UP Board Solutions for Class 12 Sahityik Hindi गद्य Chapter 7 निन्दा रस

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Board UP Board
Textbook SCERT, UP
Class Class 12
Subject Sahityik Hindi
Chapter Chapter 7
Chapter Name  निन्दा रस
Number of Questions Solved 5
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Sahityik Hindi गद्य Chapter 7 निन्दा रस

निन्दा रस – जीवन/साहित्यिक परिचय

(2017, 16, 14, 13, 12, 11, 10)

प्रश्न-पत्र में पाठ्य-पुस्तक में संकलित पाठों में से लेखकों के जीवन परिचय, कृतियाँ तथा भाषा-शैली से सम्बन्धित एक प्रश्न पूछा जाता है। इस प्रश्न में किन्हीं 4 लेखकों के नाम दिए जाएँगे, जिनमें से किसी एक लेखक के बारे में लिखना होगा। इस प्रश्न के लिए 4 अंक निर्धारित हैं।

जीवन-परिचय तथा साहित्यिक उपलब्धियाँ
मध्य प्रदेश में इटारसी के निकट जमानी नामक स्थान पर हिन्दी के सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई का जन्म 22 अगस्त, 1924 को हुआ था। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा मध्य प्रदेश में हुई। नागपुर विश्वविद्यालय से हिन्दी में एम. ए. करने के बाद उन्होंने कुछ वर्षों तक अध्यापन कार्य किया, लेकिन साहित्य सृजन में बाधा का अनुभव करने पर इन्होंने नौकरी छोड़कर स्वतन्त्र लेखन प्रारम्भ किया। इन्होंने प्रकाशक एवं सम्पादक के तौर पर जबलपुर से ‘वसुधा’ नामक साहित्यिक मासिक पत्रिका का स्वयं सम्पादन और प्रकाशन किया, जो बाद में आर्थिक कारणों से बन्द हो गई। हरिशंकर परसाई जी ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’, ‘धर्मयुग’ तथा अन्य पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से लिखते रहे। 10 अगस्त, 1995 को इस यशस्वी साहित्यकार का देहावसान हो गया।

साहित्यिक सेवाएँ
व्यंग्य प्रधान निबन्धों के लिए प्रसिद्धि प्राप्त करने वाले परसाई जी की दृष्टि लेखन में बड़ी राम के साथ उतरती थी। उनके हृदय में साहित्य सेवा के प्रति कृतज्ञ भाग विद्यमान था। साहित्य-सेवा के लिए परसाई जी ने नौकरी को भी त्याग दिया। काफी समय तक आर्थिक विषमताओं को झेलते हुए भी ये ‘वसुधा’ नामक साहित्यिक मासिक पत्रिका का प्रकाशन एवं सम्पादन करते रहे। पाठकों के लिए हरिशंकर परसाई एक जाने-माने और लोकप्रिय लेखक हैं।

कृतियाँ
परसाई जी ने अनेक विषयों पर रचनाएँ लिखीं। इनकी रचनाएँ देश की प्रमुख साहित्यिक पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। परसाई जी ने अपनी कहानियों, उपन्यासों तथा निबन्धों से व्यक्ति और समाज की कमजोरियों, विसंगतियों और आडम्बरपूर्व जीवन पर गहरी चोट की है। परसाई जी की रचनाओं का उल्लेख निम्न प्रकार से किया जा सकता है

  1. कहानी संग्रह हँसते हैं, रोते हैं, जैसे उनके दिन फिरे।।
  2. उपन्यास रानी नागफनी की कहानी, तट की खोज।
  3. निबन्ध संग्रह तब की बात और थी, भूत के पाँव पीछे, बेईमान की परत, पगडण्डियों का जमाना, सदाचार की ताबीज, शिकायत मुझे भी है और अन्त में।

भाषा-शैली
परसाई जी ने क्लिष्ट व गम्भीर भाषा की अपेक्षा व्यावहारिक अर्थात् सामान्य बोलचाल की भाषा को अपनाया, जिसके कारण इनकी भाषा में सहजता, सरलता व प्रवाहमयता का गुण दिखाई देता है। इन्होंने अपनी रचनाओं में छोटे-छोटे वाक्यों का प्रयोग किया है, जिससे रचना में रोचकता का पुट आ गया है। इस रोचकता को बनाने के लिए परसाई जी ने उर्दू, व अंग्रेजी भाषा के शब्दों तथा कहावतों एवं मुहावरों को बेहद सहजता के साथ प्रयोग किया है, जिसने इनके कथ्य की प्रभावशीलता को दोगुना कर दिया है। इन्होंने अपनी रचनाओं में मुख्यतः व्यंग्यात्मक शैली का प्रयोग किया और उसके माध्यम से समाज की विभिन्न कुरीतियों पर करारे व्यंग्य किए।

