अधिक प्रयोग किया गया है। बाद में पाँच श्लोक ऐसे हैं, जिनमें विभिन्न लकारों में क्रियाओं का प्रयोग है। संस्कृत में कुल दस लकार होते हैं, लेकिन लकारों से सम्बन्धित केवल पाँच श्लोक ही दिये गये हैं, क्योंकि पाठ्यक्रम में मात्र पाँच लकार ही निर्धारित हैं। इससे सातों विभक्तियों और पाँचों लकारों के प्रयोग का ज्ञान सरलता से हो जाएगा। प्रस्तुत पाठ के सभी श्लोक नीति-सम्बन्धी भी हैं।

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पद्यांशों की ससन्दर्भ व्याख्या
विभक्ति-परिचयः

(1)
उद्यमः साहसं धैर्यं बुद्धिः शक्तिः पराक्रमः।
षडेते यत्र वर्तन्ते तत्र देवः सहायकृत् ॥

राख्दार्थ
उद्यमः = परिश्रम।
षडेते (षट् + एते) = ये छः।
वृर्तन्ते = रहते हैं।
देवः = ईश्वर।
सहायकृत् = सहायता करने वाला।

सन्दर्य
प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत पद्य-पीयूषम्’ के क्रियाकारककुतूहलम्’ पाठ के अन्तर्गत ‘विभक्ति-परिचयः’ शीर्षक से उद्धृत है।

[संकेत-श्लोक संख्या 2 से 7 तक के छ: श्लोकों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगी।]

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में मनुष्य के लिए आवश्यक छः गुणों का वर्णन तथा प्रथमा विभक्ति का प्रयोग किया गया है।

अन्वय
उद्यमः, साहस, धैर्य, बुद्धिः, शक्तिं, पराक्रमः एते षट् यत्र वर्तन्ते तत्र देवः सहायकृत् (भवति)।

व्याख्या
उद्योग, साहस, धीरज, बुद्धि, बल और पराक्रम-ये छः गुण जिस व्यक्ति में होते हैं, उसकी ईश्वर सहायता करने वाला होता है। तात्पर्य यह है कि जिस व्यक्ति में ये छः गुण नहीं होते, उसकी सहायता ईश्वर भी नहीं करता है।

(2)
विनयो वंशमाख्याति देशमाख्याति भाषितम्।
सम्भ्रमः स्नेहमाख्याति वपुराख्याति भोजनम् ॥

शब्दार्थ
वंशम् = वंश को, कुल को।
आख्याति = बतलाती है।
भाषितम् = बोली।
सम्भ्रमः = क्रियाशीलता, हड़बड़ी।
स्नेहम् = प्रेम को। वपुः = शरीर।।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक किसी के बाह्य-व्यक्तित्व से उसके

अन्तः-
व्यक्तित्व का ज्ञान कराता है। तथा इसमें द्वितीया विभक्ति का सुन्दर प्रयोग किया गया है।

अन्वय
विनयः वंशम् आख्याति, भाषितं देशम् आख्याति, सम्भ्रमः स्नेहम् आख्याति, वपुः भोजनम् आख्याति।

व्याख्या
किसी व्यक्ति की विनयशीलता को देखकर यह पता लग जाता है कि वह कैसे वंश में उत्पन्न हुआ है। बोलने से उसके स्थान का ज्ञान हो जाता है। क्रियाशीलता (किसी के प्रति उसके) स्नेह को बता देती है तथा शरीर को देखकर पता लग जाता है कि मनुष्य कैसा भोजन करता है।

(3)
मृगाः मृगैः सङ्गमनुव्रजन्ति गावश्च गोभिस्तुरगास्तुरङ्ग।
मूर्खाश्च मूर्खः सुधियः सुधीभिः समानशील-व्यसनेषु सख्यम् ॥

शब्दार्थ
मृगाः = हिरन।
सङ्गम् = साथ।
अनुव्रजन्ति.= साथ-साथ चलते हैं।
गावः = गायें।
तुरगाः = घोड़े।
तुरङ्ग = घोड़ों के साथ।
सुधियः = बुद्धिमान्।
समानशीलव्यसनेषु = जिनके स्वभाव और रुचियाँ एक समान हों, उनमें
सख्यम् = मित्रता।

