UP Board Solutions for Class 12 Sahityik Hindi गद्य Chapter 2 भाग्य और पुरुषार्थ

Free PDF download of UP Board Solutions for Class 12 Sahityik Hindi गद्य Chapter 2 भाग्य और पुरुषार्थ is the part of UP Board Solutions for Class 12 Sahityik Hindi. Here we help students prepare well for their Class 12 CBSE board exam, as well as competitive exams.

Board UP Board
Textbook SCERT, UP
Class Class 12
Subject Sahityik Hindi
Chapter Chapter 2
Chapter Name भाग्य और पुरुषार्थ
Number of Questions Solved 5
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Sahityik Hindi गद्य Chapter 2 भाग्य और पुरुषार्थ

भाग्य और पुरुषार्थ – जीवन/साहित्यिक परिचय

(2018, 17, 16, 14, 13, 12, 11)

प्रश्न-पत्र में पाठ्य-पुस्तक में संकलित पाठों में से लेखकों के जीवन परिचय, कृतियाँ तथा भाषा-शैली से सम्बन्धित एक प्रश्न पूछा जाता हैं। इस प्रश्न में किन्हीं 4 लेखकों के नाम दिए जाएँगे, जिनमें से किसी एक लेखक के बारे में लिखना होगा। इस प्रश्न के लिए 4 अंक निर्धारित हैं।

जीवन परिचय एवं साहित्यिक उपलब्धियाँ
प्रसिद्ध विचारक, उपन्यासकार, कथाकार और निबन्धकार श्री जैनेन्द्र कुमार का जन्म वर्ष 1905 में जिला अलीगढ़ के कौड़ियागंज नामक स्थान पर हुआ था। इनके पिता का नाम श्री प्यारेलाल और माता का नाम श्रीमती रामादेवी था। जैनेन्द्र जी के जन्म के दो वर्ष पश्चात् ही इनके पिता की मृत्यु हो गई। माता एवं मामा ने इनका पालन-पोषण किया। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा जैन गुरुकुल, हस्तिनापुर में हुई। इनका नामकरण भी इसी संस्था में हुआ।

आरम्भ में इनका नाम आनन्दीलाल था, किन्तु जब जैन गुरुकुल में अध्ययन के लिए इनका नाम लिखवाया गया, तब इनका नाम जैनेन्द्र कुमार रख दिया गया। वर्ष 1912 में इन्होंने गुरुकुल छोड़ दिया। वर्ष 1919 में इन्होंने मैट्रिक की परीक्षा पंजाब से उत्तीर्ण की। इनकी उच्च शिक्षा ‘काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में हुई। वर्ष 1921 में इन्होंने विश्वविद्यालय की पढ़ाई छोड़ दी और असहयोग’ आन्दोलन में सक्रिय हो गए।

वर्ष 1921 से वर्ष 1923 के बीच जैनेन्द्र जी ने अपनी माताजी की सहायता से व्यापार किया, जिसमें इन्हें सफलता भी मिली। वर्ष 1923 में ये नागपुर चले गए और यहाँ राजनैतिक पत्रों में संवाददाता के रूप में कार्य करने लगे। उसी वर्ष इन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और तीन माह के बाद छोड़ा गया।

दिल्ली लौटने पर इन्होंने व्यापार से स्वयं को अलग कर लिया और जीविकोपार्जन के लिए कलकत्ता (कोलकाता) चले गए। वहाँ से इन्हें निराश लौटना पड़ा। इसके बाद इन्होंने लेखन कार्य आरम्भ किया। इनकी पहली कहानी वर्ष 1928 में ‘खेल’ शीर्षक से “विशाल भारत में प्रकाशित हुई।

वर्ष 1929 में इनका पहला उपन्यास ‘परख’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ, जिस पर अकादमी’ ने पांच सौ रुपये का पुरस्कार प्रदान किया। 24 दिसम्बर, 1988 को इस महान साहित्यकार का स्वर्गवास हो गया।

