UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 7 Religion Morality and Customs

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Sociology
Chapter Chapter 7
Chapter Name Religion, Morality and Customs (धर्म, नैतिकता और प्रथाएँ।)
Number of Questions Solved 28
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 7 Religion, Morality and Customs (धर्म, नैतिकता और प्रथाएँ।)

विस्तृत उतरीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1
नैतिकता की परिभाषा दीजिए।
धर्म और नैतिकता में अन्तर स्पष्ट करते हुए सामाजिक नियन्त्रण में नैतिकता की भूमिका के महत्त्व पर प्रकाश डालिए। [2013]
या

धर्म एवं नैतिकता का आधुनिक समाज में भविष्य क्या है? [2013, 15]
या
नैतिकता की विशेषताएँ बताइए तथा धर्म और नैतिकता में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
या
धर्म की समाजशास्त्रीय अवधारणा को स्पष्ट करते हुए नैतिकता से इसका अन्तर बताइए। [2015]
या
धर्म तथा नैतिकता से आप क्या समझते हैं? यह समाज में नियन्त्रण कैसे रख पाता है? समझाइए। [2016]
उतर:

नैतिकता की परिभाषा

उचित-अनुचित के विचार की संकल्पना को नैतिकता कहा जाता है। नैतिकता वह है जो हमें किसी कार्य को करने की या न करने की आज्ञा देती है। नैतिकता में यह भाव भी समाहित है कि अमुक कार्य अनुचित है; अत: उसे नहीं करना चाहिए। नैतिकता का आधार पवित्रता, न्याय और सत्य होते हैं। अन्तरात्मा की सही आवाज नैतिकता है। नैतिकता के मूल्यों को सामाजिक स्वीकृति प्राप्त होती है; अतः इसका पालन करना प्रत्येक व्यक्ति का पावने कर्तव्य बन जाता है। नैतिकता का वास्तविक अर्थ जानने के लिए हमें इसकी परिभाषाओं का अनुशीलन करना होगा। विभिन्न समाजशास्त्रियों ने नैतिकता की परिभाषा निम्नवत् प्रस्तुत की है

मैकाइवर एवं पेज के अनुसार, “नैतिकता का तात्पर्य नियमों की उस व्यवस्था से है जिसके द्वास व्यक्ति का अन्त:करण अच्छे और बुरे का बोध प्राप्त करता है।”

किंग्सले डेविस के अनुसार, नैतिकता कर्त्तव्य की भावना पर अर्थात् उचित व अनुचित पर बल देती है।”

जिसबर्ट के अनुसार, “नैतिक नियम, नियमों की वह व्यवस्था है जो अच्छे और बुरे से सम्बद्ध है तथा जिसका अनुभव अन्तरात्मा द्वारा होता है।’ | नैतिकता, आचार संहिता का दूसरा नाम है। आचार संहिता का उल्लंघन नैतिकता का उल्लंघन है, जिसे समाज बुरा समझता है। नैतिकता में सार्वभौमिकता का गुण पाया जाता है, अर्थात् नैतिकता विश्व के सभी समाजों में विद्यमान रहती है। प्रो० कोपर के अनुसार, नैतिकता के साथ व्यवहार के कुछ नियम जुड़े हैं; जैसे- चोरी न करना, बड़ों का सम्मान करना, चुगली न करना, परिवार का पालन-पोषण करना, किसी की हत्या न करना तथा अविवाहितों को यौनसम्बन्ध स्थापित न करना। नैतिकता अच्छाई और बुराई का बोध कराती है। नैतिकता के नियमों का उल्लंघन करने पर व्यक्ति का अन्त:करण उसे धिक्कारता है। नैतिकता के पीछे सामाजिक शक्ति होती है। नैतिकता, व्यक्ति के अन्त:करण द्वारा उचित-अनुचित का बोध है।

नैतिकता की विशेषताएँ

उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर हम नैतिकता की निम्नलिखित विशेषताओं का उल्लेख कर सकते हैं

  1. नैतिकता व्यवहार के वे नियम हैं जो व्यक्ति में उचित-अनुचित का भाव जगाते हैं।
  2. नैतिकता व्यक्ति के अन्त:करण की आवाज है। यह सामाजिक व्यवहार का उचित प्रतिमान है।
  3. नैतिकता के साथ समाज की शक्ति जुड़ी होती है।।
  4. नैतिकता तर्क पर आधारित है। नैतिकता का सम्बन्ध किसी अदृश्य पारलौकिक शक्ति से नहीं होता।
  5. नैतिकता परिवर्तनशील है। इसके नियम देश, काल और परिस्थितियों के अनुसार बदलते रहते हैं।
  6. नैतिकता का सम्बन्ध समाज से है। समाज जिसे ठीक मानता है, वही नैतिक है।
  7. नैतिक मूल्यों का पालन व्यक्ति स्वेच्छा से करता है, किसी ईश्वरीय शक्ति के भय से नहीं।
  8. नैतिकता व्यक्ति के कर्तव्य और चरित्र से जुड़ी है।
  9. नैतिकता का आधार पवित्रता, ईमानदारी और सत्यता आदि गुण होते हैं।
  10. नैतिकता कभी-कभी धर्म के नियमों का प्रतिपादन करती प्रतीत होती है।