प्रसंग
तृतीया विभक्ति के प्रयोग के माध्यम से प्रस्तुत श्लोक में समान स्वभाव, आदत वाले व्यक्तियों की मित्रता उदाहरण देकर बतायी गयी है।

अन्वय
मृगाः मृगैः (सङ्गम्) गावः (च) गोभिः (सङ्गम्), तुरगाः तुरङ्गैः (सङ्गम्) मूर्खाः (च) मूर्खः (सङ्गम्), सुधिय: सुधीभिः सङ्गम् अनुव्रजन्ति। समानशील-व्यसनेषु सख्यम् (भवति)।

व्याख्यो
हिरन हिरनों के साथ और गायें गायों के साथ, घोड़े घोड़ों के साथ और मूर्ख मूर्खा के साथ, बुद्धिमान् बुद्धिमानों के साथ-साथ चलते हैं। समान अथवा एक जैसे स्वभाव और आदत वालों में मित्रता होती है।

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(4)
विद्या विवादाय धनं मदाय शक्तिः परेषां परिपीडनाय।
खलस्य साधोर्विपरीतमेतद् ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय॥

शब्दार्थ
विवादाय = झगड़े के लिए।
मदाय = घमण्ड करने के लिए।
परेषां = दूसरों को।
परिपीडनाये = सताने के लिए।
खलस्य = दुष्ट की।
साधोः = सज्जन।
विपरीतम् = उल्टा।
एतद् = इसके।
ज्ञानाय = ज्ञान के लिए।
दानाय = दान के लिए।
रक्षणाय = रक्षा के लिए।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में चतुर्थी विभक्ति के प्रयोग के माध्यम से दुष्ट और सज्जन पुरुष के अन्तर को बताया गया है।

अन्वय
खलस्य विद्या विवादाय (भवति), धनं मदाय (भवति), शक्ति परेषां परिपीडनाय (भवति)। एतद् विपरीतं साधोः (विद्या) ज्ञानाय (भवति),(धनं) दानाय (भवति), (शक्तिः ) परेषां रक्षणाय च (भवति)।

व्याख्या
दुष्ट की विद्या विवाद के लिए होती है, धन घमण्ड करने के लिए होता है और शक्ति दूसरों को पीड़ित करने के लिए होती है। इसके विपरीत सज्जन की विद्या ज्ञाने के लिए होती है, धन दान देने के लिए होता है और शक्ति दूसरों की रक्षा करने के लिए होती है।

(5)
क्रोधात् भवति सम्मोहः सम्मोहात् स्मृतिविभ्रमः।।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात् प्रणश्यति ॥

शब्दार्थ
क्रोधात् = क्रोध से।
सम्मोहः = अज्ञान।
स्मृतिविभ्रमः = स्मरण-शक्ति का नाश।
स्मृतिभ्रंशात् = स्मरण शक्ति के नाश से।
बुद्धिनाशः = बुद्धि का नाश।
प्रणश्यति = नष्ट हो जाता है।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में पंचमी विभक्ति के प्रयोग के माध्यम से क्रोध को नाश का मूल कारण बताया गया है।

अन्वय
क्रोधात् सम्मोहः भवति। सम्मोहात् स्मृतिविभ्रमः (भवति)। स्मृतिभ्रंशात् बुद्धिनाशः (भवति)। बुद्धिनाशात् (जन:) प्रणश्यति।।

व्याख्या
क्रोध से व्यक्ति को अज्ञान होता है। अज्ञान से स्मरण-शक्ति का नाश होता है। स्मृति के नष्ट हो जाने से बुद्धि का नाश होता है। बुद्धि के नष्ट हो जाने से मनुष्य ही नष्ट हो जाता है।

(6)
अलसस्य कुतो विद्यो अविद्यस्य कुतो धनम् ।
अधनस्य कुतो मित्रम् अमित्रस्य कुतः सुखम् ॥ 

शब्दार्थ
अलसस्य = आलसी व्यक्ति के पास।
कुतः = कहाँ।
अविद्यस्य = विद्याहीन के पास।
अधनस्य = धनहीन के पास।
अमित्रस्य = मित्रहीन के पास।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में षष्ठी विभक्ति के प्रयोग के माध्यम से सुख की प्राप्ति न होने का मूल : कारण आलस्य को बताया गया है।

अन्वय
अलसस्य विद्या कुतः? अविद्यस्य धनं कुतः? अधनस्य मित्रं कुतः? अमित्रस्य सुखं 
कुतः?

