UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 16 Partition of India: Result of British Policy

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject History
Chapter Chapter 16
Chapter Name Partition of India:
Result of British Policy
(भारत विभाजन-
अंग्रेजी नीति का परिणाम)
Number of Questions Solved 5
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 16 Partition of India: Result of British Policy (भारत विभाजन- अंग्रेजी नीति का परिणाम)

अभ्यास

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
क्या भारत विभाजन अनिवार्य था? अपने उत्तर के पक्ष में दो तर्क दीजिए।
उतर:
भारत विभाजन की अनिवार्यता के पक्ष में दो तर्क निम्नवत हैं

  1. अंग्रेजों ने सदैव उपनिवेशवादी नीति के क्रियान्वयन के लिए विभाजन करो एवं शासन करो’ का मार्ग अपनाया। इस नीति के तहत सरकार ने मुस्लिम लीग को कांग्रेस के विरुद्ध खड़ा रखा। जिन्ना की विभाजन सम्बन्धी हठधर्मिता में सरकार की नीतियों ने आग में घी का काम किया।
  2. कांग्रेस एवं मुस्लिम लीग दोनों को सत्ता का लालच होने लगा। यद्यपि गाँधी जी जैसे नेता विभाजन को टालने हेतु जिन्ना को अखण्ड भारत का प्रधानमंत्री बनाने का प्रस्ताव रखा ताकि दंगे रुकने के साथ ही जिन्ना की महत्वाकांक्षा पूर्ण हो जाए। लेकिन नेहरू व पटेल को यह अस्वीकार्य था, जिसका परिणाम भारत विभाजन था।

प्रश्न 2.
भारत विभाजन के लिए उत्तरदायी दो कारण लिखिए।
उतर:
भारत विभाजन के लिए उत्तरदायी दो कारण निम्नलिखित हैं

  • ब्रिटिश शासन की ‘फूट डालो और राजा करो नीति’
  • जिन्ना की हठधर्मिता।

प्रश्न 3.
मुस्लिम लीग ने भारत विभाजन में क्या भूमिका निभाई?
उतर:
मुस्लिम लीग ने अपने जन्म से ही पृथकतावादी नीति को अपनाया तथा भारत में लोकतांत्रिक संस्थाओं का विरोध किया। लीग की सीधी कार्यवाही में योजना के अन्तर्गत मुसलमानों द्वारा हिन्दुओं के विरुद्ध अनेक दंगे किये गये। लीग के नेताओं ने हिन्दुओं के विरुद्ध जहर उगलना शुरू कर दिया। ऐसी भयावह परिस्थिति के समाधान के लिए भारत विभाजन का जन्म हुआ।

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
भारत विभाजन के क्या कारण थे?
उतर:
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेता भारत की एकता तथा अखण्डता के लिए प्रयास कर रहे थे तथा भारत के विभाजन का विरोध कर रहे थे। गाँधी जी ने तो यहाँ तक कह दिया था कि पाकिस्तान का निर्माण उनकी लाश पर होगा। गाँधी जी ने पाकिस्तान के निर्माण अथवा भारत के विभाजन का सदैव विरोध किया था, परन्तु कुछ अपरिहार्य परिस्थितियों के कारण भारत का विभाजन उनको भी स्वीकार करना पड़ा। भारत विभाजन के प्रमुख कारण निम्नलिखित थे
(i) ब्रिटिश शासन की ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति- ब्रिटिश शासन ने अपनी सुरक्षा के लिए ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति अपनाई तथा इसका व्यापक प्रसार किया। ब्रिटिश शासकों ने हिन्दू और मुसलमानों के पारस्परिक सम्बन्धों को बिगाड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वस्तुत: देश का विभाजन ब्रिटिश सरकार की मुस्लिम लीग को प्रोत्साहन प्रदान करने की नीति के कारण हुआ। डॉ० राजेन्द्र प्रसाद के शब्दों में- “पाकिस्तान के निर्माता कवि इकबाल तथा मि० जिन्ना नहीं, वरन् लॉर्ड माउण्टबेटन थे।” इसके अतिरिक्त ब्रिटिश भारत की नौकरशाही, मुसलमानों की पक्षधर थी।