साहित्यिक सेवाएँ
जैनेन्द्र कुमार जी की साहित्य सेवा का क्षेत्र बहुत अधिक विस्तृत है। मौलिक कथाकार के रूप में ये जितने अधिक निखरे हैं, उतने ही निबन्धकार और विचारक के रूप में भी इन्होंने अपनी प्रतिभा का अद्भुत परिचय दिया है।
इनकी साहित्यिक सेवाओं का विवरण इस प्रकार है-

  1. उपन्यासकार के रूप में जैनेन्द्र जी ने अनेक उपन्यासों की रचना की है। वे हिन्दी उपन्यास के इतिहास में मनोविश्लेषणात्मक परम्परा के प्रवर्तक के रूप में मान्य है।
  2. कहानीकार के रूप में एक कहानीकार के रूप में भी जैनेन्द्र जी की उपलब्धियाँ महान् हैं। हिन्दी कहानी जगत में इनके द्वारा एक नवीन युग की स्थापना हुई।।
  3. निबन्धकार के रूप में जैनेन्द्र जी ने निबन्धकार के रूप में भी हिन्दी साहित्य की महत्ती सेवा की हैं। इनके कई निबन्ध संग्रह प्रकाशित हुए हैं। इन निबन्ध संग्रहों के । माध्यम से जैनेन्द्र जी एक गम्भीर चिन्तक के रूप में हमारे समक्ष आते हैं। उनके नियों के विषय साहित्य, समाज, राजनीति, धर्म, संस्कृति तथा दर्शन आदि से सम्बन्धित हैं।
  4. अनुवादक के रूप में मौलिक साहित्य सृजन के साथ-साथ जैनेन्द्र जी | नें अनुवाद का कार्य भी किया। व्यक्ति के रूप में वे महान् थे और साहित्य-साधक के रूप में और भी अधिक महान् थे।

भाग्य और पुरुषार्थ
जैनेन्द्र जी मुख्य रूप से कथाकार हैं, किन्तु इन्होंने निबन्ध के क्षेत्र में भी। यश अर्जित किया है। उपन्यास, कहानी और निबन्ध के क्षेत्रों में इन्होंने जिस साहित्य का निर्माण किया है, यह विचार, भाषा और शैली की दृष्टि से अनुपम है।
इनकी कृतियों का विवरण इस प्रकार हैं-

  1. उपन्यास परख, सुनीता, त्यागपत्र, कल्याणी, विवर्त, सुखदा, व्यतीत, जयवर्धन, मुक्तिबोध।
  2. हानी संकलन फाँसी, जयसन्धि, वातायन, नीलमदेश की राजकन्या, एक रात, दो चिड़ियाँ, पाजेब।
  3. निबन्ध संग्रह प्रस्तुत प्रश्न, जड़ की बात, पूर्वोदय, साहित्य का श्रेय और प्रेय, मन्थन, सोच-विचार, काम, प्रेम और परिवार
  4. संस्मरण ये और वे।
  5. अनुवाद मन्दाकिनी (नाटक), पाप और प्रकाश (नाटक), प्रेम में भगवान (कहानी)।

भाषा-शैली
जैनेन्द्र जी की भाषा सरल, स्वाभाविक तथा सीधी-सादी है, जो विषय के अनुरूप बदलती रहती हैं। इनके विचार जिस स्थान पर जैसा स्वरूप धारण करते हैं, इनकी भाषा भी उसी प्रकार का स्वरूप धारण कर लेती है। यही कारण है कि गम्भीर स्थलों पर इनकी भाषा गम्भीर हो गई है। इनकी भाषा में संस्कृत शब्दों का प्रयोग अधिक नहीं हुआ है, किन्तु उर्दू, फारसी, अरबी, अंग्रेजी भाषाओं के शब्दों का प्रयोग अधुर मात्रा में हुआ है। इन्होंने मुहावरों तथा कहावतों का प्रयोग यथास्थान किया है। इनके निबन्धों में विचारात्मक तथा वर्णनात्मक शैली के दर्शन होते हैं, साथ ही इनके कथा साहित्य में व्याख्यात्मक शैली का प्रयोग भी हुआ है।