व्यख्या
आलसी मनुष्य के पास विद्या कहाँ? विद्याहीन के पास धन कहाँ? धनहीन अर्थात् निर्धन के पास मित्र कहाँ? मित्रहीन को सुख कहाँ? तात्पर्य यह है कि आलसी मनुष्य सुखी नहीं हो सकता। .

(7)
शैले शैले न माणिक्यं मौक्तिकंन गजे गजे।।
साधवो न हि सर्वत्र चन्दनं न वने वने ॥

शब्दार्थ
शैले शैले = प्रत्येक पर्वत पर।
माणिक्यं = माणिक्य नामक रत्न।
मौक्तिकम् = मोती।
गजे गजे = प्रत्येक हाथी के (मस्तक में)।
साधवः = सज्जन।
सर्वत्र = सभी स्थानों पर।
वने वने = प्रत्येक वन में।।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में सप्तमी विभक्ति के प्रयोग के माध्यम से बताया गया है कि उत्तम वस्तुओं की प्राप्ति सभी जगह नहीं हो सकती।।

अन्वय
शैले शैले माणिक्यं न (भवति)। गजे गजे मौक्तिकं न (भवति)। साधवः सर्वत्र न (भवति)। चन्दनं वने वने न (भवति)।

व्याख्या
प्रत्येक पर्वत पर माणिक नहीं होता है। प्रत्येक हाथी के मस्तक में मोती नहीं होता है। सज्जन लोग सभी स्थानों पर नहीं होते हैं। चन्दन का वृक्ष प्रत्येक वन में नहीं होता है।

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लकार-परिचय

(1)
पापान्निवारयति योजयते हिताय गुह्यं निगूहति गुणान् प्रकटीकरोति ।
आपद्गतं च ने जहाति ददाति काले सन्मित्र-लक्षणमिदं प्रवदन्ति सन्तः ॥

शब्दार्थ
पापात् = पाप से।
निवारयति = रोकता है।
योजयते = लगाता है।
हिताय = भलाई में।
गुह्यम् = छिपाने योग्य को।
निगूहति = छिपाता है।
प्रकटीकरोति = प्रकट करता है।
आपद्गतं = विपत्ति में पड़े हुए को।
जहाति = छोड़ता है।
काले = समय पर।
सन्मित्र- लक्षणम् = अच्छे मित्र के लक्षण।
प्रवदन्ति = कहते हैं।
सन्तः = सज्जन पुरुष।।

सन्दर्य
प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत पद्य-पीयूषम्’ के क्रियाकारककुतूहलम्’ पाठ के अन्तर्गत ‘लकार-परिचयः’ शीर्षक से उद्धृत है।

[संकेत-श्लोक संख्या 2 से 5 तक के शेष चार श्लोकों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में लट् लकार (वर्तमान काल) के प्रयोग से अच्छे मित्र के लक्षण बताये गये हैं।

अन्वय
पापात् निवारयति, हिताय योजयते, गुह्यं निगूहति, गुणान् प्रकटीकरोति, आपद्गतं न जहाँति, काले च ददाति सन्तः इदं सन्मित्र लणं अवदन्ति।

व्याख्या
(अच्छा मित्र अपने मित्र को) पाप करने से रोकता है, (उसको) कल्याण के लिए (कामों में) लगाता है, (उसकी) गोपनीय बात को (दूसरों से) छिपाता है, (उसके) गुणों को (दूसरों पर) प्रकट करता है। आपत्ति में पड़े हुए उसुको नहीं छोड़ता है तथा समय आने पर उसे बहुत कुछ (धनादि) देता है। सज्जन पुरुष इसे अच्छे मित्र का लक्षण कहते हैं।

