UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 16 Status of Women in Indian Society

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Sociology
Chapter Chapter 16
Chapter Name Status of Women in Indian Society (भारतीय समाज में स्त्रियों का स्थान)
Number of Questions Solved 27
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 16 Status of Women in Indian Society (भारतीय समाज में स्त्रियों का स्थान)

विस्तृत उत्तीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1
भारतीय समाज में स्त्रियों की वर्तमान परिस्थिति पर प्रकाश डालिए। [2009]
या
वर्तमान (स्वतन्त्र) भारत में स्त्रियों की स्थिति में हुए परिवर्तन की विवचेना कीजिए। [2007, 09, 10]
या
स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात स्त्रियों ने शिक्षा के क्षेत्र में क्या प्रगति की है?
उत्तर:
भारतीय समाज में स्त्रियों की वर्तमान स्थिति
स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद पिछले 61 वर्षों में भारतीय स्त्रियों की स्थिति में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुआ है। डॉ० श्रीनिवास के अनुसार, “पश्चिमीकरण, लौकिकीकरण तथा जातीय गतिशीलता ने स्त्रियों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति को उन्नत करने में पर्याप्त योगदान दिया है। वर्तमान में स्त्री-शिक्षा का प्रसार हुआ है। अनेक स्त्रियाँ औद्योगिक संस्थाओं और विभिन्न क्षेत्रों में नौकरी करने लगी हैं। अब वे आर्थिक दृष्टि से आत्मनिर्भर होती जा रही हैं। उनके पारिवारिक अधिकारों में वृद्धि हुई है। वर्तमान में स्त्रियों की स्थिति में निम्नलिखित क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन आये हैं

1. स्त्री-शिक्षा में प्रगति – स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् स्त्री-शिक्षा का व्यापक प्रसार हुआ है। सन् 1882 में पढ़ी-लिखी स्त्रियों की कुल संख्या मात्र 2,054 थी, जो 1971 ई० में बढ़कर 5 करोड़ 94 लाख तथा 1981 ई० में 7 करोड़ 91.5 लाख से अधिक थी। 2001 ई० में स्त्रियों का साक्षरता प्रतिशत 53.67 तथा 2011 ई० में यह बढ़कर 64.64 हो गया है। स्त्री-शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए उत्तर प्रदेश सरकार ने वर्ष 1964-65 से दसवीं कक्षा तक लड़कियों की शिक्षा नि:शुल्क कर दी है। वर्तमान में शिक्षण से सम्बन्धित ट्रेनिंग कॉलेज, मेडिकल कॉलेज आदि में लड़कियों की संख्या प्रतिवर्ष बढ़ती जा रही है। स्त्री-शिक्षा के व्यापक प्रसार ने स्त्रियों को अपने व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास में समुचित अवसर प्रदान किये हैं, उन्हें रूढ़िवादी विचारों से पर्याप्त सीमा तक मुक्त किया है, पर्दा-प्रथा को कम किया है तथा बाल-विवाह के प्रचलन को घटाने में योगदान दिया है।

2. आर्थिक क्षेत्र में प्रगति – शिक्षा के व्यापक प्रसार, नयी-नयी वस्तुओं के प्रति आकर्षण, उच्च जीवन बिताने की बलवती ईच्छा तथा बढ़ती हुई कीमतों ने अनेक मध्यम व उच्च वर्ग की स्त्रियों को नौकरी यो आर्थिक दृष्टि से कोई-न-कोई काम करने के लिए प्रेरित किया है। अब मध्यम वर्ग की स्त्रियाँ उद्योगों, दफ्तरों, शिक्षण संस्थाओं, अस्पतालों, समाज-कल्याण केन्द्रों एवं व्यापारिक संस्थाओं में काम करने लगी हैं। वर्तमान में भारत में विभिन्न क्षेत्रों में काम करने वाली महिलाओं की संख्या 35 लाख से भी अधिक है। 1956 ई० के हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम ने हिन्दू स्त्रियों को पत्नी, बहन एवं माँ के रूप में पारिवारिक सम्पत्ति में अधिकार प्रदान किया है। सरकार ने स्त्रियों के सामाजिक-आर्थिक कल्याण के लिए कई नयी योजनाएँ भी बनायी हैं। परिणामस्वरूप उनकी आर्थिक स्थिति में सुधार हुआ है।

3. राजनीतिक चेतना में वृद्धि – स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् स्त्रियों की राजनीतिक चेतना में आश्चर्यजनक वृद्धि हुई। जहाँ सन् 1937 में महिलाओं के लिए 41 स्थान सुरक्षित थे, वहाँ केवल 10 महिलाओं ने ही चुनाव लड़ा; जब कि 1984 ई० के चुनावों में 65 स्त्रियों ने सांसद के रूप में चुनाव में सफलता प्राप्त की। इसके बाद के लोकसभा चुनावों में स्त्री सांसदों की संख्या कम ही हुई है, परन्तु उनकी राजनीतिक चेतना बढ़ी है। ग्राम पंचायतों एवं नगरपालिकाओं में स्त्रियों के लिए 33% स्थान आरक्षित किये गये हैं। इसके साथ ही पार्लियामेण्ट और विधानमण्डलों में स्त्री-प्रतिनिधियों की संख्या और विभिन्न गतिविधियों में उनकी सहभागिता, राज्यपाल, मन्त्री, मुख्यमन्त्री और यहाँ तक कि प्रधानमन्त्री तक के रूप में उनकी भूमिकाओं से स्पष्ट है कि भारत में स्त्रियों में राजनीतिक चेतना दिनों-दिन बढ़ती जा रही है। भारतीय महिलाओं ने राज्यपालों, कैबिनेट स्तर के मन्त्रियों और राजदूतों के रूप में यश प्राप्त किया है। स्पष्ट है कि स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद स्त्रियों की राजनीतिक चेतना में वृद्धि हुई है और उनकी स्थिति में सुधार हुआ है।