हिन्दी साहित्य में स्थानी
श्रेष्ठ उपन्यासकार, कहानीकार एवं निबन्धकार जैनेन्द्र कुमार अपनी चिन्तनशील विचारधारा तथा आध्यात्मिक एवं सामाजिक विश्लेषणों पर | आधारित रचनाओं के लिए सदैव स्मरणीय रहेंगे। हिन्दी कथा साहित्य के क्षेत्र में जैनेन्द्र कुमार का विशिष्ट स्थान है। इन्हें हिन्दी के युग-प्रवर्तक मौलिक कथाकार के रूप में भी जाना जाता है। हिन्दी साहित्य जगत में ये एक श्रेष्ठ साहित्यकार के रूप में भी प्रतिष्ठित हैं।

भाग्य और पुरुषार्थ – पाठ का सार

परीक्षा में पाठ का सार’ से सम्बन्धित कोई प्रश्न नहीं पूछा जाता है। यह केवल विद्यार्थियों को पाठ समझाने के उद्देश्य से दिया गया है।

प्रस्तुत निबन्ध ‘भाग्य और पुरुषार्थ जैनेन्द्र कुमार द्वारा रचित है, जिसमें इन्होंने भाग्य और पुरुषार्थ के महत्त्व को व्याख्यायित करते हुए दोनों के बीच के सम्बन्ध को प्रकट करने का प्रयास किया है।

शाश्वत एवं सर्वव्यापी : विधाता
लेखक का मानना है कि भाग्य ईश्वर से पृथक् नहीं है। जिस प्रकार ईश्वर शाश्वत है, उसी प्रकार भाग्य भी शाश्वत हैं। माग्योदय भी सूर्योदय की भाँति होता है। लेखक का मानना है कि निरन्तर कर्म करते हुए हमें स्वयं को भाग्य के सम्मुख ले जाना चाहिए, क्योंकि भाग्योदय के लिए पुरुषार्थ आवश्यक हैं।

अतः भाग्य तो विधाता का दूसरा नाम है। विधाता की कृपा को पहचानना ही भाग्योदय है। मनुष्य का सारा पुरुषार्थ विधाता की कृपा प्राप्त करने तथा पहचानने में ही है। विधाता की कृपा प्राप्त होते ही मनुष्य के अन्दर जो अहंकार का भाव विद्यमान होता है, वह मिट जाता है और उसका भाग्योदय हो जाता है।

अहं से विमुक्त होकर, भाग्य से संयुक्त होना
लेखक का मानना है कि जो लोग व्यर्थ प्रयास करते हैं तथा निष्फल ह जाते हैं, वह भाग्य को दोष देते हैं। दूसरी ओर कर्म में एक नशा होता है। कर्म का नशा चढ़ते ही मनुष्य भाग्य और ईश्वर को भूल जाता है।

लेखक का मानना है कि पुरुषार्थ का अर्थ-पशु चेष्टा से मिन्न एवं श्रेष्ठ है। पुरुषार्थ केवल हाथ-पैर चलाना नहीं है और न ही वह क्रिया का वेग एवं कौशल है। पुरुष का भाग्य देवताओं को भी पता नहीं होता है, क्योंकि पुरुष का भाग्य तो उसके पुरुषार्थ से निर्धारित होता है। लेखक का मानना है कि पुरुष अपने भाग्य से तभी जुड़ता है, जब वह अपने अहं को त्याग देता है। लेखक के अनुसार, अकर्म का आशय सही अर्थों में निम्न स्तर का कर्म है। अकर्म का अर्थ ‘कर्म नहीं’ से नहीं लेना चाहिए। इसे ‘कर्म के अभाव’ से न जोड़ते हुए कर्तव्य के क्षय यानी कर्तव्य की स्थिति में पतन, किए जाने वाले कर्म में गिरावट, उसमें क्षय या पतन से सम्बन्धित मानना चाहिए। वास्तव में व्यक्ति के अन्दर मौजूद अहं भाव ही इस अकर्म के लिए उत्तरदायी होता है। अतः आवश्यक है कि व्यक्ति अपने अहं को समाप्त करे, जिससे उसके कर्तव्य के स्तर में सकारात्मक परिवर्तन आए।