(2)
निन्दन्तु नीतिनिपुणाः यदि वा स्तुवन्तु लक्ष्मीः समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम्।
अद्यैव वी मरणमस्तु युगान्तरे बा न्याय्यात् पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः॥

शब्दार्थ
निन्दन्तु = निन्दा करें।
नीलिनिपुणाः = नीति में कुशल व्यक्ति।
स्तुवन्तु = स्तुति या प्रशंसा करें।
समाविशतु = प्रवेश करे।
गच्छतु = जाए।
यथेष्टम् = इच्छानुसार।
अद्यैव = आज ही।।
मरणम् = मृत्यु।
युगान्तरे = दूसरे युग में, बहुत समय बाद।
न्याय्यात् पथः = न्याय के मार्ग से।
प्रविचलन्ति = विचलित नहीं होते हैं।
पदम् = पगभर भी।
धीराः = धैर्यवान् पुरुष।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में लोट् लकार (आज्ञासूचक) के प्रयोग के माध्यम से धीर पुरुषों की . विशेषता बतायी गयी है।

अन्वय
यदि नीतिनिपुणाः निन्दन्तु स्तुवन्तु वा, लक्ष्मी: (गृह) समाविशतु यथेष्टं वा (अन्यत्र) गच्छतु। अद्य एव मरणम् अस्तु, युगान्तरे वा (मरणम् अस्तु), (परञ्च) धीराः न्याय्यात् पथः पदं न प्रविचलन्ति।

व्याख्या
चाहे नीति में कुशल पुरुष निन्दा करें अथवा प्रशंसा, लक्ष्मी (घर में) प्रवेश करे अथवा इच्छानुसार दूसरी जगह चली जाए, आज ही मृत्यु हो जाए अथवा बहुत समय बाद हो, परन्तु धीर पुरुष न्याय के मार्ग से पगभर भी नहीं डिगते हैं; अर्थात् कितनी ही विपत्तियाँ क्यों न आ जाएँ धीर पुरुष न्याय मार्ग से कभी विचलित नहीं होते।

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(3)
अपठद्योऽखिला विद्याः कलाः सर्वा अशिक्षत।
अजानात् सकलं वेद्यं स वै योग्यतमो नरः ॥

शब्दार्थ
अपठत् = पढ़ लिया।
यः = जिसने।
अखिलाः = समस्त।
अशिक्षत = सीखा है।
अजानात् = जान लिया है।
सकलम् = समस्त।
वेद्यम् = जानने योग्य को।
वै = निश्चय से।
योग्यतमः = सबसे योग्य।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में लङ् लकार (भूतकाल) के प्रयोग के माध्यम से योग्य व्यक्ति की विशेषताएँ बतायी गयी हैं। |

अन्वय
यः अखिलाः विद्याः अपठत् , सर्वाः कलाः अशिक्षत, सकलं वेद्यम् अजानात्, सः नरः योग्यतमः वै (अस्ति)। |

व्याख्या

जिसने समस्त विद्याएँ पढ़ी हैं, समस्त कलाओं को सीखा है, सब जानने योग्य को जान लिया है, वह निश्चय ही सबसे योग्य मनुष्य है। तात्पर्य यह है कि अध्ययन करने वाला, कलाकार और जानने योग्य को जानने वाला व्यक्ति ही योग्य होता है।

(4)
दृष्टिपूतं न्यसेत् पादं वस्त्रपूतं जलं पिबेत् ।
सत्यपूतां वदे वाचं मनःपूतं समाचरेत् ॥