4. सामाजिक जागरूकता में वृद्धि – पिछले कुछ वर्षों में स्त्रियों की सामाजिक जागरूकता में अत्यधिक वृद्धि हुई है। अब स्त्रियाँ पर्दा-प्रथा को बेकार समझने लगी हैं। बहुत-सी स्त्रियाँ घर की चहारदीवारी के बाहर खुली हवा में साँस ले रही हैं। वर्तमान में कई स्त्रियों के विचारों के दृष्टिकोणों में इतना परिवर्तन आ चुका है कि अब वे अन्तर्जातीय-विवाह, प्रेम-विवाह और विलम्ब-विवाह को अच्छा समझने लगी हैं। अब वे रूढ़िवादी बन्धनों से मुक्त होने के लिए प्रयत्नशील हैं। आज अनेक स्त्रियाँ महिला संगठनों और क्लबों की सदस्य हैं तथा समाजकल्याण के कार्यों में लगी हुई हैं।

5. विवाह एवं पारिवारिक क्षेत्र में अधिकारों की प्राप्ति – वर्तमान में स्त्रियों के पारिवारिक अधिकारों में वृद्धि हुई है। वर्तमान में स्त्रियाँ संयुक्त परिवार के बन्धनों से मुक्त होकर एकाकी परिवार में रहना चाहती हैं। आज बच्चों की शिक्षा, परिवार के आय के उपयोग, पारिवारिक अनुष्ठानों की व्यवस्था और घर के प्रबन्ध में स्त्रियों की इच्छा को विशेष महत्त्व दिया जाता है। हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 ने हिन्दू स्त्रियों को अन्तर्जातीय विवाह करने और कष्टमय वैवाहिक जीवन से मुक्ति पाने के लिए तलाक के अधिकार प्रदान किये हैं। बाल-विवाह दिनों-दिन कम होते जा रहे हैं और विधवाओं को भी पुनर्विवाह का अधिकार प्राप्त है। स्पष्ट है कि स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् भारतीय स्त्रियों के शैक्षिक, आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक व पारिवारिक जीवन में उल्लेखनीय परिवर्तन हुआ है।

भारतीय स्त्रियों में सुधार के कुछ प्रमुख कारक

स्त्रियों की सामाजिक स्थिति को परिवर्तित करने में निम्नलिखित कारकों का योगदान रहा है

1. संयुक्त परिवारों का विघटन – परम्परागत प्राचीन भारतीय संयुक्त परिवारों में स्त्रियों को पुरुषों के अधीन रहना पड़ता था, उनका कार्य-क्षेत्र घर की चहारदीवारी के अन्दर था, किन्तु नगरीकरण के परिणामस्वरूप संयुक्त परिवार टूट रहे हैं। ग्रामीण परिवार की स्त्रियों के नगरों के सम्पर्क में आने से उनकी स्थिति में काफी परिवर्तन दिखाई पड़ते हैं। यह सब नये-नये नगरों के उदय के कारण ही सम्भव हुआ है, क्योंकि रूढ़िवादी व्यक्तियों के बीच में रहकर उनकी स्थिति में सुधार होना सम्भव नहीं था।

2. शिक्षा का विस्तार – वर्ममान में स्त्री-शिक्षा का दिन-प्रतिदिन विस्तार हो रहा है। शिक्षा के प्रसार से स्त्रियाँ रूढ़िवादिता और जातिगत बन्धनों से मुक्त हुई हैं। उनमें त्याग, तर्क और वितर्क के भाव जगे हैं और ज्ञान के द्वार खुले हैं। स्त्रियों के शिक्षित होने से वे अपने आपको आत्मनिर्भर बनाने में सफल सिद्ध हो सकी हैं तथा राजनीतिक जागरूकता भी उनमें आज देखने को मिलती है।

3. अन्तर्जातीय विवाह – वर्तमान में स्कूलों में लड़के-लड़कियों के साथ-साथ पढ़ने तथा दफ्तरों में काम करने से प्रेम-विवाह एवं अन्तर्जातीय विवाह पर्याप्त संख्या में होते दिखाई पड़ रहे हैं। इससे स्त्रियों की स्थिति में परिवर्तन हुआ है। अब वे परिवार पर भार नहीं समझी जाती हैं। ऐसे विवाह से बने परिवार में पति-पत्नी में समानता के भाव पाये जाते हैं और स्त्री को पुरुष की दासी नहीं समझा जाता।।

4. औद्योगीकरण – औद्योगीकरण के कारण स्त्रियों की पुरुषों पर आर्थिक निर्भरता कम हुई है। स्त्रियों ने पुरुषों के समान आर्थिक क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनने के लिए नौकरी करना आरम्भ किया है। इससे उन्हें आत्म-विकास करने में पर्याप्त सहायता मिली है।

5. सुधार आन्दोलन – 19वीं शताब्दी के प्रारम्भ से ही कुछ चिन्तनशील व्यक्तियों ने स्त्रियों की स्थिति को सुधारने के सम्बन्ध में अपना बहुमूल्य योगदान दिया; जैसे – राजा राममोहन राय, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर और स्वामी दयानन्द सरस्वती आदि। उन्होंने सती – प्रथा, पर्दा-प्रथा, बहुपत्नी विवाह, विधवा पुनर्विवाह निषेध आदि को समाप्त करने के लिए सुधार आन्दोलन किये और इस क्षेत्र में किसी हद तक सफलता भी प्राप्त की। महात्मा गाँधी भी स्त्री-पुरुषों की समानता के समर्थक थे। उन्होंने भी स्त्रियों को राष्ट्रीय आन्दोलन में भाग लेने के लिए प्रेरित किया।

6. सरकारी प्रयास – स्त्रियों की स्थिति को सुधारने के लिए सरकार की तरफ से कई अधिनियम भी पास किये गये, जिससे स्त्रियों की स्थिति में अत्यधिक परिवर्तन हुए। इस सम्बन्ध में ‘बालविवाह निरोधक अधिनियम, 1929’, ‘मुस्लिम विवाह-विच्छेद अधिनियम, 1939’, ‘दहेज निरोधक अधिनियम, 1961’, ‘हिन्दू विवाह तथा विवाह-विच्छेद अधिनियम, 1955’ तथा ‘विशेष विवाह अधिनियम, 1954’ आदि महत्त्वपूर्ण अधिनियम हैं।