भाग्य की प्रवृत्ति व निवृत्ति का चक्र
लेखक का मानना है कि जब मनुष्य भाग्य के प्रति पूर्ण रूप से अर्पित होकर पुरुषार्थ करता है, तो उसका पुरुषार्थ फल प्राप्ति की इच्छा से रहित हो जाता है और तब वह दिन-प्रतिदिन अधिक शक्तिशाली एवं बन्धन-विहीन होता जाता है। लेखक का मानना है कि केवल पुरुषार्थ को मान्यता देकर भाग्य की अवहेलना करने का आशय अपनी शक्ति के अहंकार में डूबकर अपने अतिरिक्त शेष सम्पूर्ण सृष्टि को नकारना है। मनुष्य का अस्तित्व इस सृष्टि में नगण्य है।।

वह कुछ वर्षों का जीवन व्यतीत कर काल का ग्रास बन जाता है, परन्तु सृष्टि तब भी चलती रहती है। मनुष्य प्रायः भाग्य की प्रतीक्षा में स्वयं कोसता है, क्योंकि वे इस बात से अनभिज्ञ होते हैं कि सामने आई स्थिति भी उसी (भाग्य) के प्रकाश से प्रकाशित होती है।

उस प्रवृत्ति से वह रह-रहकर थक जाता है और निवृत्ति चाहता है। यह प्रवृत्ति और निवृत्ति का चक्र उसको द्वन्द्व से थका मारता है। वस्तुतः भाग्य एवं पुरुषार्थ दोनों का संयोग ही मनुष्य को सफलता की ऊँचाइयों तक पहुँचाने में सहायक होता है।

गद्यांशों पर आधारित अर्थग्रहण सम्बन्धी प्रश्नोत्तर

प्रश्न-पत्र में गद्य भाग से दो गद्यांश दिए जाएँगे, जिनमें से किसी एक पर आधारित 5 प्रश्नों (प्रत्येक 2 अंक) के उत्तर: देने होंगे।

प्रश्न 1.
भाग्य को भी मैं इसी तरह मानता हूँ। वह तो विधाता को ही दूसरा नाम है। वे सर्वान्तर्यामी और सार्वकालिक रूप में हैं, उनका अस्त ही कब हुआ कि उदय हो। यानी भाग्य के उदय का प्रश्न सदा हमारी अपनी अपेक्षा से है। धरती का रुख सूरज की तरफ हो जाए, यही उसके लिए सूर्योदय है। ऐसे ही मैं मानता हूँ कि हमारा मुख सही भाग्य की तरफ हो जाए तो इसी को भाग्योदय कहना चाहिए। पुरुषार्थ को इसी जगह संगति है अर्थात् भाग्य को कहीं से खींचकर । उदय में लाना नहीं, न अपने साथ ही ज्यादा खींचतान करनी है। सिर्फ मुँह को मोड़ लेना है। मुख हम हमेशा अपनी तरफ रखा करते हैं। अपने से प्यार करते हैं, अपने ही को चाहते हैं। अपने को आराम देते हैं, अपनी सेवा करते हैं। दूसरों को अपने लिए मानते हैं, सब कुछ को अपने अनुकूल चाहते हैं। चाहते यह हैं कि हम पूजा और प्रशंसा के केन्द्र हों और दूसरे आस-पास हमारे इसी भाव में मँडराया करें। इस वासना से हमें छुट्टी नहीं मिल पाती।