शब्दार्थ
दृष्टिपूतम् = दृष्टि से भली-भाँति देखकर पवित्र किये गये (स्थान पर)।
न्यसेत् = रखनी चाहिए।
पादं = पैर को।
वस्त्रपूतम् = वस्त्र से (छानकर) शुद्ध किये गये।
सत्यपूताम् = सत्य के प्रयोग से पवित्र की गयी।
वदेत् = बोलना चाहिए।
वाचं = वाणी।
मनःपूतम् = मन से पवित्र किये गये (आचरण को)।
समाचरेत् = भली-भाँति व्यवहार करना चाहिए।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में विधिलिंग लकार के प्रयोग के माध्यम से विभिन्न दैनिक कार्यों को करने की विधि बतायी गयी है।

अन्वय
दृष्टिपूतं पादं न्यसेत्। वस्त्रपूतं जलं पिबेत्। सत्यपूतां वाचं वदेत्। मन:पूतं समाचरेत्। व्याख्या-दृष्टि से (भली-भाँति देखकर) पवित्र किये गये (स्थान पर) पैर को रखना चाहिए अर्थात् सोच-समझकर ही कदम रखना चाहिए। वस्त्र से (छानकर) पवित्र किये गये जेलं को पीना चाहिए। सत्य के (व्यवहार) से पवित्र की गयी वाणी को बोलना चाहिए तथा मन द्वारा भली-भाँति विचार करने के बाद जो आचरण पवित्र हो, उचित हो, उसका ही व्यवहार करना चाहिए।

(5)
रात्रिर्गमिष्यति भविष्यति सुप्रभातं भास्वानुदेष्यति हसिष्यति पङ्कजश्रीः।
“इत्थं विचिन्तयति कोशगते द्विरेफे हा हन्त हन्त नलिन गज उज्जहार ॥

शब्दार्थ
रात्रिः = रात्रि।
गमिष्यति = बीतेगी।
भविष्यति = होगा।
सुप्रभातम् = सुन्दर प्रात:काल।
भास्वान् = सूर्य।
उदेष्यति = उदित होंगे।
हसिष्यति = खिलेंगी, हँसेगी।
पङ्कजश्रीः = कमल की शोभा।
इत्थम् = इस प्रकार से।
विचिन्तयति = सोचते रहने पर।
कोशगते = कमल के मध्य भाग के बैठे हुए।
द्विरेफे= भ्रमर के।
नलिनीम् = कमलिनी को।
उज्ज़हार = उखाड़ दिया। ।।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में लृट् लकार (भविष्यत्काल) के प्रयोग के माध्यम से ऐसे महत्त्वाकांक्षी व्यक्ति के प्रति उक्ति कंही गयी है, जिसकी आशाओं पर एकाएक तुषारापात हो गया है।

अन्वय
रात्रिः गमिष्यति, सुप्रभातं भविष्यति, भास्वान् उदेष्यति, पङ्कजश्री: हसिष्यतिकोशगते द्विरेफे इत्थं विचिन्तयति नलिनीं गजः उज्जहार। हो हन्त! हन्त!!

व्याख्या
“रात्रि बीतेगी, सुन्दर प्रभात होगा, सूर्य निकलेगा, कमल की शोभा खिलेगी-कमल के मध्य भाग में बैठे हुए भौरे के ऐसा सोचते रहने पर कमलिनी को हाथी ने उखाड़ डाला। हाय खेद है! खेद है!! तात्पर्य यह है कि व्यक्ति को भविष्य (आने वाले कल) के बारे में अधिक नहीं।’ सोचना चाहिए। अन्यत्र कहा भी गया है–‘को वक्ता तारतम्यस्य तमेकं वेधसं विना।’

सूक्तिपरक वाक्य की व्याख्या


(1)
विनयो वंशमाख्याति देशमाख्याति भाषितम्।।

सन्दर्य :
प्रस्तुत सूक्ति हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत पद्य-पीयूषम्’ के क्रियाकारककुतूहलम्’ पाठ से ली गयी है।

[संकेत-इस पाठ की शेष सभी सूक्तियों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]