(ii) पारस्परिक अविश्वास तथा अपमानजनक रवैया- हिन्दू और मुसलमान दोनों ही धर्मों के लोग एक-दूसरे पर विश्वास नहीं करते थे। सल्तनतकाल तथा मुगलकाल में मुस्लिम शासकों ने हिन्दुओं पर घोर अत्याचार एवं अनाचार किया, अतः इन दोनों धर्मों में विद्वेष की भावना उत्पन्न होना स्वाभाविक ही था। इसका यह परिणाम हुआ कि मुसलमानों को अपने प्रति ईसाइयों का व्यवहार हिन्दुओं की अपेक्षा अधिक अच्छा प्रतीत हुआ और इस प्रकार से दोनों समुदायों (हिन्दू एवं मुस्लिम) के बीच घृणा निरन्तर बढ़ती रही।

(iii) हिन्दुत्व को साम्प्रदायिकता के रूप में प्रस्तुत करना- हिन्दुओं की भावनाओं को शासक वर्ग तथा जनता के प्रतिनिधियों ने सदैव साम्प्रदायिकता के रूप में देखा। वीर सावरकर जैसे राष्ट्रवादी महापुरुषों को हिन्दू साम्प्रदायिकता से ओत-प्रोत बताया गया तथा मुस्लिम तुष्टीकरण को सदैव बढ़ावा दिया गया। इसी तुष्टीकरण की नीति की परिणति भारत विभाजन के रूप में हमारे सामने आई।

(iv) लीग के प्रति कांग्रेस की तुष्टीकरण की नीति- कांग्रेस ने मुस्लिम लीग के प्रति तुष्टीकरण की नीति अपनाई तथा व्यवहार में अनेक भूलें कीं, उदाहरणार्थ-
(क) 1916 ई० में लखनऊ पैक्ट में साम्प्रदायिक निर्वाचन प्रणाली को स्वीकार कर लेना,
(ख) सिन्ध को बम्बई से पृथक् करना,
(ग) सी०आर० फार्मूले में पाकिस्तान की माँग को कुछ सीमा तक स्वीकार कर लेना,
(घ) 1919 ई० के खिलाफत आन्दोलन को असहयोग आन्दोलन में सम्मिलित करना तथा
(ङ) 1937 ई० में कांग्रेसी मन्त्रिमण्डल में मुस्लिम लीग को सम्मिलित करने के प्रश्न पर कठोर रवैया अपनाना, इसी प्रकार की भूलें थीं। स्वयं गाँधी जी ने मि० जिन्ना को कायदेआजम’ की उपाधि से विभूषित कर भयंकर भूल की।

(v) जिन्ना की हठधर्मिता- जिन्ना अपने द्वि-राष्ट्र सिद्धान्त के प्रति दृढ़ रहे और पाकिस्तान की माँग के प्रति भी उनकी हठधर्मिता बढ़ती चली गई। 1940 ई० के पश्चात् संवैधानिक गतिरोध को दूर करने के लिए अनेक योजनाएँ प्रस्तुत की गईं, परन्तु जिन्ना की हठधर्मी के कारण कोई भी योजना स्वीकार न की जा सकी। यहाँ तक कि गाँधी जी ने जिन्ना के लिए अखण्ड भारत के प्रधानमन्त्री के पद का अवसर भी प्रदान किया, परन्तु जिन्ना ने इसे भी अस्वीकार कर दिया। अन्तरिम सरकार की असफलता- 2 सितम्बर, 1946 ई० को अन्तरिम सरकार’ का गठन हुआ। इस सरकार में भाग लेने वाले मुस्लिम लीग के मन्त्रियों ने कांग्रेस के मन्त्रियों से शासन-कार्य में सहयोग नहीं किया और इस प्रकार यह सरकार पूरी तरह असफल हो गई। लियाकत अली खाँ के पास वित्त विभाग था। उसने कांग्रेसी सरकार की प्रत्येक योजना में बाधाएँ उत्पन्न करके सरकार का कार्य करना असम्भव कर दिया। सरदार पटेल के अनुसार, “ एक वर्ष के मेरे प्रशासनिक अनुभव ने मुझे यह विश्वास दिला दिया कि हम विनाश की ओर बढ़ रहे हैं।”