धर्म की अवधारणा

धर्म की समाजशास्त्रीय विवेचना करने वाले विद्वानों में टायलर, फ्रेजर, दुर्वीम, मैक्स वेबर, पारसन्स, मैकिम मेरिएट आदि के नाम प्रमुख हैं। इन विद्वानों ने भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण से धर्म की विवेचना की है, लेकिन एक सामान्य निष्कर्ष के रूप में सभी ने इस तथ्य को स्वीकार किया। है कि धर्म अनेक विश्वासों और आचरणों की वह संगठित व्यवस्था है जिसका सम्बन्ध कुछ। अलौकिक विश्वासों तथा पवित्रता की भावना से होता है। स्पष्ट है कि इस ‘रूप में सामाजिक संगठन तथा व्यक्ति के व्यवहारों को प्रभावित करने में धर्म का विशेष योगदान होता है। इस सन्दर्भ में किंग्सले डेविस ने लिखा है, “धर्म मानव-समाज का एक ऐसा सार्वभौमिक, स्थायी और शाश्वत तत्त्व है जिसे समझे बिना समाज के रूप को बिल्कुल भी नहीं समझा जा सकता।” विभिन्न विद्वानों के विचारों के सन्दर्भ में धर्म के अर्थ को निम्नलिखित रूप से समझा जा सकता है| टायलर ने धर्म की संक्षिप्त परिभाषा देते हुए लिखा है, “धर्म का अर्थ किसी अलौकिक शक्ति में विश्वास करना है। इस कथन के द्वारा टायलर ने यह स्पष्ट किया कि धर्म का सम्बन्ध उन आचरणों और विश्वासों से है जो किसी अलौकिक शक्ति से सम्बन्धित होते हैं। यही विश्वास मानव-व्यवहारों को नियन्त्रित करने का एक प्रमुख आधार है। जेम्स फ्रेजर के अनुसार, “धर्म से मेरा तात्पर्य मनुष्य से श्रेष्ठ उन शक्तियों की सन्तुष्टि अथवा आराधना करना है जिनके बारे में व्यक्तियों का यह विश्वास हो कि वे प्रकृति और मानव-जीवन को नियन्त्रित करती हैं तथा उन्हें मार्ग दिखाती है।”

वास्तव में, धर्म एक जटिल व्यवस्था है। धर्म की प्रकृति को किसी विशेष परिभाषा के द्वारा स्पष्ट कर सकना बहुत कठिन है। इस दृष्टिकोण से यह आवश्यक है कि कुछ प्रमुख विशेषताओं अथवा तत्त्वों के आधार पर धर्म की प्रकृति को स्पष्ट किया जाए।

धर्म और नैतिकता में अन्तर

धर्म और नैतिकता स्थूल रूप में समानार्थी प्रतीत होते हैं। दोनों की परिभाषाओं और विशेषताओं पर दृष्टिपात करने पर पता चलता है कि धर्म और नैतिकता में भारी अन्तर पाया जाता है। दोनों में पाये जाने वाले अन्तरों को निम्नवत् प्रस्तुत किया जा सकता है

सामाजिक नियन्त्रण में नैतिकता की भूमिका

धर्म की भाँति नैतिकता भी सामाजिक नियन्त्रण का एक प्रभावपूर्ण अभिकरण है। नैतिकता व्यक्ति को उचित-अनुचित का ज्ञान कराकर उसे उसके कर्तव्य पथ पर आरूढ़ रखती है। नैतिक आदर्शो से बँधा व्यक्ति केवल वही कार्य करता है जो समाजोपयोगी है। नैतिक नियम व्यक्ति के आन्तरिक पक्ष को नियन्त्रित रखने में अभूतपूर्व सहयोग देते हैं। नैतिकता प्रगतिशीलता की पक्षधर है। अतः यह सामाजिक नियन्त्रण में प्रमुख भूमिका निभाती है तथा उसे प्रगति के पथ पर अग्रसर करती है। वर्तमान सामाजिक जीवन में जैसे-जैसे नैतिक नियमों का महत्त्व बढ़ रहा है, वैसे-वैसे नैतिकता सामाजिक नियन्त्रण के क्षेत्र में अधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने में सक्षम होती जा रही है। नैतिकता में व्यक्ति अपनी अन्तरात्मा की आवाज पर उचित-अनुचित का विवेक कर व्यवहार करता है। नैतिकता के नियम सामाजिक आदर्श के उचित प्रतिमान हैं। अत: इनका क्रियान्वयन समाज को संगठित रखता है। नैतिकता समाज के सदस्यों के व्यवहार को नियन्त्रित करके सामाजिक नियन्त्रण में सहभागी बनती है। व्यक्ति सामूहिक निन्दा और परिहास से बचने के लिए नैतिक मूल्यों का पालन करता है। आलोचना और निरादर के दण्ड के भय से व्यक्ति नैतिकता को अपना अंग बनाता है। नैतिकता व्यक्ति के चरित्र को संगठित बनाकर समाज के नियन्त्रण में अद्वितीय सहयोग देती है। नैतिकता व्यक्ति को अनुचित कार्यों को करने से रोकती है। उचित कार्यों को करने से व्यक्ति में आत्मबल उत्पन्न होता है, जो उसे विषम परिस्थितियों में भी समाज-कल्याण के लिए प्रेरणा देता है। इस प्रकार के सद्कार्य सामाजिक नियन्त्रण को और अधिक बल देते हैं। नैतिकता सामूहिक कल्याण की पोषक होने के कारण सामाजिक नियन्त्रण में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