प्रसंग
प्रस्तुत सूक्ति में विनय और भाषा के महत्त्व को समझाया गया है।

अर्थ
विनय वंश को बताती है और भाषा देश को।।

व्याख्या
प्रत्येक व्यक्ति का व्यक्तित्व अपने माता-पिता तथा कुल के लोगों के संस्कारों से अवश्य प्रभावित होता है। ऐसा देखने में आता है कि परिवार अथवा वंश के लोगों के अच्छे अथवा बुरे संस्कार बच्चे में अवश्य ही आते हैं। यदि माता-पिता तथा कुल के लोग सभ्य-सुसंस्कृत होते हैं तो व्यक्ति भी संस्कारवान होता है तथा इसके विपरीत होने पर बच्चे भी वैसा ही दुर्गुण ग्रहण कर लेते हैं। विशेष रूप से व्यक्ति को विनयशीलता तो कुल-परंम्परा से ही प्राप्त होती है। इसीलिए किसी व्यक्ति के आचार-व्यवहार तथा विनयशीलता को देखकर अनुमान (UPBoardSolutions.com) लगाया जा सकता है कि वह उच्च कुल से सम्बन्ध रखता है अथवा निम्न कुल से।। | इसी प्रकार से किसी व्यक्ति की भाषा से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि व्यक्ति किस देश, प्रदेश अथवा स्थान-विशेष का रहने वाला है। इसका कारण यह है कि प्रत्येक क्षेत्र-विशेष की भाषा में कुछ-न-कुछ परिवर्तन अवश्य देखने को मिलता है। इसीलिए लोक में एक उक्ति प्रचलित है-‘कोस-कोस पर बदले पानी, चारकोस पर बानी।।

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(2)
वपुराख्याति भोजनम्।

प्रसंग
प्रस्तुत सूक्ति में शरीर के लिए भोजन के महत्त्व को बताया गया है।

अर्थ
शरीर भोजन को बता देता है कि कौन कैसा भोजन करता है। |

व्याख्या
मनुष्य के शरीर की सुन्दरता, सुडौलता और हृष्ट-पुष्टता को देखकर उसके ग्रहण | किये गये भोजन की गुणवत्ता का पता लग जाता है। यदि किसी व्यक्ति का शरीर निस्तेज और निर्बल है, तो इसका अर्थ है कि वह अच्छा भोजन नहीं करता है। यदि किसी का शरीर हृष्ट-पुष्ट एवं तेजस्वी है। तो वह क्तम भोजन करता है, ऐसा उसके शरीर को देखकर ही अनुमान लग जाता है। खिलाड़ियों व पहलवानों के शरीर को देखकर ही पता लग जाता है कि वे कैसा भोजन करते हैं। तात्पर्य यह है कि शरीर की सर्वविध पुष्टता उत्तम भोजन पर ही निर्भर करती है।

(3)
समानशील-व्यसनेषु सख्यम्।

प्रसंग
प्रस्तुत सूक्ति में मित्रता के आधार पर प्रकाश डालते हुए बताया गया है कि मित्रता कैसे लोगों में होती है।

अर्थ
समान स्वभाव और आदत वालों में मित्रता हो जाती है।

व्याख्या
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। उसके बहुत कुछ कार्य दूसरों की सहायता से सम्पन्न होते हैं; अतः वह ऐसे व्यक्ति को अपना मित्र बनाता है, जो उससे मिल-जुलकर रह सके। देखा जाता है कि समान स्वभाव और समान आदत वालों में जल्दी मित्रता हो जाती है। पशु, पशुओं के साथ घूमते हैं; मूर्ख, (UPBoardSolutions.com) मूर्खा के साथ और बुद्धिमान, बुद्धिमानों के साथ रहते हैं; क्योंकि उनकी आदतें और स्वभाव आपस में समान होते हैं; अतः उनमें जल्दी मेल हो जाता है। इसी प्रकार उत्तम और आदर्श छात्र भी अपने समान छात्रों को तलाश कर मित्रता कर लेते हैं। विरोधी स्वभाव वालों में या तो मित्रता होती ही नहीं और यदि होती भी है तो अधिक समय तक स्थिर नहीं रहती।

(4)
अलसस्य कुतो विद्या अविद्यस्य कुतो धनम्।

प्रसंग
प्रस्तुत सूक्ति में कहा गया है कि आलसी और विद्याहीन व्यक्ति निर्धन होता है।