हिन्दी साहित्य में स्थान
हरिशंकर परसाई जी हिन्दी साहित्य के एक प्रतिष्ठित व्यंग्य लेखक थे। मौलिक एवं अर्थपूर्ण व्यंग्यों की रचना में परसाई जी सिद्धहस्त थे। हास्य एवं व्यंग्य प्रधान निबन्धों की रचना करके इन्होंने हिन्दी साहित्य में एक विशिष्ट अभाव की पूर्ति की। इनके व्यंग्यों में समाज एवं व्यक्ति की कमजोरियों पर तीखा प्रहार मिलता है। आधुनिक युग के व्यंग्यकारों में उनका नाम सदैव स्मरणीय रहेगा।

निन्दा रस – पाठ का सार

परीक्षा में पाठ का सार’ से सम्बन्धित कोई प्रश्न नहीं पूछा जाता है। यह केवल विद्यार्थियों को पाठ समझाने के उद्देश्य से दिया गया हैं।

प्रस्तुत निबन्ध ‘निन्दा रस’ में लेखक ने निन्दा करने वाले व्यक्तियों के स्वभाव व प्रकृति का उल्लेख किया है। वह कहता है कि अनेक व्यक्ति एक-दूसरे के प्रति ईष्र्या भाव से निन्दा करते रहते हैं। कुछ व्यक्ति अपने स्वभाववश, तो कुछ अकारण ही निन्दा करने में रस लेते हैं। इसके अलावा, कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जो स्वयं को बड़ा सिद्ध करने के लिए दूसरों की निन्दा में निर्लिप्त भाव से मग्न रहते हैं। कुछ मिशनरी निन्दक होते हैं, तो कुछ अन्य भावों से प्रेरित होकर निन्दा-कार्य में रत रहते हैं।

ईष्र्या भाव से निन्दा अर्थात् प्राणघाती स्नेह
निबन्धकार परसाई जी का कहना है कि कुछ निन्दक ईष्र्या-द्वेष की भावना रखते हुए निन्दा करते हैं और जब उन्हें मौका मिलता है, तब वे ऊपरी तौर पर स्नेह दिखाते हुए अन् पृतराष्ट्र की भाँति प्राणघाती स्नेह दर्शाते हैं। ऐसे निन्दकों से अत्यधिक सतर्क हने की आवश्यकता है और जब भी उनसे मिलें, तो संवेदनाओं को हृदय से निकालकर केवल पुतले रूपी शरीर से ही मिलना चाहिए।

अकारण झूठ बोलने व निन्दा करने की प्रवृत्ति
लेखक का मानना है कि कुछ व्यक्तियों का ऐसा स्वभाव होता है कि वे अकारण ही अपने स्वभाव या प्रकृति के कारण निन्दा करने में रस या आनन्द की अनुभूति करते हैं। ऐसे निन्दक व्यक्ति समाज के लिए अधिक घातक नहीं होते। ये केवल अपना मनोरंजन करते हैं और निन्दा करके सन्तोष प्राप्त करते हैं। मिशनरी निन्दकों का उल्लेख करते हुए लेखक कहता है कि कुछ लोगों का किसी से कोई बैर या द्वेष नहीं होता। वे किसी का बुरा नहीं सोचते, लेकिन 24 घण्टे पवित्र भाव से लोगों की निन्दा करने में लगे रहते हैं। वे अत्यन्त निर्लिप्त, निष्पक्ष भाव से निन्दा करते हैं। ऐसे लोगों के लिए निन्दा टॉनिक की तरह काम करती है।

निन्दा : कुछ लोगों की पूँजी
लेखक का मानना है कि निन्दा करने वाले लोगों में हीनता की भावना होती है। वे हीन भावना का शिकार होते हैं। अपनी हीनता को छिपाने के लिए ही वे दूसरों की निन्दा करते हैं। इसी प्रवृत्ति के कारण उनमें अकर्मण्यता रच-बस जाती है। इतना ही नहीं, कुछ लोग तो निन्दा को अपनी पूँजी समझने लगते हैं, जैसे एक व्यापारी अपनी पूंजी के प्रति अत्यधिक मोह रखता है और उससे लाभ प्राप्ति की उम्मीद भी करता है। उन्हें लगता है कि किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति की निन्दा करके उसे पदच्युत कर उस स्थान पर स्वयं स्थापित हुआ जा सकता है, लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं होता है।