प्रश्न 2
महिलाओं के उन्नयन (उत्थान) के लिए किये जाने वाले विभिन्न उपाय बताइए। [2013]
या
भारत में महिलाओं की स्थिति में सुधार के उपाय बताइए। [2008, 11]
उत्तर:
नारी-मुक्ति को स्वर सदैव प्रतिध्वनित होता रहा है। भारत के अनेक मनीषियों और समाज-सुधारकों ने नारी को समाज में सम्मानजनक पद दिलाने का भरसक प्रयास किया। राष्ट्र की आधारशिला और पुरुष प्रेरणा-स्रोत नारी को सबल बनाने के लिए अनेक सामाजिक आन्दोलन किये गये। ब्रह्म समाज, आर्य समाज तथा अन्य सुधारवादी सामाजिक आन्दोलनों ने नारी-मुक्ति के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किये।

बीसवीं शताब्दी में नारी को शोषण और अन्याय से बचाने के लिए अनेक सामाजिक विधान पारित किये गये। आज के दौर में, अनेक महिला संगठनों ने नारी को पुरुषों के समान अधिकार प्रदान कराने के कई आन्दोलन चला रखे हैं। राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने नारी-सुधार के क्षेत्र में श्लाघनीय प्रयास किये। स्वतन्त्रता के पश्चात् नारी की दशा में गुणात्मक सुधार आया और, युगों-युगों से पुरुष के अन्याय की कारा में पिसती नारी को उन्मुक्त वातावरण में साँस लेने का अवसर मिला। भारत में स्त्रियों की सामाजिक परिस्थिति सुधारने के लिए निम्नलिखित उपाय किये जा सकते हैं

1. पाश्चात्य शिक्षा का प्रभाव – पाश्चात्य शिक्षा ने भारतीय विद्वानों का ध्यान नारी-शोषण और उनकी दयनीय दशा की ओर आकृष्ट किया। भारतीय समाज एकजुट होकर इस अभिशाप को मिटाने में लग गया। अतः समाज में नारी को सम्मानजनक स्थान मिल गया।

2. स्त्री-शिक्षा-स्त्री – शिक्षा का प्रचलन होने से शिक्षित नारी में अपने अधिकारों के प्रति जागृति उत्पन्न हुई। उसने शोषण, अन्याय और कुरीतियों के पुराने लबादे को उतारकर प्रगतिशीलता का नया कलेवर धारण किया। महिला-जागृति ने नारी को समाज में ऊँची परिस्थिति प्राप्त करने का अवसर प्रदान किया।

3. महिला संगठन – भारत में नारी की दशा में गुणात्मक सुधार लाने के लिए वुमेन्स इण्डियन एसोसिएशन, कौंसिल ऑफ वुमेन्स, आल इण्डिया वुमेन्स कॉन्फ्रेन्स, विश्वविद्यालय महिला संघ, कस्तूरबा गाँधी राष्ट्रीय स्मारक निधि आदि महिला संगठनों की स्थापना की गयी। इन महिला संगठनों ने महिलाओं के अधिकारों के लिए आवाज उठायी और उन्हें पुरुषों के समान अधिकार दिलवाकर उनका उत्थान किया।

4. आर्थिक क्षेत्र में आत्मनिर्भरता – शिक्षित नारी ने धीरे-धीरे व्यवसाय, नौकरी, प्रशासन था उद्योगों में भागीदारी प्रारम्भ कर दी। आर्थिक क्षेत्र में निर्भरता ने उन्हें स्वयं वित्तपोषी बना दिया। आजीविका के साधन कमाने पर उनकी पुरुषों पर निर्भरता घट गयी है और समाज में उन्हें सम्मानजनक स्थान प्राप्त होता गया।

5. औद्योगीकरण तथा नगरीकरण – विज्ञान और प्रौद्योगिकी ने औद्योगीकरण और नगरीकरण को बढ़ावा दिया। इन दोनों के कारण समाज में प्रगतिशील विचारों का जन्म हुआ। प्राचीन रूढ़ियाँ समाप्त हो गयीं। स्त्री-शिक्षा, व्यवसाय, प्रेम-विवाह, अन्तर्जातीय विवाह तथा नारी संगठनों ने नारी को पुरुष के समकक्ष ला दिया।

6. यातायात एवं संचार-व्यवस्था – भारत में यातायात और संचार के साधनों का विकास होने पर भारतीय नारी देश तथा विदेश की नारियों के सम्पर्क में आयी। इन साधनों ने उसे महिला आन्दोलनों और उनकी सफलताओं से परिचित कराया। अतः भारतीय नारी भी अपनी मुक्ति तथा अधिकारों की प्राप्ति के लिए जुझारू हो उठी।।

7. अन्तर्जातीय विवाहों का प्रचलन – स्व-जाति में विवाह की अनिवार्यता समाप्त करके अन्तर्जातीय विवाहों को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए। सहशिक्षा, साथ-साथ नौकरी करना तथा पाश्चात्य शिक्षा के उन्मुक्त विचारों ने नारी में अन्तर्जातीय विवाहों का बीज रोप दिया है। अन्तर्जातीय विवाहों के कारण वर-मूल्य में कमी आ गयी है और नारी की समाज में परिस्थिति ऊँची उठ गयी है।

8. संयुक्त परिवारों का विघटन – संयुक्त परिवार में पुरुषों का स्थान स्त्रियों की अपेक्षा ऊँचा था। संयुक्त परिवारों में विघटन पैदा होने से एकाकी परिवारों का जन्म हो रहा है। एकाकी परिवारों में स्त्री और पुरुष का स्तर एक समान होता है।

9. दहेज-प्रथा का उन्मूलन – दहेज-प्रथा के कारण समाज में नारी का स्थान बहुत नीचा बना हुआ था। सरकार ने 1961 ई० में दहेज निरोधक अधिनियम पारित करके दहेज-प्रथा को उन्मूलन कर दिया। दहेज-प्रथा समाप्त हो जाने से समाज में नारी की परिस्थिति स्वतः ऊँची हो गयी।

10. सुधार आन्दोलन – भारतीय स्त्रियों की दयनीय दशा सुधारने के लिए ब्रह्म समाज, आर्य समाज, प्रार्थना समाज तथा रामकृष्ण मिशन ने अनेक समाज-सुधार के आन्दोलन चलाये। गाँधी जी ने महिला सुधार के लिए राष्ट्रीय आन्दोलन चलाया। सुधार आन्दोलनों ने सोयी हुई स्त्री जाति को जगा दिया। उनमें नयी चेतना, जागृति और आत्मविश्वास का सृजन हुआ। समाजने उनके महत्त्व को समझकर उन्हें समाज में सम्मानजनक स्थान प्रदान किया।