उपर्युक्त गद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर: दीजिए।

(i) लेखक ने भाग्य को विधाता का दूसरा नाम क्यों बताया है?
उत्तर:
जिस प्रकार ईश्वर सबके हृदय की बात जानते हैं तथा प्रत्येक काल एवं | स्थान पर विद्यमान रहते हैं, उसी प्रकार भाग्य भी हर समय विद्यमान रहता। है। इसलिए लेखक ने भाग्य को विधाता का दूसरा नाम बताया है।

(ii) लेखक ने भाग्योदय की तुलना किससे की है और क्यों?
उत्तर:
लेखक ने भाग्योदय की तुलना सूर्योदय से की है, जिस प्रकार सूर्य का उदय नहीं होता है, वह तो अपने स्थान पर स्थिर रहता है। पृथ्वी का उसके आस-पास चक्कर लगाते हुए उसका मुँह सूर्य की ओर हो जाता है, तब हम उसे सूर्योदय कहते हैं। ठीक इसी प्रकार जिस समय निरन्तर कर्म करते हुए। मनुष्य का मुख भाग्य की ओर हो तो उसे भाग्योदय कहना चाहिए।

(iii) लेखक के अनुसार भाग्योदय के लिए क्या आवश्यक होता है?
उत्तर:
लेखक के अनुसार भाग्योदय के लिए पुरुषार्थ अर्थात् अपने पौरुष के साथ संगति बैठाना आवश्यक होता है, क्योंकि भाग्योदय के लिए अपने स्वार्थों से ऊपर उठकर स्वयं को कर्म क्षेत्र से जोड़ना होता है।

(iv) व्यक्ति कब अपने स्वार्थों के वशीभूत हो जाते हैं?
उत्तर:
व्यक्ति जब अपने नजरिए से जीवन को देखते हैं, स्वयं से प्रेम करते हैं, अपने लिए जीते हैं, अपनी ही सेवा में लगे रहते हैं तथा दूसरे व्यक्तियों को अपना सेवक मानते हुए सभी कुछ अपने अनुकूल बनाना चाहते हैं। तब वे स्वार्थों के वशीभूत हो जाते हैं।

(v) ‘भाग्योदय’, ‘सूर्योदय’ में सन्धि-विच्छेद करते हुए सन्धि का नाम भी लिखिए।
उत्तर:
भाग्योदय = भाग्य + उदय (सन्धि विच्छेद), गुण सन्धि।
सूर्योदय = सूर्य + उदय (सन्धि विच्छेद), गुण सन्धि।

प्रश्न 2.
इसलिए मैं मानता हूँ कि दुःख भगवान का वरदान है। अहं और किसी औषध से गलता नहीं, दु:ख ही भगवान का अमृत है। वह क्षण सचमुच ही भाग्योदय का हो जाता है, अगर हम उसमें भगवान की कृपा को पहचान लें। उस क्षण यह सरल होता है कि हम अपने से मुड़े और भाग्य के सम्मुख हों। बस इस सम्मुख़ता की देर है कि भाग्योदय हुआ रखा है। असल में उदय उसका क्या होना है, उसका आलोक तो कण-कण में व्याप्त सदा-सर्वदा है ही। उस आलोक के प्रति खुलना हमारी आँखों का हो जाए बस उसी की प्रतीक्षा है। साधना और प्रयत्न सब उतने मात्र के लिए हैं। प्रयत्न और पुरुषार्थ का कोई दूसरा लक्ष्य मानना बहुत बड़ी भूल करना होगा, ऐसी चेष्टा व्यर्थ सिद्ध होगी।