(vii) कांग्रेस की भारत को शक्तिशाली बनाने की इच्छा- मुस्लिम लीग की गतिविधियों से यह पूर्ण रूप से स्पष्ट हो गया था कि मुस्लिम लीग कांग्रेस से किसी भी प्रकार से सहयोग नहीं करेगी तथा प्रत्येक कार्य में व्यवधान उपस्थित करेगी। ऐसी स्थिति में विभाजन न होने पर भारत सदैव एक कमजोर राष्ट्र रहता। मुस्लिम लीग केन्द्र को कभी-भी शक्तिशाली नहीं बनने देती। इसीलिए सरदार पटेल ने कहा था, “बंटवारे के बाद हम कम-से-कम 75 या 80 प्रतिशत भाग को शक्तिशाली बना सकते हैं, शेष को मुस्लिम लीग बना सकती है। इन परिस्थितियों में कांग्रेस ने विभाजन को स्वीकार कर लिया।

(viii) मुस्लिम लीग की सीधी कार्यवाही तथा साम्प्रदायिक दंगे- जब मुस्लिम लीग को संवैधानिक साधनों से सफलता प्राप्त नहीं हुई तो उसने मुसलमानों को साम्प्रदायिक उपद्रव करने के लिए प्रेरित किया तथा लीग की सीधी कार्यवाही की योजना के अन्तर्गत नोआखाली और त्रिपुरा में मुसलमानों द्वारा हिन्दुओं के विरुद्ध अनेक दंगे किए गए। अकेले नोआखाली में ही लगभग सात हजार व्यक्ति मारे गए थे। तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं के विवरण के अनुसार पहली बार इस प्रकार सुनियोजित ढंग से मुस्लिमों ने हिन्दुओं के विरुद्ध सीधी कार्यवाही की थी। मौलाना आजाद के अनुसार, “16 अगस्त भारत में काला दिन है, क्योंकि इस दिन सामूहिक हिंसा ने कलकत्ता जैसी महानगरी को हत्या, रक्तपात और बलात्कारों की बाढ़ में डुबो दिया था।’

(ix) बाह्य एकता का निष्फल प्रयास- मुस्लिम लीग की सीधी कार्यवाही के आधार पर जो जन-धन की हानि हुई, उससे कांग्रेसी नेताओं को यह एहसास हो गया कि मुसलमानों को हिन्दुओं के साथ बाह्य एकता में बाँधने का अब कोई औचित्य नहीं रह गया है। नेहरू जी के शब्दों में- “यदि उन्हें भारत में रहने के लिए बाध्य किया गया तो प्रगति व नियोजन पूरी तरह से असफल हो जाएगा।” अंग्रेजों ने 30 जून, 1948 ई० तक भारत छोड़ने का निर्णय किया था। ऐसी स्थिति में दो विकल्प थे- भारत का विभाजन या गृह-युद्ध। गृह-युद्ध के स्थान पर भारत विभाजन को स्वीकार करने में कांग्रेसी नेताओं ने बुद्धिमत्ता समझी।

(x) पाकिस्तान के गठन में सन्देह- अनेक कांग्रेसी नेताओं को पाकिस्तान के गठन में सन्देह था और उनका विचार था कि भारत का विभाजन अस्थायी होगा। उनका यह भी विचार था कि पाकिस्तान राजनीतिक, भौगोलिक, आर्थिक तथा सैनिक दृष्टि से स्थायी राज्य नहीं हो सकता और यह कभी-न-कभी भारत संघ में अवश्य ही सम्मिलित हो जाएगा। अत: विभाजन को स्वीकार करने पर भी भविष्य में पाकिस्तान के भारत में विलय की आशा कांग्रेसियों में व्याप्त थी। सत्ता-हस्तान्तरण के सम्बन्ध में ब्रिटिश दृष्टिकोण- भारत विभाजन के सम्बन्ध में ब्रिटिश शासन का दृष्टिकोण यह था कि इससे भारत एक निर्बल देश हो जाएगा तथा भारत और पाकिस्तान सदैव ही एक-दूसरे के विरुद्ध लड़ते रहेंगे। वस्तुतः ब्रिटेन की यह इच्छा विभाजन के पश्चात् पूरी हो गई, जो आज भी हमें दोनों राष्ट्रों के मध्य शत्रुतापूर्ण आचरण में स्पष्ट रूप से दिखाई देती है।