11. सामाजिक विधान – भारतीय समाज में नारी को सम्मानजनक स्थान दिलवाने में सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका सामाजिक विधानों ने निभायी है। हिन्दू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम, 1956; बाल-विवाह निरोधक अधिनियम, 1929; हिन्दू स्त्रियों को सम्पत्ति पर अधिकार अधिनियम, 1937; विशेष विवाह अधिनियम, 1954; हिन्दू विवाह तथा विवाह-विच्छेद अधिनियम, 1955; हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956; हिन्दू नाबालिग और संरक्षकता का अधिनियम, 1956; हिन्दू दत्तक ग्रहण और भरण-पोषण अधिनियम, 1956; स्त्रियों का अनैतिक व्यापार निरोधक अधिनियम, 1956 तथा दहेज निरोधक अधिनियम, 1961 ने स्त्रियों की दशा में गुणात्मक सुधार किये। स्त्री का शोषण दण्डनीय अपराध बन गया। अतः नारी की समाज में परिस्थिति ऊँची होती चली गयी।

12. विधायी संस्थाओं में महिला आरक्षण – 1990 ई० से भारतीय राजनीति में यह चर्चा है। कि विधायी संस्थाओं (विधानसभाओं और लोकसभा) में एक-तिहाई (33%) स्थान महिलाओं के लिए आरक्षित किये जाने चाहिए। इस सम्बन्ध में महिला आरक्षण का विधेयक प्रस्ताव 1996, 1997 तथा 1998 ई० में लोकसभा में पेश किया जा चुका है, किन्तु वह राजनीतिक दलों के विरोध के कारण अभी पारित नहीं किया जा सका। लेकिन संविधान के 73वें संशोधन (1993 ई०) के द्वारा पंचायती राज में 1/3 सीटों पर महिलाओं के लिए आरक्षण कर दिया गया है। तदानुसार अब वे ग्राम-पंचायत, क्षेत्र-समितियों और जिला पंचायतों में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं। उनके इस सशक्तिकरण के परिणामस्वरूप उनकी स्थिति में उन्नयन होने की पूरी आशा है।

13. महिला-कल्याण की विभिन्न केन्द्रीय योजनाएँ – 31 जनवरी, 1992 को राष्ट्रीय महिला आयोग की स्थापना कर दी गयी है, जो उनके अधिकारों की रक्षा और उनकी उन्नति के लिए प्रयासरत है। इसी प्रकार, उनके रोजगार, स्वरोजगार आदि के प्रोग्राम चल रहे हैं। अन्य योजनाएँ इन्दिरा महिला योजना, बालिका समृद्धि योजना, राष्ट्रीय महिला कोष आदि उनके विकास का प्रयास कर रही हैं।

14. परिवार-कल्याण कार्यक्रम – स्त्रियों की हीन दशा का एक कारण अधिक बच्चे भी थे। परिवार-कल्याण कार्यक्रमों ने परिवार में बच्चों की संख्या सीमित करके स्त्रियों की दशा में गुणात्मक सुधार किया है। परिवार में बच्चों की संख्या कम होने से स्त्री का स्वास्थ्य ठीक हुआ है, घर का स्तर ऊँचा उठा है तथा स्त्री को अन्य स्थानों पर काम करने, आने-जाने तथा राष्ट्रीय कार्यक्रमों में भाग लेने का अवसर मिलने लगा है। इस प्रकार परिवार कल्याण कार्यक्रमों ने भी नारी को समाज में ऊँचा स्थान दिलवाने में भरपूर सहयोग दिया है। नारी उत्थान एवं नारी जागृति में शिक्षा और विज्ञान का सहयोग सराहनीय रहा है। समाज में नारी को सम्मानजनक स्थान प्रदान कराने के लिए आवश्यक है-‘नारी स्वयं को सँभाले और अपना महत्त्व समझे।’ मानव के मानस को सरस तथा स्वच्छ बनाने में नारी को जितना योगदान है वह शब्दों से परे है। नारी को समाज में सम्मानजनक स्थान मिले बिना हमारी संस्कृति अधूरी है। नारी, जो समाज के निर्माण में अपना सर्वस्व न्योछावर कर देती है, समाज से आस्था और सम्मान की पात्रा है। नारी को सम्मान देकर, आओ! हम सब एक नये और प्रगतिशील समाज का निर्माण करें।

प्रश्न 3
क्या राजनीति और लोक-जीवन में स्त्रियों को प्रवेश वांछनीय है ? विवेचना कीजिए।
उत्तर:
राजनीति और लोक-जीवन में
स्त्रियों का प्रवेश स्त्रियों की विभिन्न क्षेत्रों में बदली हुई स्थिति को देखकर कुछ व्यक्ति क्षुब्ध हुए हैं तो कुछ ने प्रसन्नता प्रकट की है। इस सन्दर्भ में यह प्रश्न विचारणीय है कि क्या नारी को लोक-जीवन, सार्वजनिक जीवन और राजनीतिक गतिविधियों में भाग लेना चाहिए अथवा नहीं। दूसरे शब्दों में, लोक-जीवन में उनका प्रवेश वांछनीय है या नहीं? इस बारे में दो मत पाये जाते हैं—एक मत उनके लोक-जीवन में प्रवेश के विपक्ष में है और दूसरा पक्ष में। जो लोग विपक्ष में हैं, उनका कहना है कि