गद्यांशों पर आधारित अर्थग्रहण सम्बन्धी प्रश्नोत्तर

प्रश्न-पत्र में गद्य भाग से दो गद्यांश दिए जाएँगे, जिनमें से किसी एक पर आधारित 5 प्रश्नों (प्रत्येक 2 अंक) के उत्तर: देने होंगे।

प्रश्न 1.
ऐसे मौके पर हम अक्सर अपने पुतले को अँकवार में दे देते हैं। ‘क’ से क्या मैं गले मिला? क्या मुझे उसने समेटकर कलेजे से लगा लिया? हरगिज नहीं। मैंने अपना पुतला ही उसे दिया। पुतला इसलिए उसकी भुजाओं में सौंप दिया कि मुझे मालूम था कि मैं धृतराष्ट्र से मिल रहा हैं। पिछली रात को एक मित्र ने बताया कि ‘क’ अपनी ससुराल आया है और ‘ग’ के साथ बैठकर शाम को दो-तीन घण्टे तुम्हारी निन्दा करता रहा। इस सूचना के बाद जब आज सबेरे वह मेरे गले लगा तो मैंने शरीर से अपने मन को चुपचाप खिसका दिया और नि:स्नेह, कैंटीली देह उसकी बाहों में छोड़ दी। भावना के अगर काँटे होते, तो उसे मालूम होता है कि वह नागफनी को कलेजे से चिपटाए है। छल का धृतराष्ट्र जब आलिंगन करे, तो पुतला ही आगे बढ़ाना चाहिए।

उपर्युक्त गद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर: दीजिए।

(i) प्रस्तुत गद्यांश किस पाठ से लिया गया है? इसके लेखक का नाम भी लिखिए।
उत्तर:
प्रस्तुत गद्यांश ‘निन्दा रस’ पाठ से लिया गया है, इसके लेखक का नाम ‘हरिशंकर परसाई है।

(ii) ईष्र्या-द्वेष की भावनाओं से युक्त मित्र से कैसे गले मिलना चाहिए।
उत्तर:
ईष्र्या-द्वेष की भानवाओं से युक्त मित्र यदि गले मिले तो उससे संवेदना शून्य भावहीन होकर ही गले मिलना चाहिए, क्योंकि गले मिलने के लिए जिन भावनाओं और संवेदनाओं की आवश्यकता होती है वे भावनाएँ ईष्र्या-द्वेष की भावनाओं में दब जाती हैं। अतः ऐसे मित्रों से सावधान रहना चाहिए।

(iii) लेखक अपने मित्र ‘क’ से किस प्रकार गले मिला?
उत्तर:
जब लेखक को अपने किसी अन्य भित्र से यह ज्ञात होता है कि मित्र ‘क’ किसी ‘ग’ नाम के व्यक्ति के साथ बैठकर उसकी निन्दा करता है, तब लेखक उससे भावहीन व संवेदनाहीन होकर ही गले मिलता है।

(iv) “छल का धृतराष्ट्र जब आलिंगन करे, तो पुतला ही आगे बढ़ाना चाहिए” से लेखक का क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
लेखक कहता है कि जिस प्रकार धृतराष्ट्र ने ईष्र्या-द्वेष के कारण भीम के पुतले को भीम समझकर नष्ट कर दिया था, उसी प्रकार धृतराष्ट्र के समान छली एवं कपटी व्यक्ति तुमसे गले मिले तो भावनाओं से शून्य रहित होकर पुतले के समान ही गले लगाना चाहिए।

(v) ‘छल’ एवं ‘देह’ शब्दों के पर्यायवाची लिखिए।
उत्तर:
छल कपट, धोखा देह- शरीर, गति।।