(xii) लॉर्ड माउण्टबेटन का प्रभाव- भारत विभाजन में लॉर्ड माउण्टबेटन का प्रभावशाली व्यक्तित्व भी काफी सीमा तक उत्तरदायी था। उन्होंने अपने शिष्ट व्यवहार, राजनीतिक चातुर्य तथा व्यक्तित्व के प्रभाव से कांग्रेसी नेताओं को भारत विभाजन के लिए सहमत कर लिया था।

प्रश्न 2.
भारत विभाजन कितना अनिवार्य था? समझाइए।
उतर:
भारत का विभाजन आधुनिक भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास में राजनीतिक, आर्थिक तथा सामाजिक दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण घटना है। अब प्रश्न है कि क्या भारत विभाजन अपरिहार्य था? ऐसी कौन-सी परिस्थितियाँ थीं, जिनके कारण यह अपरिहार्य था? आधुनिक इतिहासकारों के लिए यह वाद-विवाद का विषय है। किन्तु यह सत्य है कि भारत-विभाजन किसी आकस्मिक घटना का परिणाम नहीं था अपितु कई परिस्थितियाँ किसी-न-किसी रूप में दीर्घकाल से इसके लिए उत्तरदायी थी। इन परिस्थितियों में ब्रिटिश सरकार, मुस्लिम लीग, कांग्रेस, हिन्दू महासभा तथा कम्युनिस्ट दल की स्वार्थपरक नीतियाँ सम्भवतः इस योजना में सम्मिलित थीं।।

अंग्रेजों ने सदैव उपनिवेशवादी नीति के क्रियान्वयन के लिए विभाजन करो एवं शासन करो’ का मार्ग अपनाया। अंग्रेज इस विचार का पोषण करते रहे कि भारत एक राष्ट नहीं है, यह विविध धर्मों एवं सम्प्रदायों का देश है। इस नीति के अन्तर्गत ब्रिटिश सरकार ने लीग को बढ़ावा दिया, जिसकी परिणति 1919 ई० के ऐक्ट के अन्तर्गत साम्प्रदायिक निर्वाचन प्रणाली के अन्तर्गत देखी गई। मार्ले ने कहा था, “हम नाग के दाँत के बीज बो रहे हैं, जिसकी फसल कड़वी होगी।” सरकार ने लीग को सहारा देकर कांग्रेस के विरोध में खड़े रखा।

जिन्ना यद्यपि एक सुसंस्कृत व्यक्ति थे किन्तु व्यक्तित्व के संकट के कारण इन्होंने विभाजन सम्बन्धी हठधर्मिता को अपना लिया। ब्रिटिश सरकार की नीतियों ने आग में घी का काम किया। 1940 ई० में पाकिस्तान प्रस्ताव पारित होने के उपरान्त लीग को प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष प्रोत्साहन दिया गया। भारत सचिव एमरी सहित कई ऐसे उच्च अधिकारी थे जो पाकिस्तान की माँग से गहरी सहानुभूति रखते थे। पं० नेहरू व मौलाना आजाद जैसे राष्ट्रवादी नेताओं का तो ख्याल था कि ब्रिटिश शासन ने कभी भी साम्प्रदायिक उपद्रवों को दबाने में तत्परता नहीं दिखाई।।

दूसरी तरफ मुस्लिम लीग ने अपने जन्म से ही पृथकतावादी नीति अपनाई तथा भारत में लोकतान्त्रिक संस्थाओं के विकास का विरोध किया। साम्प्रदायिकता अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँचा दी गई। इतना ही नहीं, लीग के फिरोज खाँ जैसे नेताओं ने हिन्दुओं के विरुद्ध जहर उगलना शुरू कर दिया। ऐसी भयावह परिस्थिति का समाधान जितनी जल्दी हो सके, होना आवश्यक था।