  1. स्त्रियों का कार्य-क्षेत्र घर है, उन्हें पति-सेवा तथा बच्चों के लालन-पालन आदि का कार्य कर अच्छे परिवार के निर्माण में सहयोग देना चाहिए, क्योंकि परिवार ही समाज का आधार है। सार्वजनिक कार्य करने पर घर की उपेक्षा होगी, बच्चों का समुचित पालन-पोषण नहीं होगा, वे अनियन्त्रित एवं आवारा हो जाएँगे और परिवार विघटित हो जाएगा।
  2. राजनीति और लोक-जीवन में प्रवेश करने पर स्त्रियों में यौन स्वच्छन्दता एवं अनैतिकता फैलेगी।
  3. परिवार की धार्मिक क्रियाओं का सम्पादन सुचारु रूप से नहीं हो सकेगा।
  4. स्त्रियाँ कोमल स्वभाव की होने से बाह्य जीवन की कठोरता एवं कठिनाइयों का सफलतापूर्वक मुकाबला नहीं कर सकेंगी।
  5. चूंकि स्त्रियाँ प्रजनन के कार्य से सम्बन्धित हैं, अतः सार्वजनिक जीवन में भाग लेने की उनकी सीमा है।
  6.  स्त्रियों का लोक-जीवन में भाग लेना भारतीय सामाजिक मूल्यों के विपरीत है।
  7. कई व्यक्ति स्त्रियों की शारीरिक एवं मानसिक क्षमता को पुरुषों से कम मानते हैं। अत: उनकी मान्यता है कि स्त्रियाँ उचित निर्णय लेने में असमर्थ होती हैं। इन सभी दलीलों के आधार पर कुछ व्यक्ति स्त्रियों के लोक-जीवन में प्रवेश को अवांछनीय मानते हैं।

दूसरी ओर कई व्यक्ति स्त्रियों के राजनीति और लोक-जीवन में प्रवेश के पक्ष में हैं। उनका मत है कि आज जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में स्त्रियों को सौंपे गये दायित्वों का यदि हम मूल्यांकन करें तो पाएँगे कि उन्होंने सराहनीय कार्य किये हैं तथा कई क्षेत्रों में तो वे पुरुषों से बढ़कर योगदान दे पायी हैं। वे इस बात को उचित नहीं मानते हैं कि स्त्रियों के राजनीतिक और लोक-जीवन में प्रवेश करने से परिवार विघटित हो जाएगा। परिवार का संचालन एवं संगठन केवल स्त्री का कार्य ही नहीं है, वरन् स्त्री व पुरुष दोनों का है। रूढ़िवादी सामाजिक मूल्यों को बनाये रखने के लिए स्त्रियों को

राजनीति और लोक-जीवन में प्रवेश की इजाजत न देना भी पिछड़ेपन का सूचक है। यह पुरुषों की स्वार्थी-प्रवृत्ति एवं शोषण की नीति को प्रकट करता है। वर्तमान में प्रजातन्त्रीय विचारों की भी सँग है कि स्त्री-पुरुषों को समान अधिकार प्राप्त हों। यदि स्त्रियाँ शिक्षा ग्रहण कर सार्वजनिक जीवन में प्रवेश करेंगी तो वे समाज को अनेक कुप्रथाओं, अन्धविश्वासों, आडम्बरों, रूढ़ियों आदि से मुक्त कर सकेंगी और परिवार तथा समाज की सेवा बदलते समय की माँग के अनुरूप कर सकेंगी। राजनीति में आने पर वे अपने अधिकारों की रक्षा अच्छी प्रकार से कर सकेंगी। वास्तव में, नवीन परिस्थितियों को देखते हुए ही स्त्रियों का राजनीतिक और लोक-जीवन में प्रवेश वांछनीय है, किन्तु उन्हें इतना ध्यान रखना चाहिए कि वे इतनी स्वच्छन्द न हो जाएँ कि अपना सन्तुलन खो दें और पथभ्रष्ट हो जाएँ।

प्रश्न 4
हिन्दू एवं मुस्लिम समाज में स्त्रियों की स्थिति पर अपने विचार प्रकट कीजिए।
या
हिन्दू एवं मुस्लिम स्त्रियों की स्थिति की तुलना कीजिए।
उत्तर:
मुस्लिम स्त्रियों में बहुपत्नीत्व, पर्दा-प्रथा, धार्मिक कट्टरता, अशिक्षा एवं स्त्रियों द्वारा वास्तव में तलाक देने सम्बन्धी कई समस्याएँ पायी जाती हैं। हिन्दू और मुस्लिम स्त्रियों की स्थिति में कुछ समानताएँ पायी जाती हैं; जैसे – पर्दा-प्रथा, बाल-विवाह एवं बहुपत्नी–प्रथा का प्रचलन दोनों में ही है। किसी क्षेत्र में हिन्दू स्त्री की स्थिति अच्छी है, तो किसी में मुस्लिम स्त्री की। हम यहाँ विभिन्न आधारों पर दोनों की ही स्थिति की तुलना करेंगे

1. पर्दा-प्रथा – दोनों में ही पर्दा-प्रथा पायी जाती है, किन्तु हिन्दुओं की अपेक्षा मुसलमानों में इसका कठोर रूप पाया जाता है।

2. शिक्षा – मुस्लिम स्त्रियों की तुलना में हिन्दू स्त्रियों में शिक्षा का प्रचलन अधिक है।

3. आर्थिक – राजनीतिक स्थिति –
आर्थिक, राजनीतिक एवं सार्वजनिक क्षेत्र में मुस्लिम स्त्रियों की अपेक्षा हिन्दू स्त्रियाँ अधिक कार्यरत हैं और उनकी स्थिति भी ऊँची है। हिन्दू स्त्रियाँ सामाजिक कल्याण, सार्वजनिक एवं राजनीतिक गतिविधियों में अधिक भाग लेती हैं।

4. तलाक –
हिन्दू स्त्री को तलाक देने का अधिकार प्राप्त नहीं है, जब कि मुस्लिम स्त्री को है। 1955 ई० के हिन्दू विवाह अधिनियम ने हिन्दू स्त्रियों को भी तलाक का अधिकार दिया है, किन्तु व्यवहार में इसका प्रयोग कम ही होता है।

5. विधवा पुनर्विवाह –
हिन्दू विधवाओं को पुनर्विवाह का अधिकार नहीं था, जब कि मुस्लिम विधवाओं को है। 1856 ई० के हिन्दू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम ने हिन्दू स्त्रियों को भी यह अधिकार दिया है, किन्तु व्यवहार में इसका प्रयोग कम ही होता है।

6. बाल-विवाह – हिन्दुओं में बाल-विवाह का प्रचलन है, मुसलमानों में बाल-विवाह संरक्षकों व माता-पिता की स्वीकृति से ही होते हैं। ऐसे विवाह को लड़की बालिग होने पर चाहे तो मना भी कर सकती है।