प्रश्न 2
प्रथा का क्या अर्थ है ? सामाजिक नियन्त्रण में प्रथा की भूमिका के महत्त्व को स्पष्ट कीजिए। [2009, 12, 14, 16]
या
सामाजिक नियन्त्रण में प्रथाओं की भूमिका की विवेचना कीजिए। [2012, 14]
या
प्रथा से आप क्या समझते हैं ? [2012, 15, 17]
या
प्रथा के दो प्रकार्यों का उल्लेख कीजिए। [2010, 15,]
उतर:

प्रथा का अर्थ

प्रथा सामाजिक जीवन का अभिन्न अंग है। समाज में कार्य करने की जो मान्यता प्राप्त विधियाँ होती हैं, उन्हें प्रथा कहा जाता है। लोकरीतियाँ जब लम्बे समय तक प्रचलन में रहने के पश्चात् सामाजिक मान्यता प्राप्त कर लेती हैं तथा उसका हस्तान्तरण अगली पीढ़ी के लिए होने लगता है तब वे प्रथाएँ बन जाती हैं। समाज में रहकर मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की सन्तुष्टि के लिए नयी-नयी विधियाँ खोजता है। धीरे-धीरे इन विधियों को जनसामान्य का समर्थन मिल जाता है। विधियों की निरन्तर पुनरावृत्ति होने पर वह प्रथा का रूप ग्रहण कर लेती हैं। प्रथाएँ समाज की धरोहर होती हैं। प्रत्येक समाज अपने सदस्यों से यह आशा करता है कि वे इस सामाजिक धरोहर को अक्षुण बनाये रखें। आदिम समाज से लेकर वर्तमान जटिल समाज तक प्रथाओं को एक विशिष्ट स्थान प्राप्त है। प्रथाएँ रूढ़िवादिता की पक्षधर होती हैं तथा नवीनता का विरोध करती हैं।

प्रथा की परिभाषा

प्रथाएँ समाज द्वारा स्वीकृत कार्य करने की विधियों को कहा जाता है। इनका सही-सही अर्थ जानने के लिए प्रथाओं की परिभाषाओं का अध्ययन आवश्यक है। विभिन्न समाजशास्त्रियों ने प्रथाओं को निम्नलिखित रूप में परिभाषित किया है|

मैकाइवर एवं पेज़ के अनुसार, “सामाजिक रूप से स्वीकृत कार्य करने की विधि समाज की प्रथाएँ हैं।”

लुण्डबर्ग के अनुसार, “जनरीतियाँ, जो कई पीढ़ियों तक चलती रहती हैं वे औपचारिक मान्यता की एक मात्रा प्राप्त कर लेती हैं, प्रथाएँ कहलाती हैं।”

फेयरचाइल्ड के अनुसार, “एक सामाजिक रूप से प्राधिकृत व्यवहार की विधि जो परम्परा से चलती है एवं उसके तोड़ने की अस्वीकृति से प्रबाधित की जाती है। प्रथा के पीछे राज्य की शक्ति नहीं होती जिससे न कानूनी रूप बनता है, न ही रूढ़ियों की स्वीकृति होती है।”

बोगार्डस के अनुसार, “प्रथाएँ और परम्पराएँ समूह द्वारा स्वीकृत नियन्त्रण की विधियाँ हैं। जो सुव्यवस्थित हो जाती हैं और जिन्हें बिना सोचे-समझे मान्यता प्रदान कर दी जाती है और जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तान्तरित होती हैं।”

सामाजिक नियन्त्रण में प्रथाओं की भूमिका

प्रथाएँ सामाजिक जीवन का अभिन्न अंग हैं। मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए इनका सहारा लेता है। अनेक समाजों में इनका महत्त्व विधि से भी बढ़कर होता है। प्रथाएँ व्यक्ति के व्यवहारों को नियन्त्रित करने में बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। प्रथाओं के अनुपालन से समाज में सुरक्षा आती है, जो सामाजिक नियन्त्रण का प्रतीक है। प्रथाएँ सामाजिक नियन्त्रण में निम्नवत् अपनी भूमिका का निर्वहन करती हैं|