उपर्युक्त गद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर: दीजिए।

(i) लेखक ने दुःख को ईश्वर का वरदान क्यों माना है?
उत्तर:
लेखक दुःख को ईश्वर का वरदान मानते हैं, क्योंकि सफलता प्राप्त करने के पश्चात् मनुष्य के भीतर अहंकार का भाव उत्पन्न हो जाता है, जो किसी अन्य औषधि से समाप्त नहीं होता। इसके लिए दुःख ही सबसे बड़ी औषधि है, जो ईश्वर के अमृत के समान होती है।

(ii) लेखक के अनुसार व्यक्ति के भाग्योदय का क्षण कौन-सा होता है?
उत्तर:
जब किसी व्यक्ति के जीवन में दुःख आता है, तो वह अहंकार के भाव से मुक्त होकर, स्वार्थ भावों से ऊपर उठकर निरन्तर कर्म करते हुए ईश्वर के समीप आता है। लेखक के अनुसार यही व्यक्ति के भाग्योदय का क्षण होता है।

(iii) लेखक के अनुसार पुरुषार्थ का क्या उद्देश्य होता हैं?
उत्तर:
लेखक के अनुसार मनुष्य के सभी तप एवं प्रयत्न, पराक्रम, पौरुष अपने भाग्योदय के लिए ही होते हैं, इसलिए मनुष्य को निरन्तर कर्म करते रहना चाहिए। कर्म की प्रवृत्ति ही भाग्योदय में सहायक है। अतः पुरुषार्थ का उद्देश्य भी यहीं है।

(iv) प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने किस बात पर बल दिया है?
उत्तर:
प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने दुःख के महत्त्व को प्रतिपादित करते हुए उसे मनुष्य के अहंकार को नष्ट करने वाली औषधि के रूप में प्रस्तुत करके मनुष्य की निरन्तर कर्म करने की प्रवृत्ति पर बल दिया है।

(v) ‘प्रयत्न’, ‘सम्मुखता’ शब्दों के क्रमशः उपसर्ग एवं प्रत्यय अँटकर लिखिए।
उत्तर:
प्रयत्न – प्र (उपसर्ग) सम्मुखता – ता (प्रत्यय)

प्रश्न 3.
सच ही अधिकांश यह होता है कि उनका और भाग्य का सम्बन्ध उल्टा होता है। भाग्य के स्वयं उल्टे-सीधे होने का तो प्रश्न ही क्या है? कारण, उसकी सत्ता सर्वत्र व्याप्त है। वहाँ दिशाएँ तक समाप्त हैं। विमुख और सम्मुख जैसा वहाँ कुछ सम्भव ही नहीं है। तब होता यह है कि ऐसे निष्फल प्रयत्नों वाले स्वयं उससे उल्टे बने रहते हैं अर्थात् अपने को ज्यादा गिनने लग जाते हैं, शेष दूसरों के प्रति अवज्ञा और उपेक्षाशील हो जाते हैं। कर्म में अधिकांश यह दोष रहता है, उसमें एक नशा होता है। नशा चढ़ने पर आदमी भाग्य और ईश्वर को भूल जाता है और विनय की आवश्यकता को भी भूल जाता है। यूं कहिए कि जान-बूझकर भाग्य से अपना मुँह फेर लेता है। तब, उसे सहयोग न मिले तो उसमें विस्मय ही क्या है।

निम्नलिखित अद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर: दीजिए।

(i) प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने किस बात पर प्रकाश डाला है?
उत्तर:
प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने निरर्थक प्रयत्न करने वाले मनुष्य एवं उसके भाग्य पर प्रकाश डाला है। ऐसे व्यक्तियों के सम्बन्ध में लेखक कहता कि जो व्यक्ति
व्यर्थ के प्रयास करते रहते हैं, वे कभी सफलता प्राप्त नहीं कर पाते और अन्त में अपने भाग्य को दोष देने लगते हैं।