7. दहेज – हिन्दुओं में दहेज-प्रथा पायी जाती है, जिसके कारण स्त्रियों की स्थिति निम्न हो जाती है, उन्हें परिवार पर भार और उनका जन्म अपशकुन माना जाता है, जब कि मुसलमानों में ‘मेहर’ की प्रथा है जिसमें वर विवाह के समय वधू को कुछ धन देता है। या देने का वादा करता है। इससे स्त्री की सामाजिक, पारिवारिक व आर्थिक स्थिति ऊँची होती है।

8. सम्पत्ति – सम्पत्ति की दृष्टि से मुस्लिम स्त्रियों को माँ, पुत्री एवं पत्नी के रूप में हिस्सेदार व उत्तराधिकारी बनाया गया है और वह अपनी सम्पत्ति का मनमाना उपयोग कर सकती है, किन्तु सन् 1937 तथा 1956 ई० के सम्पत्ति सम्बन्धी अधिनियमों से पूर्व हिन्दू स्त्रियों का सम्पत्ति में कोई अधिकार नहीं था। व्यवहार में आज भी उनकी स्थिति पूर्ववत् ही है।

9. बहुपत्नीत्व – मुसलमानों में बहुपत्नीत्व के कारण हिन्दू स्त्री की तुलना में मुस्लिम स्त्री की स्थिति निम्न है। हिन्दुओं में भी बहुपत्नीत्व पाया जाता है, किन्तु यह अधिकांशतः सम्पन्न लोगों तक ही सीमित है।

10. विवाह की स्वीकृति – मुसलमानों में विवाह से पूर्व लड़की से इसकी स्वीकृति ली जाती है, जब कि हिन्दुओं में ऐसा नहीं होता था, यद्यपि अब ऐसा होने लगा है।

11. सार्वजनिक जीवन – हिन्दू स्त्रियों को सार्वजनिक जीवन एवं राजनीति में भाग लेने की स्वीकृति दी गयी है, जब कि मुस्लिम स्त्रियों को इसकी मनाही है। उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि सैद्धान्तिक दृष्टि से मुस्लिम स्त्रियों की स्थिति हिन्दू स्त्रियों से उच्च है, किन्तु व्यवहार में नहीं।

लघु उत्तरीय प्रश्न (4 अंक)

प्रश्न 1
वैदिक काल में स्त्रियों की दशा को वर्णन कीजिए।
उत्तर:
वैदिक काल में स्त्री-पुरुषों की स्थिति में समानता थी। इस काल में ऐसे उदाहरण भी मिलते हैं जिनसे पता चलता है कि उस समय लड़के-लड़कियों की शिक्षा साथ-साथ होती थी, सह-शिक्षा को बुरा नहीं समझा जाता था। इस युग में अनेक विदुषी महिलाएँ हुई हैं। इस काल में लड़कियों का विवाह साधारणतः युवावस्था में ही होता था। बाल-विवाह का प्रचलन नहीं था और लड़कियों को अपना जीवन साथी चुनने की स्वतन्त्रता थी। विधवा अपनी इच्छानुसार पुनर्विवाह कर सकती थी या ‘नियोग’ द्वारा सन्तान उत्पन्न कर सकती थी। धार्मिक कार्यों के सम्पादन में स्त्री-पुरुष के अधिकार समान थे। इस काल में पर्दा-प्रथा नहीं थी और स्त्रियों को सामाजिक सम्बन्ध स्थापित करने का अधिकार प्राप्त था। स्त्रियों की रक्षा करना पुरुषों का सबसे बड़ा धर्म माना जाता था और उनको अपमान करना सबसे बड़ा पाप। इस समय पुत्री के बजाय पुत्र के जन्म को विशेष महत्त्व दिया जाता था, परन्तु ऐसा धार्मिक दायित्वों को पूरा करने की दृष्टि से ही था।

प्रश्न 2
स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् स्त्रियों में राजनीतिक चेतना में वृद्धि पर टिप्पणी कीजिए।
उत्तर:
स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् स्त्रियों की राजनीतिक चेतना में आश्चर्यजनक वृद्धि हुई। जहाँ सन् 1937 में महिलाओं के लिए 41 स्थान सुरक्षित थे, वहाँ केवल 10 महिलाओं ने ही चुनाव लड़ा। भारत के नवीन संविधान के अनुसार सन् 1950 में स्त्रियों को पुरुषों के बराबर नागरिक अधिकार प्रदान किये गये। सन् 1952 में 23 स्त्रियाँ लोकसभा के लिए चुनी गयी थीं, जब कि सन् 1984 के चुनावों में 65 स्त्रियों ने सांसद के रूप में चुनाव में सफलता प्राप्त की। इसके बाद के लोकसभा चुनावों में स्त्री सांसदों की संख्या कम ही हुई है, परन्तु उनकी राजनीतिक चेतना अत्यधिक बढ़ी है। ग्राम पंचायतों एवं नगरपालिकाओं में स्त्रियों के लिए 33 प्रतिशत स्थान आरक्षित किये गये हैं।

अब लोकसभा एवं राज्यों के विधानमण्डलों में स्त्रियों के लिए एक-तिहाई स्थान आरक्षित किये जाने की दृष्टि से प्रयास किये जा रहे हैं। ग्राम पंचायतों एवं स्थानीय निकायों में उत्तर प्रदेश में यह आरक्षण मिल भी गया है। ग्राम पंचायतों, पार्लियामेण्ट और विधानमण्डलों में स्त्री प्रतिनिधियों की संख्या और विभिन्न गतिविधियों में उनकी सहभागिता, राज्यपाल, मन्त्री, मुख्यमन्त्री और यहाँ तक कि प्रधानमन्त्री तक के रूप में उनकी भूमिकाओं से स्पष्ट है कि इस देश में स्त्रियों में राजनीतिक चेतना दिनों-दिन बढ़ती ही जा रही है। अब तक हुए विधानमण्डलों एवं संसद के चुनावों से भी ज्ञात होता है कि महिलाओं में अपने वोट का स्वतन्त्र रूप से उपयोग करने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। भारतीय महिलाओं ने राज्यपालों, कैबिनेट स्तर के मन्त्रियों और राजदूतों के रूप में यश प्राप्त किया है। स्पष्ट है कि स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद स्त्रियों की राजनीतिक चेतना में अत्यधिक वृद्धि हुई और उनकी स्थिति में भी पर्याप्त सुधार हुआ है।