1. सीखने की प्रक्रिया द्वारा सामाजिक नियन्त्रण-
प्रथाएँ पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तान्तरितं होती हैं। ये मानव-जीवन के व्यवहार के आवश्यक अंग बन जाती हैं। समाज से मान्यता प्राप्त प्रविधियाँ सीखने की प्रक्रिया को सरल और तीव्र कर देती हैं। प्रथाओं के माध्यम से मूल्यों के अनुपालन की कला सीखकर व्यक्ति समाज में योग देकर सामाजिक नियन्त्रण का कारण बन जाता है। अनुभवों से प्राप्त पूर्वजों का यह ज्ञान सीखने की प्रक्रिया को सरल कर देती है। इस प्रकार प्रथाएँ सीखने की प्रक्रिया द्वारा सामाजिक नियन्त्रण में अपना योगदान देती हैं।

2. प्रथाएँ सामाजिक परिस्थितियों का अनुकूलन करके सामाजिक नियन्त्रण में सहायक होती हैं-
प्रथाएँ अनेक सामाजिक समस्याओं को हल करने में सक्षम हैं। कठिन परिस्थितियाँ आने पर भी व्यक्ति प्रथाओं के सहारे उनका समाधान खोज ही लेता है। प्रथाएँ समयानुकूल नयी विधियों को जन्म देकर सामाजिक नियन्त्रण को सुदृढ़ करती हैं।

3. प्रथाएँ व्यक्तित्व का निर्माण करके सामाजिक नियन्त्रण में सहयोग देती हैं-
नवजात शिशु प्रथाओं के बीच आँखें खोलता है। प्रथाओं से उसका लालन-पालन होता है। प्रथाएँ उसके विकास में सहायक होती हैं। यहाँ तक कि उसको मृत्यु-संस्कार भी प्रथाओं के अनुरूप ही होता है। प्रथाएँ व्यक्तित्व के विकास में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। संस्कारित व्यक्ति सामाजिक नियन्त्रण के कार्य में अपना भरपूर सहयोग देता है।

4. प्रथाएँ सामाजिक कल्याण में वृद्धि करके सामाजिक नियन्त्रण में सहयोग देती हैं-प्रथाएँ व्यक्ति को समाज-विरोधी कार्यों से सुरक्षित रखती हैं। प्रथाओं का विकास समाज हित और जनकल्याण को ध्यान में रखकर किया जाता है। प्रथाएँ अधिकतम व्यक्तियों का हित करके सामाजिक नियन्त्रण के कार्य में पूरा-पूरा सहयोग देती हैं।

5. प्रथाएँ सामाजिक अनुकूलन में सहयोग देकर सामाजिक नियन्त्रण में भूमिका निभाती हैं-
प्रथाएँ व्यक्ति को उचित-अनुचित का ज्ञान कराकर सामाजिक मूल्यों के अनुपालन का मार्ग प्रशस्त करती हैं। प्रथाएँ व्यक्ति के समाजीकरण में सहायक होकर उसे समाज के अनुकूल ढाल देती हैं। सामाजिक मूल्यों और आदर्शों को ग्रहण करके व्यक्ति अपना व्यवहार समाज के अनुकूल बंदल लेता है। इस प्रकार का व्यवहार सामाजिक नियन्त्रण में भरपूर सहयोग देता है।

6. प्रथाएँ सामाजिक जीवन में एकरूपता लाकर सामाजिक नियन्त्रण में सहयोग देती हैं-
प्रथाएँ समाज के सभी सदस्यों को आदर्शों के अनुरूप एक समान व्यवहार करने की प्रेरणा देती हैं। प्रथाएँ सदस्यों के व्यवहार का अंग बनकर उनमें एकरूपता उत्पन्न करने में सहयोग देती। हैं। सामाजिक जीवन में एकरूपता आने से सामाजिक नियन्त्रण को बल मिलता है। सामाजिक एकरूपता व्यक्तिवादी विचारधारा पर अंकुश लगाकर संघर्ष से बचाव करती है।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि प्रथाएँ सामाजिक नियन्त्रण के कार्य में बहुत प्रभावी होती हैं। सामाजिक आदर्शों और मूल्यों का संरक्षण करके प्रथाएँ सामाजिक नियन्त्रण में बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। लॉक ने प्रथाओं को प्रकृति की सबसे बड़ी शक्ति कहा है। जिन्सबर्ग महोदय ने प्रथाओं के इस पक्ष को इन शब्दों में व्यक्त किया है, “निश्चय ही आदिम युग के समाजों में प्रथा जीवन के सभी क्षेत्रों में व्याप्त रहती है और व्यवहार की छोटी-छोटी बातों में भी उसका हस्तक्षेप होता है और सभ्य समाजों में प्रथा का प्रभाव साधारणतया जितना समझा जाता है, उससे कहीं अधिक होता है। वास्तव में प्रथाएँ, सामाजिक नियन्त्रण में अन्य अभिकरणों से कम महत्त्वपूर्ण भूमिका नहीं निभातीं। वर्तमान युग में जब विज्ञान, प्रौद्योगिकी और आविष्कारों का बोलबाला है, ऐसे में सामाजिक नियन्त्रण में प्रथाओं के महत्त्व को कम आँकना त्रुटिपूर्ण होगा। टी० बी० बॉटोमोर के शब्दों में, “आधुनिक औद्योमिक समाजों में प्रथा की महत्ता उपेक्षणीय से कहीं परे है, क्योंकि धर्म व नैतिकता का अधिक भाग प्रथागत है, बौद्धिक नहीं तथा साधारण सामाजिक आदान-प्रदान का नियमन अधिकांशतः प्रथा और जनमते से होता है।”