(ii) निरर्थक प्रयास करने वाले मनुष्य किस प्रकार भाग्य से उल्टे बने रहते हैं?
उत्तर:
निरर्थक प्रयास करने वाले मनुष्य अपने आप को अधिक महत्त्व देने लगते हैं, अपनी योग्यता को अधिक महत्व देते हुए दूसरों की अवहेलना करने लगते हैं। इस प्रकार वे सदैव अपने भाग्य के उल्टे बने रहते हैं।

(iii) लेखक के अनुसार मनुष्य कर्म के पश्चात् किस कारण अहंकार भाव से भर जाता है?
उत्तर:
कर्म में दोष के रूप में एक नशा विद्यमान होता है, जिसके कारण मनुष्य कर्म के पश्चात् अहंकार भाव से भर जाता है और यह अंहकार का भाव उसे भाग्य एवं ईश्वर से दूर कर देता है।

(iv) लेखक के अनुसार व्यक्ति के भाग्योदय में बाधक तत्त्व क्या है?
उत्तर:
लेखक के अनुसार व्यक्ति के भाग्योदय में उसका अहंकार भाव बाधक होता है, क्योंकि व्यक्ति में अहंकार भाव आने पर उसका विनय भाव समाप्त हो जाता है, जिसके कारण माग्य उससे मुँह फेर लेता है।

(v) उल्टे-सीधे’ शब्द का समास-विग्रह करके उसमें प्रयुक्त समास का भेद भी बताइए।
उत्तर:
‘उल्टे और सीधे’ (समास-विग्रह)। यह द्वन्द्व समास का भेद है।

प्रश्न 4.
पुरुषार्थ वह है, जो पुरुष को सप्रयास रखे, साथ ही सहयुक्त भी रखे। यह जो सहयोग है, सच में पुरुष और भाग्य का ही है। पुरुष अपने अहं से वियुक्त होता है, तभी भाग्य से संयुक्त होता है। लोग जब पुरुषार्थ को भाग्य से अलग और विपरीत करते हैं तो कहना चाहिए कि वे पुरुषार्थ को ही उसके अर्थ से विलग और विमुख कर देते हैं। पुरुष का अर्थ क्या पशु का ही अर्थ है? बल-विकास तो पशु में ज्यादा होता है। दौड़-धूप निश्चय ही पशु अधिक करता है, लेकिन यदि पुरुषार्थ पशु चेष्टा के अर्थ से कुछ भिन्न और श्रेष्ठ है। तो इस अर्थ में कि वह केवल हाथ-पैर चलाना नहीं है, न क्रिया का वेग और कौशल है, बल्कि वह स्नेह और सहयोग भावना है। सूक्ष्म भाषा में कहें तो उसकी अकर्तव्य-भावना है।

उपर्युक्त गद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर: दीजिए।

(i) प्रस्तुत मद्यांश किस पाठ से लिया गया है तथा इसके लेखक कौन हैं?
उत्तर:
प्रस्तुत गद्यांश ‘भाग्य और पुरुषार्थ’ पाठ से लिया गया है तथा इसके लेखक ‘जैनेन्द्र कुमार हैं।

(ii) पुरुषार्थ को भाग्य से अलग क्यों नहीं किया जा सकता है?
उत्तर:
लेखक के अनुसार जहाँ पुरुष होता है वहाँ कर्मशीलता होती है और जहाँ कर्मशीलता है, वहीं भाग्य होता है, इसलिए पुरुषार्थ से भाग्य को अलग करने का अर्थ पुरुषार्थ को उसके अर्थ से अलग करना होता है। अतः पुरुषार्थ को भाग्य से अलग नहीं किया जा सकता।

(iii) पुरुषार्थ एवं बल में अन्तरे स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
पुरुषार्थ एवं बल में कोई सम्बन्ध नहीं होता है। बल क्रिया का वेग एवं कौशल होता है जो पशुओं में अधिक होता है, किन्तु पुरुषार्थ, स्नेह एवं सहयोग की भावना के साथ अन्य व्यक्तियों के साथ अन्तःक्रिया में संलग्न होता है।