प्रश्न 2.
कुछ लोग बड़े निर्दोष मिथ्यावादी होते हैं। वे आदतन, प्रकृति के वशीभूत झूठ बोलते हैं। उनके मुख से निष्प्रयास, निष्प्रयोजन झूठ ही निकलता है। मेरे एक रिश्तेदार ऐसे हैं। वे अगर बम्बई (मुम्बई) जा रहे हैं और उनसे पूछे, तो वह कहेंगे, “कलकत्ता (कोलकाता) जा रहा हूँ।” ठीक बात उनके मुँह से निकल ही नहीं सकती। ‘क’ भी बड़ा निर्दोष, सहज-स्वाभाविक मिथ्यावादी है। अद्भुत है मेरा यह मित्र। उसके पास दोषों का ‘केटलॉग’ है। मैंने सोचा कि जब वह हर परिचित की निन्दा कर रहा है, तो क्यों न मैं लगे हाथ विरोधियों की गत, इसके हाथों करा लें। मैं अपने विरोधियों का नाम लेता गया और वह उन्हें निन्दा की तलवार से काटता चला। जैसे लकड़ी चीरने की आरा मशीन के नीचे मजदूर लकड़ी का लट्ठा खिसकाता जाता है और वह चिरता जाता है, वैसे ही मैंने विरोधियों के नाम एक-एक कर खिसकाए और वह उन्हें काटता गया। कैसा आनन्द था। दुश्मनों को रण-क्षेत्र में एक के बाद एक कटकर गिरते हुए देखकर योद्धा को ऐसा ही सुख होता होगा।

उपर्युक्त गद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर: दीजिए।

(i) निर्दोष मिथ्यावादी लोग कौन होते हैं?
उत्तर:
जिन लोगों को बिना किसी प्रयोजन तथा बिना किसी प्रयास के झूठ बोलने की। आदत होती है, उन्हें लेखक ने निर्दोष मिथ्यावादी बताया है। ऐसे लोगों का स्वभाव ही ऐसा होता है कि बिना किसी कारण के उनके मुंह से झूठ स्वतः ही निकल जाता

(ii) लेखक अपने मित्र ‘क’ की तुलना किससे करता है?
उत्तर:
लेखक अपने मित्र ‘क’ की तुलना अपने एक ऐसे रिश्तेदार से करते हैं, जो कभी भी सत्य नहीं बोलता है, यदि उस रिश्तेदार से एक सामान्य सा प्रश्न किया जाए कि तुम कहाँ जा रहे हो, तो वह कभी भी सही स्थान का नाम नहीं बताता, क्योंकि उसे झूठ बोलने की स्वभावगत आदत है।

(iii) लेखक का निन्दक मित्र उसके विरोधियों की निन्दा किस प्रकार करता है?
उत्तर:
जिस प्रकार कोई मजदूर लकड़ी काटने वाली आरा मशीन के सामने लट्ठा खिसकाता जाता है और मशीन लकड़ी को चीरती जाती हैं, ठीक उसी प्रकार * लेखक का निन्दक मित्र उसके विरोधियों को अपनी निन्दा रूपी मशीन से काटता चला जाता है।

(iv) लेखक अपने विरोधियों की निन्दा सुनकर किस प्रकार आनन्दित होता है?
उत्तर:
लेखक अपने विरोधियों की निन्दा सुनकर उसी प्रकार आनन्दित होता है, जिस प्रकार रणभूमि में योद्धा को अपने दुश्मनों को एक के बाद एक कटा हुआ देखकर आत्म-सन्तोष एवं आनन्द मिलता है।

(v) स्वाभाविक’ एवं ‘निर्दोष’ शब्दों में क्रमशः प्रत्यय एवं उपसर्ग छाँटकर लिखिए।
उत्तर:
स्वाभाविक – इक (प्रत्यय)
निर्दोष – निर (उपसर्ग)।

प्रश्न 3.
मेरे मन में गत रात्रि के उस निन्दक मित्र के प्रति मैल नहीं रहा। दोनों एक हो गए। भेद तो रात्रि के अन्धकार में ही मिटता है, दिन के उजाले में भेद स्पष्ट हो जाते हैं। निन्दा का ऐसा ही भेद-नाशक अँधेरा होता है। तीन-चार घण्टे बाद, जब वह विदा हुआ, तो हम लोगों के मन में बड़ी शान्ति और तुष्टि थी। निन्दा की ऐसी ही महिमा है। दो-चार निन्दकों को एक जगह बैठकर निन्दा में निमग्न देखिए और तुलना कीजिए उन दो-चार ईश्वर- भक्तों से जो रामधुन लगा रहे हैं। निन्दकों की-सी एकाग्रता, परस्पर आत्मीयता, निमग्नता भक्तों में दुर्लभ है। इसलिए सन्तों ने निन्दकों को ‘आँगन कुटी छवाय’ पास रखने की सलाह दी है।