लघु उतरीय प्रश्न (4 अक)

प्रश्न 1
धर्म के चार रूप (तत्त्व) लिखिए।
या
धर्म के दो मौलिक लक्षण लिखिए। [2015]
या
धर्म की दो विशेषताएँ लिखिए। [2015, 16]
उतर:
उम्र धर्म के चार रूप (तत्त्व) निम्नलिखित हैं–
1. पवित्रता की धारणा-जिस धर्म से व्यक्ति सम्बन्धित होता है, उस धर्म व उससे जुड़ी प्रत्येक वस्तु, धारणा व व्यक्ति के प्रति उसकी पवित्र धारणा होती है। अत: उसका पूरा प्रयास रहता है कि वह अपवित्रता से स्वयं का बचाव कर सके।
2. प्रार्थना, आराधना या पूजा-विशिष्ट धर्म से जुड़े व्यक्ति अपने मनवांछित फल प्राप्त करने हेतु तथा आने वाली विपदाओं से बचने हेतु उस अलौकिक शक्ति या धार्मिक देवी-देवता की पूजा करते हैं। पूजा, प्रार्थना या आराधना के द्वारा वे अपने इष्ट को प्रसन्न करने का प्रयास करते रहते हैं।
3. धार्मिक प्रतीक व सामग्री-विशेष धर्म के अपने-अपने धार्मिक प्रतीक व सामग्री होती हैं, जिसके प्रति प्रत्येक व्यक्ति की पवित्रता व सम्मान की भावना रहती है; जैसे-हिन्दुओं में मन्दिर, गीता, रामायण आदि। मुस्लिम में कुरान, मस्जिद आदि, ईसाइयों में चर्च, बाइबिल, क्रॉस आदि, सिखों में गुरुद्वारा, गुरु ग्रन्थ साहेब आदि। प्रत्येक धर्म की कुछ कथाएँ व लोकोक्तियाँ होती हैं, जिनके द्वारा मनुष्य एवं ईश्वर में सम्बन्धों को बताने का प्रयास किया जाता है।
4. धार्मिक संस्तरण-विभिन्न धर्मों के अन्तर्गत उच्च व निम्न की स्थिति पाई जाती है जिसे . धार्मिक संस्तरण कहा जाता है। उच्च स्थिति में पण्डित, पुजारी, मौलवी, पंच प्यारे तथा पादरियों आदि को शामिल किया जाता है तथा निम्न के अन्तर्गत अन्य लोग आते हैं। उच्च , वर्ग के धार्मिक व्यक्तियों के मन में श्रेष्ठता का भाव रहता है तथा वे अन्य लोगों से अपने लिए सम्मानजनक व्यवहार की अपेक्षा करते हैं।

प्रश्न 2
समाज पर धर्म के कोई चार प्रभाव लिखिए। या धर्म के चार कार्यों का उल्लेख कीजिए। [2008, 09]
उतर:
धर्म समाजशास्त्रीय सद्कार्य करने की प्रेरणा देता है। मनुष्य समाज-विरोधी कार्यों से हटकर सामाजिक नियमों का पालन करता है। इस प्रकार धर्म सामाजिक नियन्त्रण का रक्षा कवच है। धर्म का सामाजिक जीवन में विशेष महत्त्व है। समाज पर धर्म के चार प्रभाव निम्नलिखित हैं—
1. निराशाओं को दूर करने में सहायक-धर्म समय-समय पर व्यक्तियों में उत्पन्न होने वाली निराशाओं व चिन्ताओं को दूर करके उन्हें शान्ति प्रदान करता है। यह उन्हें कष्टों को सहन करने की शक्ति भी प्रदान करता है। यही कारण है कि विपत्तियों के दिनों में व्यक्तियों के व्यवहारों में धार्मिकता अधिक देखी जाती है।
2. जीवन में निश्चितता लाना-धर्म जीवन में निश्चितता लाता है। यह समाज द्वारा स्वीकृत प्रथाओं व मान्यताओं को स्पष्ट करता है, संस्कृति व पर्यावरण को दृढ़ता प्रदान करता है और रीति-रिवाजों को धार्मिक मान्यता देकर जीवन में निश्चितता लाता है।
3. मानव-व्यवहार में नियन्त्रण-धर्म जीवन में निश्चितता लाने के साथ-साथ मानव-व्यवहार पर नियन्त्रण रखने में भी सहायक है। यह व्यक्ति को अनैतिक कार्यों को करने से रोकता है। इस प्रकार यह व्यक्तियों के व्यवहार पर अनौपचारिक रूप से नियन्त्रण रखने का महत्त्वपूर्ण साधन है।
4. प्रथाओं को संरक्षण देना-धर्म सामाजिक आदर्शों व प्रथाओं को मान्यता देकर उन्हें केवल संरक्षण ही प्रदान नहीं करता, अपितु इन्हें सुदृढ़ भी बनाता है। जिन आदर्शो, मान्यताओं व प्रथाओं को धार्मिक स्वीकृति मिल जाती है, उन्हें परिवर्तित करना कठिन कार्य हो जाता है तथा वे धीरे-धीरे सबल होती जाती हैं।