अर्थ
आलसी व्यक्ति को विद्या कहाँ और विद्याहीन को धन कहाँ।

व्याख्या
कोई भी व्यक्ति किसी भी कार्य में तभी सफल हो सकता है जब कि उसके मन में उस कार्य को करने की लगन हो तथा परिश्रम करने की क्षमता हो। बिना परिश्रम के व्यक्ति को इस संसार में कुछ भी नहीं मिलता। विद्या और धन तो अत्यधिक परिश्रम से ही प्राप्त होते हैं। आलसी

व्यक्ति में न तो किसी कार्य को करने की लगन होती है और न ही परिश्रम करने की क्षमता। इसलिए आलसी व्यक्ति को विद्या प्राप्त नहीं हो सकती और धन तो गुणी अर्थात् विद्या से सम्पन्न व्यक्ति को ही मिलता है। तात्पर्य यह है कि यदि व्यक्ति धनवान होना चाहता है तो उसे आलस्य का त्याग करना ही पड़ेगा। उसे यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि ‘न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखें मृगाः।

(5)
न्याय्यात् पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः।

प्रसंग
प्रस्तुत सूक्ति में धीर और न्यायप्रिय व्यक्तियों के चरित्र पर प्रकाश डाला गया है।

अर्थ
धीर पुरुष न्याय के रास्ते से अपने कदम को नहीं हटाते हैं।

व्याख्या
इस संसार में प्रत्येक मनुष्य सुख-दुःख व हानि-लाभ से प्रभावित होता रहता है, लेकिन जो धीर पुरुष होते हैं, वे सदा न्याय के मार्ग पर अग्रसर रहते हैं। उनकी कोई प्रशंसा करे या निन्दा, उनको धन प्राप्त हो या उनका धन नष्ट हो जाए, उनकी उम्र अधिक लम्बी हो, या उनकी उसी दिन मृत्यु हो जाए, वे कभी न्याय के मार्ग से विचलित नहीं होते। धीर पुरुष के ऊपर किसी प्रलोभन का भी प्रभाव नहीं होता।

(6)
सत्यपूतां वदेद्वाचं मनःपूतं समाचरेत्।

प्रसंग
प्रस्तुत सूक्ति में व्यक्ति के लिए श्रेष्ठ आचरण को बताया गया है।

अर्थ
सत्य से पवित्र वचन बोलना चाहिए और पवित्र मन से भली-भाँति आचरण करना चाहिए।

व्याख्या
मनुष्य को कोई बात कहने से पूर्व उसे सत्य की कसौटी पर जाँच लेना चाहिए। जो कोई बात सत्य जान पड़ती हो, उसे ही कहना चाहिए तथा जो बात सत्य प्रतीत न होती हो, उसे नहीं | बोलना चाहिए। मनुष्य को समाज में रहकर अपने कार्य करने होते हैं। कुछ कार्यों को वह मन से करता है तो कुछ को दिखावे के लिए; कुछ बातें वह दूसरों को प्रसन्न करने के लिए करता है तो कुछ अपने कार्य को सिद्ध करने (UPBoardSolutions.com) के लिए। इस प्रकार मनुष्य को सत्यपूर्ण वाणी और मन से पवित्र आचरण ही करना चाहिए। तात्पर्य यह है कि हमारा अन्त:करण जिस बात को ठीक समझे, उसे ही करना चाहिए और मन जो बात करने की अनुमति नहीं देता, उसे नहीं करना चाहिए। अत: किसी कार्य के विषय में करने या करने का सन्देह होने पर अन्त:करण को प्रमाण मानना चाहिए। 

श्लोक का संस्कृत-अर्थ

(1) विद्या विवादाय •••••••••••• दानायचे रक्षणाय॥ (विभक्ति-परिचय, श्लोक 4)
संस्कृतार्थः
कविः खल-सज्जनयोः अन्तरं वर्णयति-दुर्जनस्य विद्या कलहाय भवति, तस्य धनं गर्वाय भोगाय च भवति, तस्य बलम् अन्येषां जनानां पीडनाये भवति, एतद् विपरीतं सज्जनस्य विद्या ज्ञानाय भवति, तस्य वित्तं दानाय भवति, तस्य बलं च अन्येषां रक्षणाय भवति।