दिए गए गद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर: दीजिए।

(i) अपने निन्दक मित्र के प्रति लेखक का व्यवहार किस प्रकार परिवर्तित हो गया?
उत्तर:
जब तक लेखक का निन्दक मित्र अपने परिचितों की निन्दा करता रहता है तब तक लेखक को उसका व्यवहार अच्छा नहीं लगता, किन्तु जैसे ही वह लेखक के विरोधियों को निन्दा रूपी मशीन से काटना प्रारम्भ करता है, तो लेखक को बहुत ही आग-सन्तोष प्राप्त होता है और उसका व्यवहार अपने मित्र के प्रति परिवर्तित हो गया अर्थात् विनम्र हो गया।

(ii) निन्दक प्रशंसक लोगों के मन को शान्ति एवं सन्तुष्टि कब प्राप्त होती है?
उत्तर:
निन्दा की वैचारिक समानता के कारण निन्दक प्रशंसक लोगों के मन शान्त एवं तृप्त हो जाते हैं तथा एक-दूसरे के प्रति सहानुभूति प्रदर्शित करते हुए जब वे एक दूसरे से विदा होते हैं, तो उनके मन को बड़ी शान्ति एवं सन्तुष्टि प्राप्त होती है।

(iii) निन्दा कर्म में डूबे निन्दकों की तुलना लेखक ने किससे की है और क्यों?
उत्तर:
निन्दा कर्म में हुये निन्दकों की तुलना लेखक ने ईश्वर भक्ति में बैठे उपासकों से की हैं, क्योंकि जिस तल्लीनता के साथ निन्दक अपना निन्दा कर्म करते हैं, वैसी तल्लीनता ईश्वर भक्ति में लीन भक्तों में भी नहीं पाई जा सकती है।

(iv) लेखक के अनुसार सन्तों ने निन्दक को अपने साथ रखने के लिए क्यों कहा है?
उत्तर:
निन्दकों की निन्दा कर्म में तल्लीनता, एकाग्रता और परस्पर शुद्ध स्नेह भाव से डूबे होने के स्वभाव के कारण ही सन्तों ने निन्दक को अपने साथ रखने के लिए कहा है।

(v) ‘आत्मीयता’ तथा ‘निमग्न’ शब्दों में क्रमशः प्रत्यय एवं उपसर्ग छाँटकर लिखिए।
उत्तर:
आत्मीयता-ईय, ता (प्रत्यय), निमग्न–नि (उपसर्ग)

प्रश्न 4.
कुछ ‘मिशनरी’ निन्दक मैंने देखे हैं। उनका किसी से बैर नहीं, द्वेष नहीं। वे किसी का बुरा नहीं सोचते। पर चौबीसों घण्टे वे निन्दा कर्म में बहुत पवित्र भाव से लगे रहते हैं। उनकी नितान्त निर्लिप्तता, निष्पक्षता इसी से मालूम होती है कि वे प्रसंग आने पर अपने बाप की पगड़ी भी उसी आनन्द से उछालते हैं, जिस आनन्द से अन्य लोग दुश्मन की। निन्दा इनके लिए ‘टॉनिक’ होती है। ट्रेड यूनियन के इस जमाने में निन्दकों के संघ बन गए हैं। संघ के सदस्य जहाँ-तहाँ से खबरें लाते हैं और अपने संघ के प्रधान को सौंपते हैं। यह कच्चा माल हुआ, अब प्रधान उनका पक्का माल बनाएगा और सब सदस्यों को ‘बहुजन हिताय’ मुफ्त बाँटने के लिए दे देगा। यह फुरसत का काम है, इसलिए जिनके पास कुछ और करने को नहीं होता, वे इसे बड़ी खूबी से करते है?

उपर्युक्त गद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर: दीजिए।

(i) लेखक मिशनरी निन्दक किसे कहता है?
उत्तर:
जो निन्दक केवल निन्दा कर्म को ही धर्म समझते हैं लेखक ने उन्हें मिशनरी निन्दक कहा है। ऐसे निन्दकों में किसी के प्रति कोई मनमुटाव अथवा शत्रुता का भाव नहीं होता। ये पूरे शुद्ध भाव से दूसरों की निन्दा करने के कर्म में लगे रहते हैं।

(ii) लेखक के अनुसार निन्दक लोगों की निष्पक्षता का प्रमाण क्या है?
उत्तर:
लेखक के अनुसार निन्दक लोगों की निष्पक्षता का प्रमाण यह है कि वे अपने पिता की निन्दा भी उसी शुद्ध भाव के साथ करते हैं, जिस शुद्ध भाव से अपने दुश्मन की करते हैं, क्योंकि निन्दा कर्म के आगे वे किसी को बाधक नहीं बनने देना चाहते हैं।