प्रश्न 3
प्रथा की विशेषताओं का संक्षेप में वर्णन कीजिए। या प्रथा की दो प्रमुख विशेषताएँ बताइए। [2007]
उतर:
प्रथा की निम्नलिखित विशेषताएँ होती हैं

  1. प्रथाएँ समाज में व्यवहार करने की मान्यता प्राप्त विधियाँ हैं।
  2. प्रथाएँ वे जनरीतियाँ हैं, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तान्तरित की जाती हैं।
  3. प्रथाओं को समाज की स्वीकृति प्राप्त होती है, इसलिए इनमें स्थायित्व पाया जाता है।
  4. प्रथाएँ व्यक्ति के व्यवहार पर नियन्त्रण रखती हैं। ये सामाजिक नियन्त्रण का अनौपचारिक साधन हैं। इनकी प्रकृति बाध्यतामूलक होती है।
  5. प्रथाएँ अलिखित एवं अनियोजित होती हैं।
  6. प्रथाओं का निर्माण नहीं होता, वरन् ये समय के साथ धीरे-धीरे विकसित होती हैं।
  7. प्रथाओं के उल्लंघन पर समाज द्वारा प्रतिक्रिया व्यक्त की जाती है और उल्लंघनकर्ता की निन्दा या आलोचना की जाती है।
  8. प्रथाओं का पालन कराने वाली कोई औपचारिक संस्था या संगठन नहीं होता है और न ही इनकी व्याख्या व देख-रेख करने वाला कोई अधिकारी ही होता है। समाज ही प्रथा का न्यायालय है।
  9. प्रथाओं के कठोर एवं अपरिवर्तनशील होते हुए भी समय के साथ-साथ इनमें कुछ परिवर्तन अवश्य आ जाते हैं।

प्रश्न 4
प्रथा के चार कुप्रभावों का उल्लेख कीजिए।
उतर:
प्रथाओं के चार कुप्रभाव निम्नलिखित हैं

1. तर्कसंगत विचारों पर रोक-व्यक्ति बचपन से ही बहुत-सी प्रथाओं के बीच पलता है और |इस कारण प्रथाओं का पालन करना उसकी आदत बन जाती है। प्रथाओं की अधिकार-शक्ति इतनी अधिक होती है कि व्यक्ति बिना तर्क-वितर्क उनको स्वीकार करता रहता है। इस प्रकार प्रथाएँ मनुष्य की तार्किक बुद्धि पर रोक लगा देती हैं।
2. नवीन विचारों एवं व्यवहार के प्रति आशंका उत्पन्न होना-अपनी पुरातनता एवं अधिकार-शक्ति के कारण जो भी नवीन विचार एवं व्यवहार की लहर मनुष्य के अन्दर उठती है, प्रथाएँ उनका दमन करती हैं तथा उनके प्रति आशंका उत्पन्न करती हैं। उदाहरणार्थ श्राद्ध के स्थान पर अनाथाश्रम को दान देने का विचार आशंकाएँ उत्पन्न करता है।
3. बाध्यकारी बन्धन-अपनी प्राचीनता के कारण प्रथाओं की अवहेलना करना एक बड़ा सामाजिक अपराध माना जाता है। इसी कारण बेकन ने प्रथाओं को मनुष्य के जीवन का प्रमुख दण्डाधिकारी कहा है। प्रथाएँ मनुष्य को एक बाध्यकारी बन्धन में बाँधती हैं। अपनी ही उपजाति में विवाह करना, पितृपक्ष अथवा मातृपक्ष से सम्बन्धित व्यक्तियों से विवाह न करना, दहेज और बाल-विवाह में विश्वास रखना आदि बाध्यकारी बन्धनों के उदाहरण हैं।
4. अन्यायपूर्ण प्रवृत्ति-अनेक प्रथाओं की प्रवृत्ति अन्यायपूर्ण होती है। इसका कारण प्रथाओं का रूढ़िवादी तत्त्वों से जुड़ा होना है। इसी कारण कुछ विद्वानों ने प्रथाओं को ‘अन्यायी राजा की संज्ञा दी है। पशु-बलि, सती–प्रथा आदि अन्यायपूर्ण प्रथाओं के उदाहरण हैं।

अतिलघु उतरीय प्रश्न (2 अंक)