यद्यपि कांग्रेस का स्वरूप प्रारम्भ से ही धर्मनिरपेक्ष रहा। लेकिन न चाहते हुए भी लखनऊ समझौता (1916 ई०) से शुरू हुई कांग्रेस की तुष्टिकरण की नीति ने आगे चलकर लीग के भारत-विभाजन के बढ़ते दावे को अधिक प्रोत्साहित किया। जैसे ही कांग्रेस ने 1937 ई० के चुनाव परिणाम के उपरान्त कठोर तथा वैधानिक दृष्टिकोण अपनाया, कांग्रेस एवं लीग के बीच कट्टर दुश्मनी प्रारम्भ हो गई। कांग्रेस के कुछ वरिष्ठ नेताओं की ऐसी भ्रामक धारणा थी कि पाकिस्तान कभी-भी पृथक् रूप से स्थायी देश नहीं बन सकता, अन्तत: वह भारत में सम्मिलित ही होगा। सम्भवत: इसी सन्देह के कारण उन्होंने भारतीय समस्या के अस्थायी समाधान के लिए पाकिस्तान की माँग को स्वीकार कर लिया।

लेकिन इस स्वीकारोक्ति के पीछे एक ठोस तर्क यह भी दिया जाता है कि मुहम्मद अली जिन्ना की भाँति ही कांग्रेस के नेताओं में भी सत्ता के प्रति आकर्षण होने लगा था। मौलाना अबुल कलाम आजाद ने 1959 ई० में प्रकाशित अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘इण्डिया विन्स फ्रीडम’ में भारत-विभाजन के लिए नेहरू तथा पटेल को अधिक उत्तरदायी ठहराया है। कुछ इतिहासकारों के अनुसार दोनों को सत्ता का लालच होने लगा था। यद्यपि कांग्रेस के गाँधी जी जैसे नेताओं ने विभाजन को टालने हेतु जिन्ना को अखण्ड भारत का प्रधानमन्त्री बनाने का प्रस्ताव रखा ताकि दंगे रुकने के साथ ही जिन्ना की महत्वाकाँक्षा भी पूर्ण हो जाती। लेकिन नेहरू तथा पटेल को यह अस्वीकार्य था। इसके विपरीत गाँधी जी पर यह आरोप लगा कि ‘मुसलमानों का अधिक पक्ष ले रहे हैं। इस प्रकार वरिष्ठ नेताओं के आपसी मतभेदों ने भी विभाजन को अपरिहार्य बना दिया।

20 वीं शताब्दी में मुस्लिम साम्प्रदायिकता के साथ-साथ हिन्दू साम्प्रदायिकता का भी प्रादुर्भाव होने लगा। मदन मोहन मालवीय, लाला लाजपतराय आदि नेताओं द्वारा हिन्दू महासभा को एक सशक्त दल के रूप में तैयार किया गया। उल्लेखनीय है कि हिन्दुओं का दृष्टिकोण भी मुसलमानों के प्रति अनेक बार प्रतिक्रियावादी होता था। 1937 ई० के हिन्दू महासभा के अहमदाबाद अधिवेशन में वीर सावरकर द्वारा कहा गया था, “भारत एक सूत्र में बँधा राष्ट्र नहीं माना जा सकता अपितु यहाँ मुख्यतः हिन्दू तथा मुसलमान दो राष्ट्र हैं।

” दंगों को भड़काने में हिन्दू महासभा तथा अन्य कट्टरपंथी हिन्दू नेताओं की भूमिका भी कम महत्वपूर्ण न रही। इसी प्रकार अकालियों ने भी पृथक् “खालिस्तान की माँग प्रारम्भ कर दी। कम्युनिस्ट भी पीछे नहीं थे। वे भारत को 11 से अधिक भागों में बाँटना चाहते थे। इस प्रकार समूचे भारत की राजनीतिक तथा अन्य परिस्थितियाँ विकास के समय जटिल व भयावह बन चुकी थीं। यद्यपि कुछ इतिहासकारों का कहना है कि विभाजन टाला जा सकता था यदि ……… किन्तु इतिहास में, यदि के लिए स्थान नहीं होता। परिस्थितियाँ इतनी भयावह थीं कि यदि, यदि’ से सम्बन्धित परिस्थितियों को आदर्श रूप में स्वीकार भी कर लिया जाता तब भी विभाजन को कुछ समय के लिए तो टाला जा सकता था, किन्तु स्थायी रूप से समाधान तो भारत-विभाजन ही था, क्योंकि जिन्ना व लीग की राजनीतिक आकांक्षाएँ अखण्ड स्वतन्त्र भारत में फलीभूत नहीं हो सकती थीं।”

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