(iv) पुरुषार्थ के लिए लेखक ने क्या आवश्यक माना हैं?
उत्तर:
लेखक के अनुसार, पुरुषार्थ के लिए आवश्यक है- अहंकार का त्याग तथा स्नेह एवं सहयोग के साथ मिल-जुलकर कार्य करना।

(v) ‘हाथ-पैर’ का समास-विग्रह करके इसमें प्रयुक्त समास का भेद भी लिखिए।
उत्तर:
हाथ और पैर (समास-विग्रह)। यह द्वन्द्व समास का भेद है।

प्रश्न 5.
इच्छाएँ नाना हैं और नाना विधि हैं और उसे प्रवृत्त रखती हैं। उस प्रवृत्ति से वह रह-रहकर थक जाता है और निवृत्ति चाहता है। यह प्रवृत्ति और निवृत्ति का चक्र उसको द्वन्द्व से थका मारता है। इस संसार को अभी राग-भाव से वह चाहता है कि अगले क्षण उतने ही विराग-भाव से वह उसका विनाश चाहता है। पर राग-द्वेष की वासनाओं से अन्त में झुंझलाहट और छटपटाहट ही उसे हाथ आती है। ऐसी अवस्था में उसका सच्चा भाग्योदय कहलाएगा अगर वह नत-नम्र होकर भाग्य को सिर आँखों लेगा और प्राप्त कर्तव्य में ही अपने पुरुषार्थ की इति मानेगा।

उपर्युक्त गद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर: दीजिए।

(i) प्रवृत्ति-निवृत्ति के चक्र में फँसा मनुष्य क्यों थक जाता है?
उत्तर:
मनुष्य की विविध इच्छाएँ एवं आकांक्षाएँ होती हैं। वह अपनी इच्छा पूर्ति के लिए। आसक्त होकर कार्य करते हुए थक जाता है और तब वह सांसारिक सुखों को त्यागना चाहता है। इस तरह संघर्ष करते हुए प्रवृत्ति-निवृत्ति का चक्र मनुष्य को थका देता है।

(ii) प्रेम और ईष्र्या की वासनाओं में पड़कर व्यक्ति की स्थिति कैसी हो जाती हैं?
उत्तर:
मनुष्य इस संसार से प्रेम-भाव रखते हुए उसे चाहता है, किन्तु अगले ही क्षण ईष्र्या के वशीभूत होकर इस संसार को नष्ट करना चाहता है। इस प्रकार प्रेम और ईष्र्या की वासनाओं में पड़कर व्यक्ति झुंझलाहट एवं छटपटाहट की स्थिति में आ जाता है।

(iii) लेखक के अनुसार मनुष्य का सच्चा भाग्योदय कब सम्भव है?
उत्तर:
जब मनुष्य नम्रता से झुककर कर्तव्यों के निर्वाह में पुरुषार्थ को पूर्ण मानेगा, तभी लेखक के अनुसार मनुष्य का सच्चा भाग्योदय सम्भव है। जिससे मनुष्य सफलता की ऊँचाइयों को छू सकता है।

(iv) प्रवृत्ति’ व ‘राग’ शब्दों के क्रमशः विलोम शब्द लिखिए।
उत्तर:
प्रवृत्ति – निवृत्ति। राग – विराग।

(v) ‘राग-द्वेष’ का समास-विग्रह करके समास का भेद भी लिखिए।
उत्तर:
राग और द्वेष (समास-विग्रह)। यह द्वन्द्व समास का भेद है।

We hope the UP Board Solutions for Class 12 Sahityik Hindi गद्य Chapter 2 भाग्य और पुरुषार्थ help you. If you have any query regarding UP Board Solutions for Class 12 Sahityik Hindi गद्य Chapter 2 भाग्य और पुरुषार्थ, drop a comment below and we will get back to you at the earliest.

error: Content is protected !!
Scroll to Top