प्रश्न 1
धर्म का व्यक्तित्व के विकास में क्या योगदान है ?
उतर:
धर्म व्यक्तित्व के विकास में योग देता है। धर्म व्यक्ति के सम्मुख पवित्र लक्ष्य रखता है, कठिनाइयों के समय धैर्य से काम लेने एवं संकटों का मुकाबला साहस से करने की प्रेरणा देता है। अतः निराशाओं के कारण व्यक्ति का व्यक्तित्व विघटित नहीं हो पाता। वह समस्याओं को ईश्वर की इच्छा मानकर उनका मुकाबला करता है। विघटित व्यक्तित्व समाज के लिए समस्याएँ पैदा करता है। धर्म संगठित व्यक्तित्व का विकास करके भी सामाजिक नियन्त्रण को बनाये रखता है।

प्रश्न 2
बदलते हुए सामाजिक परिवेश के परिप्रेक्ष्य में सामाजिक नियन्त्रण में नैतिकता की महत्ता बताइए।
उतर:
धर्म की तरह नैतिकता भी सामाजिक नियन्त्रण को एक महत्त्वपूर्ण साधन है। नैतिकता व्यक्त को उचित-अनुचित का बोध कराती है और साथ ही उसे अच्छे कार्य करने का निर्देश देती है। नैतिकता अनुचित एवं बुरे कार्यों पर रोक लगाती है। नैतिकता हमें सत्य, ईमानदारी, अहिंसा, न्याय, समानता और प्रेम के गुण सिखाती है और असत्य, बेईमानी, अनाचार, झूठ, अन्याय, चोरी आदि दुर्गुणों से बचाती है। नैतिक नियमों को समाज में उचित एवं आदर्श माना जाता है। इनके उल्लंघन पर सामाजिक निन्दा एवं प्रतिष्ठा की हानि का डर रहता है। नैतिकता में समूह कल्याण की भावना छिपी होती है। धर्म के प्रभाग के कमजोर पड़ जाने के कारण आजकल नैतिकता सामाजिक नियन्त्रण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभ रही है। शिक्षा के प्रसार के साथ-साथ समाज में नैतिक नियमों का महत्त्व भी बढ़ रहा है।

प्रश्न 3
सामाजिक एकीकरण एवं अपराध तथा समाज-विरोधी कार्यों पर नियन्त्रण में धर्म की क्या भूमिका है ?
उतर:
दुर्णीम कहते हैं कि धर्म उन सभी लोगों को एकता के सूत्र में बाँधता है, जो उसमें विश्वास करते हैं। समाज के सदस्यों को संगठित करने के लिए धर्म सबसे दृढ़ सूत्र है। एक धर्म को मानने वाले लोगों में हम की भावना का विकास होता है, वे परस्पर सहयोग करते हैं, उनमें समान विचार, भावनाएँ, विश्वास एवं व्यवहार पाये जाते हैं। धर्म व्यक्ति को कर्तव्यपालन की प्रेरणा देता हैं। सभी व्यक्ति अपने कर्तव्यों का पालन करके सामाजिक संगठन एवं एकता को बनाये रखने में योग देते हैं।

धर्म व्यक्ति की समाज-विरोधी क्रियाओं एवं अपराध पर नियन्त्रण रखता है। धार्मिक नियमों का उल्लंघन करने पर व्यक्ति में अपराध की भावना पैदा होती है। व्यक्ति को ईश्वरीय दण्ड का भय होता है और वह इस भय के कारण अक्सर अपराध व समाज-विरोधी कार्य करने से बचने का प्रयत्न करता है।

प्रश्न 4
प्रथाएँ व्यक्तित्व के विकास में कैसे सहायक होती हैं ? [2007]
उतर:
नवजात शिशु प्रथाओं के बीच आँख खोलता है। प्रथाओं से उसका लालन-पालन होता है। प्रथाएँ उसके विकास में सहायक होती हैं। यहाँ तक कि उसका मृत्यु संस्कार भी प्रथाओं के अनुरूप ही होता है। इस प्रकार प्रथाएँ व्यक्तित्व के विकास में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

प्रश्न 5
प्रथा और आदत में अन्तर बताइए। या प्रथा से आप क्या समझते हैं? [2012, 15]
उतर:
प्रथा शब्द का प्रयोग ऐसी जनरीतियों के लिए होता है, जो समाज में बहुत समय से प्रचलित हों। प्रथा में समूह-कल्याण के भाव निहित होते हैं। इनको पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तान्तरित किया जाता है। प्रथाएँ नवीनता की विरोधी होती हैं तथा यह परम्परागत तरीके से कार्य करने को प्रोत्साहित करती हैं। आदत मानव की एक व्यक्तिगत अनुभूति है। इसका सम्बन्ध व्यक्ति के अपने आचार-व्यवहार तथा उसके अपने कल्याण से ही होता है। आदतों का स्वभाव स्थिर नहीं होता तथा ये परिस्थितियों और व्यक्ति के विकास के साथ-साथ बदलती रहती हैं। ये नवीनता की विरोधी नहीं होतीं।