(iii) संघ के सदस्य किस कार्य को पूरी लगन एवं निष्ठा के साथ करते हैं?
उत्तर:
लेखक के अनुसार निन्दकों ने अपने निन्दा के कारोबार को बढ़ाने के लिए संघ निर्मित कर लिए हैं। संघ के सदस्य इधर-उधर से निन्दा की खबरें लाकर संघ के प्रमुख को सौंपने का कार्य पूरी लगन एवं निष्ठा के साथ करते हैं।

(iv) वर्तमान समय में निन्दा का कार्य कौन व्यक्ति बड़ी कुशलता से सम्पन्न कर सकता है?
उत्तर:
निन्दा करने एवं सुनने के लिए व्यक्ति के पास फुरसत होनी चाहिए। वर्तमान समय में निन्दा का कार्य कर्महीन व्यक्ति ही कुशलता से कर सकते हैं, क्योंकि इस पवित्र कार्य को करने में वे निपुण होते हैं।

(v) ‘कच्चा’ एवं ‘दुश्मन’ शब्द के विलोम शब्द लिखिए।
उत्तर:
शब्द विलोम शब्द
कच्चा – पक्का दुश्मन – दोस्त।

प्रश्न 5.
ईष्र्या द्वेष से प्रेरित निन्दा भी होती है, लेकिन इसमें वह मजा नहीं जो मिशनरी भाव से निन्दा करने में आता है। इस प्रकार का निन्दक बड़ा दुःखी होता है। ईष्र्या-द्वेष से चौबीसों घण्टे जलता है और निन्दा का जल छिड़ककर कुछ शान्ति अनुभव करता है। ऐसा निन्दक बड़ा दयनीय होता है। अपनी अक्षमता से पीड़ित वह बेचारा दूसरे की सक्षमता के चाँद को देखकर सारी रात श्वान जैसा भौंकता है। ईष्र्या-द्वेष से प्रेरित निन्दा करने वाले को कोई दण्ड देने की जरूरत नहीं है। वह निन्दक बेचारा स्वयं दण्डित होता है। आप चैन से सोइए और वह जलन के कारण सो नहीं पाता। उसे और क्या दण्ड चाहिए?

उपर्युक्त गद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर: दीजिए।

(i) लेखक के अनुसार निन्दा कितने प्रकार की होती हैं?
उत्तर:
लेखक के अनुसार निन्दा दो प्रकार की होती है, एक निन्दा ईष्र्या-द्वेष से प्रेरित होकर की जाती है तथा दूसरी निन्दा मिशनरी भाव से की हाती हैं। इसमें निन्दक उसी भाव से निन्दा करता है, जैसे मिशनरी अपने धर्म का प्रचार करते हैं।

(ii) ईष्र्या-द्वेष से निन्दा करने वाले निन्दक की स्थिति कैसी होती है?
उत्तर:
ईष्र्या-द्वेष से की गई निन्दा में निन्दक बड़ा दुःखी रहता है क्योंकि वह चौबीसों घण्टे ईष्र्या से जलता रहता है। वह दूसरे के सफलता पी चाँद को देखकर अपनी असफलता से दुःखी होकर श्वान की तरह सारी रात भौकता रहता है। इस प्रकार ईष्र्या-द्वेष से निन्दा करने वाले निन्दक की स्थिति बड़ी दयनीय होती है।

(iii) लेखक के अनुसार ईष्र्या-द्वेष से प्रेरित होकर निन्दा करने वाले व्यक्ति किस प्रकार स्वयं को दण्डित करते हैं?
उत्तर:
ईष्र्या-क्षेत्र से प्रेरित होकर निन्दा करने वाले व्यक्ति ईष्र्या की जलन में सारी रात जलते रहते हैं। अतः लेखक के अनुसार ईष्र्या-वेष से निन्दा करने वाले निन्दक स्वयं को दण्डित करते रहते हैं।

(iv) प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने किस शैली का प्रयोग किया हैं?
उत्तर:
प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने व्यंग्यात्मक एवं विवेचनात्मक शैली का प्रयोग करते हुए लोगों की निन्दा करने की प्रवृत्ति पर कटाक्ष करके उसे विभिन्न उदाहरणों के द्वारा स्पष्ट किया है।

(v) ‘दयनीय’ और ‘दण्डित’ शब्दों में क्रमशः प्रत्यय छाँटकर लिखिए।
उत्तर:
‘दयनीय’-अनीय (प्रत्यय), दण्डित-इत (प्रत्यय)

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