प्रश्न 3
भारतीय स्त्री की स्थिति में हुए सुधार के दो कारण बताइए।
उत्तर:
भारतीय स्त्री की स्थिति में हुए सुधार के दो कारण निम्नवत् हैं

1. शिक्षा का प्रसार – भारत में स्त्रियों की शिक्षा नित नये आयाम स्थापित कर रही है। शिक्षा ने स्त्रियों में जागरूकता पैदा की है। वे अब अपने अधिकारों के प्रति सजग हो गयी हैं। अब वे आर्थिक रूप से पुरुषों पर निर्भर होने की बजाय आत्मनिर्भर होती जा रही हैं। समाज को कोई भी क्षेत्र स्त्रियों के लिए अछूता नहीं रहा है। वे कार्यालयों में, सेना में, पुलिस में, चिकित्सा सेवाओं में अर्थात् हर स्थान पर पुरुषों के साथ कंधे-से-कंधा मिलाकर कार्य कर रही हैं। नि:सन्देह शिक्षा-प्रसार ने स्त्रियों की दशा में बड़ा सुधार किया है।

2. सामाजिक विधान – हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956; स्त्रियों का अनैतिक व्यापार निरोधक अधिनियम, 1956; हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 आदि सामाजिक विधानों के कारण, भारतीय स्त्री की दशा में बड़ा सुधार आया है। इन अधिनियमों से स्त्रियों को पुरुषों के समान सम्पत्ति के अधिकार मिले हैं, उनकी पारिवारिक स्थिति में सुधार हुआ है, अनैतिक जीवन से मुक्ति प्राप्त हुई है तथा विवाह-विच्छेद एवं विवाह के क्षेत्र में पुरुषों के समान व्यापक अधिकार प्राप्त हुए हैं।

प्रश्न 4
भारत में महिलाओं की निम्न स्थिति के मुख्य कारणों का वर्णन कीजिए। 2016 या हिन्दू स्त्रियों की निम्न स्थिति के चार कारणों को लिखिए। [2014]
उत्तर:
हिन्दू स्त्रियों की निम्न स्थिति के चार कारण निम्नलिखित हैं

1. आर्थिक निर्भरता – स्त्रियों को अपने भरण-पोषण के लिए पुरुषों पर निर्भर रहना पड़ता था, इसीलिए पति को भर्ता कहा जाता था। स्त्रियों को घर की चहारदीवारी से बाहर निकलकर नौकरी, व्यवसाय या अन्य साधन द्वारा धन कमाने की आज्ञा नहीं थी। आर्थिक निर्भरता के कारण पुरुषों की प्रभुता उन पर हावी थी और उन्हें पुरुषों के अधीन रहना पड़ता था। पुरुषों पर आश्रित होने के कारण ही उनकी समाज में परिस्थिति नीची थी।

2. अशिक्षा  – प्राचीन काल में स्त्री शिक्षा का कम प्रचलन था। अशिक्षा और अज्ञानता के कारण स्त्रियों में अन्धविश्वास, कुरीतियाँ और रूढ़िवादिता का बोलबाला था। अशिक्षित नारी को अपने अधिकारों का ज्ञान नहीं था। वह पति को परमेश्वर मानकर उसका शोषण और अन्याय सहते हुए निम्न स्तर का जीवन-यापन करने के लिए विवश थी।

3. बाल-विवाह – प्राचीन काल में भारत में बाल-विवाहों का प्रचलन था। बाल-विवाहों के कारण बाल-विधुवाओं की संख्या बढ़ गयी। बाल-विधवाओं का जीवन दयनीय था। वे समाज पर भार थीं। बाल-विवाह पद्धति ने नारी की समाज में परिस्थिति नीची बना दी।

4. पुरुष-प्रधान समाज – प्राचीन भारतीय समाज पुरुष-प्रधान था। पुरुष स्त्री को अपने नियन्त्रण में रखने तथा उसे अपने से नीचा समझने की प्रवृत्ति रखता था। पुरुष के इस अहम् भाव ने भी समाज में नारी की परिस्थिति को नीचा बना दिया।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (2 अंक)

प्रश्न 1
मध्यकाल (मुगल शासकों का काल) में स्त्रियों की क्या दशा थी ?
उत्तर:
मुगल शासकों के काल को मध्यकाल के नाम से जाना जाता है। 11वीं शताब्दी से ही भारतीय समाज पर मुसलमानों का प्रभाव पड़ने लगा था। इस काल में हिन्दू धर्म एवं संस्कृति की रक्षा के नाम पर स्त्रियों पर अनेक प्रतिबन्ध लगाये गये, उन्हें अधिकारों से वंचित कर दिया और उन पर कई नियन्त्रण लागू किये गये। इस समय स्त्रियों को शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार नहीं रहा। अब 5 या 6 वर्ष की छोटी-छोटी कन्याओं का भी विवाह किया जाने लगा। इस काल में स्त्रियाँ पूर्णतः परतन्त्र हो चुकी थीं। पारिवारिक, सामाजिक एवं धार्मिक सभी दृष्टि से स्त्री पुरुष पर निर्भर हो गयी थी।

प्रश्न 2
पाश्चात्य संस्कृति ने भारतीय स्त्रियों की सामाजिक स्थिति को कैसे प्रभावित किया
उत्तर:
भारत में 150 वर्षों तक अंग्रेजों को राज्य रहा। इससे यहाँ के लोग पश्चिम की सभ्यता व संस्कृति के सम्पर्क में आये। पश्चिमी संस्कृति में स्त्री-पुरुषों की समानता, स्वतन्त्रता तथा सामाजिक न्याय पर जोर दिया गया है। पश्चिम के सम्पर्क का प्रभाव भारतीय स्त्रियों पर भी पड़ा और वे भी अपने जीवन में पश्चिम के मूल्यों, विचारों और विश्वासों को अपनाने लगीं। उन्होंने स्वतन्त्रता, समानता, न्याय और अपने अधिकारों की माँग की जिसके फलस्वरूप उन्हें कई सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक सुविधाएँ एवं अधिकार प्राप्त हुए।