प्रश्न 6
सामाजिक नियन्त्रण में प्रथाओं की क्या भूमिका है? [2016]
उतर:
प्रथाएँ सीखने की प्रक्रिया, सामाजिक परिस्थितियों से अनुकूलन, व्यक्तित्व का निर्माण, सामाजिक कल्याण में वृद्धि, सामाजिक अनुकूलन में सहयोग तथा सामाजिक जीवन में एकरूपता प्रदान कर सामाजिक नियन्त्रण में अहम भूमिका निभाती है।

निश्चित उत्तीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
धर्म आध्यात्मिक शक्तियों पर विश्वास है। किसने कहा? [2013, 16, 17]
उतर:
टॉयलर महोदय ने।

प्रश्न 2
धर्म की चार विशेषताएँ बताइए। [2015]
या
धर्म की दो विशेषताएँ बताइए। [2016]
उतर:
धर्म की चार विशेषताएँ या रूप हैं

  • अलौकिक शक्ति में विश्वास,
  • पवित्रता की धारणा,
  • प्रार्थना,
  • पूजा एवं आराधना तथा तर्क का अभाव।

प्रश्न 3
धर्म के दो दुष्प्रकार्य बताइए। [2011]
उतर:
धर्म के दो दुष्प्रकार्य निम्नलिखित हैं

  1. प्रत्येक व्यक्ति अपने धर्म को अच्छा मानता है जिसके कारण तनाव, संघर्ष, भेदभाव का जन्म होता है।
  2. धर्म, बुद्धि और तर्क से परे होता है, जिसके कारण समाज में अनेक पूजा-प्रणाली और कर्मकाण्ड होते हैं।

प्रश्न 4
जनरीति व रूढियाँ अवधारणाओं से किस समाजशास्त्री का नाम जुड़ा हुआ है ?
उतर:
जनरीति व रूढ़ियाँ अवधारणाओं से समनर का नाम जुड़ा हुआ है।

प्रश्न 5
‘धर्मशास्त्र का इतिहास नामक पुस्तक के लेखक कौन हैं ? [2009]
उतर:
‘धर्मशास्त्र का इतिहास’ नामक पुस्तक के लेखक पी० वी० काणे हैं।

प्रश्न 6
पॉजिटिव फिलोसॉफी के लेखक कौन हैं ? [2017]
उतर:
आगस्त कॉम्टे।

प्रश्न 7
धर्म और नैतिकता एक-दूसरे के सम्पूरक हैं। (सत्य/असत्य) [2017]
उतर:
असत्य।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1.
यह कथन किसका है ‘धर्म आध्यात्मिक शक्तियों पर विश्वास है?
(क) मैकाइवर
(ख) डेविस
(ग) पैरेटो
(घ) टॉयलर

प्रश्न 2.
धर्म की विशेषता क्या है ?
(क) पारस्परिक सहयोग
(ख) समानता
(ग) अलौकिक शक्ति पर विश्वास
(घ) गुरु पर विश्वास

प्रश्न 3.
निम्नलिखित में से धर्म की विशेषता नहीं है
(क) पवित्रता
(ख) आदर
(ग) विश्वास
(घ) सदाचार

प्रश्न 4.
निम्नलिखित में धर्म की विशेषता नहीं है
(क) कर्मकाण्डों का समावेश
(ख) अलौकिक शक्ति के प्रति विश्वास
(ग) तर्क का समावेश
(घ) अपरिवर्तनशील व्यवहार

प्रश्न 5.
निम्नलिखित में नैतिकता की विशेषता है|
(क) उद्वेगपूर्ण व्यवहार
(ख) कर्तव्य का बोध
(ग) कर्मकाण्ड में विश्वास
(घ) अपरिवर्तनशील व्यवहार

प्रश्न 6.
प्रथा को ‘मानव जीवन का न्यायाधीश’ किस विद्वान् ने माना है ?
(क) शेक्सपियर
(ख) बेकन
(ग) बेजहॉट
(घ) क़ॉम्टे

प्रश्न 7.
प्रथा को ‘महान शक्ति’ किस विद्वान् ने कहा है ?
(क) मार्क्स
(ख) पैरेटो
(ग) लॉक
(घ) वेबर

प्रश्न 8.
प्रथा है [2011, 13]
(क) मूल्य
(ख) लोकाचार
(ग) जनरीति
(घ) प्रतिमान

प्रश्न 9.
‘धर्म अफीम के समान है।’ किसने कहा? [2015]
या
‘धर्म जनता के लिए अफीम है।’ यह किसने कहा? [2016]
(क) काणे ने
(ख) कूले ने
(ग) कार्ल मार्क्स ने
(घ) डेविस ने

उतर:

1. (घ) टॉयलर,
2. (ग) अलौकिक शक्ति पर विश्वास,
3. (घ) सदाचार,
4. (ग) तर्क का समावेश,
5. (ख) कर्तव्य का बोध,
6. (ख) बेकन,
7. (ग) लॉक,
8. (ग) जनरीति,
9. (ग) कार्ल मार्क्स ने।

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