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(2) अलसस्य कुतो•••••••••••••••••• कुतः सुखम्॥ (विभक्ति-परिचय, श्लोक 6)
संस्कृतार्थ-
श्रमहीनः जनः विद्यां प्राप्तुं न शक्नोति, विद्याहीनः जनः धनं प्राप्तुम् असमर्थः अस्ति, धनहीनः जनः मित्रं कर्तुं न क्षमोऽस्ति, मित्रहीनस्य सुखं न भवति।।

(3) शैले शैले ••••••••••••••••••••”चन्दनं न वने वने। (विभक्ति-परिचय, श्लोक 7)
संस्कृतार्थः-
प्रत्येकं पर्वते माणिक्यं न भवति, केषुचित् पर्वतेषु एव भवति। प्रत्येकं गजस्य मस्तके मौक्तिकं न भवति, केषाञ्चित् गजानां मस्तके एव भवति। साधुपुरुषाः सर्वेषु स्थानेषु न भवन्ति। प्रत्येकं वने चन्दनं वृक्षं न भवति। अल्पीयेषु वनेषु एव चन्दनं भवति।।

(4) पापान्निवारयति •••••••••••••••••••••”प्रवदन्ति सन्तः॥ (लकार-परिचय, श्लोक 1)
संस्कृतार्थः–
कविः श्रेष्ठस्य मित्रस्य लक्षणानि कथयति-श्रेष्ठमित्रं स्वसुहृदं दुष्कर्मणः दूरीकरोति, सः स्वमित्रं हितकार्येषु संलग्नं करोति, सः स्वमित्रस्य अप्रकाश्यान् दोषान् आच्छादयति, तस्य गुणान् च प्रकाशयति, सः विपत्तौ निमग्नं स्वसुहृदं न परित्यजति, सन्मित्रं स्वमित्रस्य अभावसमये व्ययपूर्त्यर्थं तस्मै धनं प्रयच्छति, सज्जनाः एतत् श्रेष्ठस्य मित्रस्य लक्षणं कथयन्ति। |

(5) निन्दन्तु नीतिनिपुणाः ••••••••••••••••••• पदं न धीराः॥ (लकार-परिचय, श्लोक 2)
संस्कृतार्थः-
कविः धीराणां पुरुषाणां न्यायप्रिंयत्वं वर्णयति। यत् नीतिकुशलाः पुरुषाः धीराणां पुरुषाणां निन्दां कुर्वन्तु ते तेषां प्रशंसां वा कुर्वन्तु, तेषां गृहे धनम् आगच्छेत् तेषां समीपात् वा धनं यथेच्छं गच्छतु, ते निर्धनतां प्राप्नुवन्तु, तेषां मृत्युः तस्मिन्नेव दिने भवतु, युगान्तरं यावत् जीवनं धारयन्तु वा परं धीराः पुरुषाः न्यायपूर्णात् मार्गात् किञ्चिदपि च्युताः न भवन्ति, ते त्यायमार्गम् एव अनुसरन्ति। ।

(6) रात्रिर्गमिष्यति •••••••••••••••••••••••• गज उज्जहार॥ (लकार-परिचय, श्लोक 5) 
संस्कृतार्थः-
कविः मृत्योः समयस्य अनिश्चित्वं वर्णयति यत् रात्रौ कमलपुटे स्थितः एकः अलिः स्वमनसि इत्थं विचारयति स्म यत् इयं घोरा निशा समाप्ती भविष्यति, स्वर्णिमः सुखदः प्रभातकालः भविष्यति, सूर्य उद्गमिष्यति, कमलानां शोभायाः विकासो भविष्यति। सः भ्रमरः तत्र स्थितः विचारयन् एवासीत् यत् एतस्मिन्नेव काले तस्य दैवदुर्विपाकात् एकः गजः तत्र आगच्छत् तां कमलिनीं च उत्पाट्य अनयत् इति खेदस्य विषयः।

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