प्रश्न 3
शिक्षा के प्रसार से स्त्रियों की सामाजिक स्थिति में क्या परिवर्तन हुए हैं ?
उत्तर:
जब स्त्रियों में शिक्षा का प्रसार हुआ तो वे जातिगत बन्धनों, रूढ़िवादिता व धर्मान्धता से मुक्त हुईं। जिन सामाजिक कुरीतियों को वे सीने से चिपटाए हुए थीं, उन्हें त्यागा, उनमें तर्क और विवेक जगा और ज्ञान के द्वार खुले। आधुनिक शिक्षा प्राप्त स्त्रियाँ बन्धन से मुक्ति चाहती हैं, पुरुषों की दासता को स्वीकार नहीं करतीं और वे स्वतन्त्रता तथा समानता की पोषक हैं। शिक्षा ने स्त्रियों को अपने अधिकारों के प्रति भी जागरूक बनाया। इस प्रकार शिक्षा का प्रसार भी स्त्रियों की स्थिति में परिवर्तन के लिए मुख्य कारक रहा है।

प्रश्न 4
भारतीय स्त्रियों की सामाजिक जागरूकता में क्या वृद्धि हुई है ?
उत्तर:
पिछले कुछ वर्षों में स्त्रियों की सामाजिक जागरूकता में पर्याप्त वृद्धि हुई है। अब स्त्रियाँ पर्दा-प्रथा को बेकार समझने लगी हैं और बहुत-सी स्त्रियाँ घर की चहारदीवारी के बाहर खुली हवा में साँस ले रही हैं। आजकल कई स्त्रियों के विचारों और दृष्टिकोणों में इतना अधिक परिवर्तन आ चुका है कि अब वे अन्तर्जातीय-विवाह, प्रेम-विवाह और विलम्ब-विवाह को अच्छा समझने लगी हैं। जातीय नियमों और रूढ़ियों के प्रति महिलाओं की उदासीनता बराबर बढ़ रही है। अब वे रूढ़िवादी सामाजिक बन्धनों से मुक्त होने के लिए प्रयत्नशील हैं। आज अनेक स्त्रियाँ महिला संगठनों और क्लबों की सदस्य हैं तथा समाजकल्याण के कार्य में भी लगी हुई हैं।

निश्चित उत्तीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
हिन्दू समाज में स्त्री को पुरुष की अद्भगिनी क्यों कहा गया है ?
उत्तर:
हिन्दू समाज में पुरुष के अभाव में स्त्री को और स्त्री के अभाव में पुरुष को अपूर्ण माना गया है। इसी कारण स्त्री को पुरुष की अर्धांगिनी कहा गया है।

प्रश्न 2
वैदिक काल में स्त्रियों की क्या स्थिति थी ?
उत्तर:
वैदिक काल में स्त्रियों की स्थिति अच्छी थी तथा पुरुषों के समान ही थी।

प्रश्न 3
जैन धर्म और बौद्ध धर्म में स्त्रियों को किस दृष्टि से देखा गया है ?
उत्तर:
जैन धर्म और बौद्ध धर्म में स्त्रियों को आदर की दृष्टि से देखा गया है।

प्रश्न 4
पाश्चात्य प्रभाव से स्त्रियों की स्थिति में क्या अन्तर आया ?
उत्तर:
पाश्चात्य प्रभाव से स्त्रियों की स्थिति में सुधार आया।

प्रश्न 5
संयुक्त परिवार में स्त्रियों की क्या दशा थी ?
उत्तर:
संयुक्त परिवार व्यवस्था स्त्रियों को सम्मान देने के पक्ष में नहीं थी।

प्रश्न 6
क्या हिन्दू स्त्री को सम्पत्ति का अधिकार है ? (हाँ/नहीं) [2010]
उत्तर:
हाँ

प्रश्न 7
क्या राजा राममोहन राय ने स्त्रियों की दशा में सुधार के लिए प्रयास किये ? (हाँ/नहीं)
उत्तर:
हाँ।

प्रश्न 8
‘सती प्रथा समाप्त करने के लिए सबसे पहले किसने अथक प्रयास किया ? [2011, 12]
उत्तर:
राजा राममोहन राय ने।

प्रश्न 9
क्या मुस्लिम स्त्री को सम्पत्ति का अधिकार है ? [2009]
उत्तर:
हाँ।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
उस सुधारक का नाम चुनिए जिसने स्त्रियों की स्थिति सुधारने के सक्रिय प्रयत्न किये
(क) जयप्रकाश नारायण
(ख) महात्मा गांधी
(ग) चन्द्रशेखर आजाद
(घ) राजा राममोहन राय

प्रश्न 2
निम्नलिखित में उस व्यक्ति का नाम बताइए जिसने स्त्रियों की स्थिति सुधारने में सक्रिय भाग नहीं लिया
(क) राजा राममोहन राय
(ख) ईश्वरचन्द्र विद्यासागर
(ग) स्वामी दयानन्द
(घ) गोपालकृष्ण गोखले

प्रश्न 3
निम्नलिखित दशाओं में से कौन-सी दशा स्त्रियों की शोचनीय स्थिति के लिए उत्तरदायी है?
(क) पश्चिमी शिक्षा
(ख) एक-विवाह का नियम
(ग) औद्योगीकरण व नगरीकरण
(घ) अशिक्षा

प्रश्न 4
भारतीय नारी की स्थिति में सुधार किस उपाय से होगा ? [2013, 15]
(क) बाल-विवाह से
(ख) आश्रम-व्यवस्था से
(ग) पाश्चात्य शिक्षा से
(घ) समानता के अधिकार से

प्रश्न 5
दि पोजिशन ऑफ वुमेन इन हिन्दू सिविलाइजेशन’ पुस्तक के लेखक कौन हैं ?
(क) पी० एच० प्रभु
(ख) डॉ० नगेन्द्र
(ग) अल्तेकर
(घ) राधाकमल मुखर्जी

प्रश्न 6
मुस्लिम स्त्रियों की निम्न स्थिति हेतु कौन-सा कारक उत्तरदायी है? [2012]
(क) पर्दा प्रथा
(ख) अशिक्षा
(ग) पुरुषों का धार्मिक आधिपत्य
(घ) ये सभी

उत्तर:
1. (घ) राजा राममोहन राय,
2. (घ) गोपालकृष्ण गोखले,
3. (घ) अशिक्षा,
4. (घ) समानता के अधिकार से,
5. (ग) अल्तेकर,
6. (घ) ये सभी।

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