UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 21 Agriculture

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Geography
Chapter Chapter 21
Chapter Name Agriculture (कृषि)
Number of Questions Solved 62
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 21 Agriculture (कृषि)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
भारतीय कृषि की मुख्य विशेषताओं का वर्णन कीजिए। [2014]
या

भारतीय कृषि की चार विशेषताएँ बताइए। [2014]
उत्तर

भारतीय कृषि की विशेषताएँ।
Characteristics of Indian Agriculture

भारत गाँवों का देश है। यहाँ हजारों वर्षों से लोग गाँवों में रहकर निरन्तर कृषि-कार्यों में संलग्न हैं। फलतः कृषि भारतीयों के जीवन का एक मुख्य अंग बन गयी है। आज भी देश की लगभग 74% जनता कृषि पर ही प्रत्यक्ष रूप से निर्भर करती है। राष्ट्रीय उत्पाद का लगभग 35% कृषि से ही प्राप्त होता है। यही नहीं, अनेक उद्योगों को कच्चा माल कृषि से ही प्राप्त होता है। वस्तुत: भारतीय संस्कृति की जड़े कृषि में निहित हैं। भारतीय कृषि की अपनी कुछ मौलिक विशेषताएँ हैं, जिनका संक्षिप्त विवेचन निम्नलिखित प्रकार से किया जा सकता है –

(1) प्रकृति पर निर्भरता – भारतीय कृषि को प्राय: भाग्य का खेल कहा जाता है, क्योंकि यहाँ की कृषि मुख्यत: वर्षा की स्थिति पर निर्भर रहती है। यही कारण है कि वर्षा की अनियमितता एवं अनिश्चितता भारतीय अर्थव्यवस्था को सर्वाधिक प्रभावित करती है। अर्थव्यवस्था का प्रत्येक क्षेत्र, चाहे वह उद्योग हो अथवा व्यापार, प्राकृतिक प्रभावों से कभी अछूता नहीं बचता।।

(2) कृषि की निम्न उत्पादकता – भारत में कृषि पदार्थों का प्रति हेक्टेयर उत्पादन अन्य देशों की तुलना में बहुत कम है। यहाँ एक हेक्टेयर भूमि में केवल 1,995 किग्रा गेहूँ, 2,470 किग्रा चावल, 120 किग्रा कुपास तथा 973 किग्रा मूंगफली पैदा होती है जो कि अन्य राष्ट्रों की अपेक्षा बहुत कम है। प्रति श्रमिक की दृष्टि से भारत में कृषि श्रमिक की औसत वार्षिक उत्पादकता केवल 105 डॉलर है।

(3) जीविका का प्रमुख साधन – सन् 2011 की जनगणना के अनुसार यहाँ की कार्यशील जनसंख्या की 60% भाग कृर्षि में संलग्न है।
(4) भूमि का विषम वितरण – भारत में केवल 14% जोतों के अधीन 50% कृषि भूमि और 60% जोतों के अधीन केवल 20% कृषि भूमि है। इतना ही नहीं, ग्रामीण क्षेत्र के लगभग 14% लोग भूमिहीन हैं। इस प्रकार यहाँ भूमि का वितरण अत्यन्त ही विषम पाया जाता है।

(5) जोत की अनार्थिक इकाइयाँ – भारतीय कृषि की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि यहाँ कृषि बहुत छोटे-छोटे कृषि क्षेत्रों (खेतों) पर की जाती है। सरैया सहकारी समिति के मतानुसार, “भारतीय कृषि के उत्पादन में सबसे बड़ी बाधा अनुत्पादक व अलाभकारी जोते हैं।’ राष्ट्रीय सर्वेक्षण के मतानुसार सम्पूर्ण भारत में कृषि जोतों का औसत आकार 1.68 हेक्टेयर है। भारत में कृषि जोतों को आकार केवल छोटा,ही नहीं है, अपितु व्यक्तिगत जोतें बहुत बिखरी हुई भी हैं।

(6) जीवन-निर्वाह के लिए कृषि – हमारे सामाजिक जीवन में कृषि जीवन की एक पद्धति है। व्यक्ति इसलिए खेती नहीं करता कि उसे कृषि से विशेष अनुराग है, वरन् वह खेती इसलिए करता है। कि उसके पास जीवन-यापन का कोई अन्य साधन उपलब्ध नहीं है। कृषि उपज का अधिकांश भाग वह स्वयं प्रयोग में लाता है। वस्तुतः यह कृषि इसी अभिप्राय से करता है कि उसके परिवार की आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाये। वाणिज्यीकरण की ओर वह विशेष ध्यान नहीं देता। यही कारण है कि यहाँ अभी तक केवल कुछ ही व्यापारिक फसलों का वाणिज्यीकरण (Commercialization) सम्भव हो सका है।

(7) कृषि की अल्पविकसित अवस्था – निरन्तर प्रयासों के बावजूद भारतीय कृषि आज भी पिछड़ी हुई अवस्था में है। अनेक स्थानों पर आज भी झूमिंग कृषि की जाती है। मोटे अनाज उगाये जाते हैं। सिंचाई का उचित प्रबन्ध नहीं है।

(8) उत्पादन की परम्परागत तकनीक – भारत में आज भी कृषि में उत्पादन के लिए पुरातन तकनीकों का ही प्रयोग किया जाता है। यद्यपि आज के युग में आधुनिक एवं नवीन तकनीकों का काफी विकास हुआ है, फिर भी भारतीय कृषक आज भी देश के अनेक भागों में हल और खुरपी का ही प्रयोग करता है।

(9) वर्ष भर रोजगार का अभाव – भारतीय कृषि, कृषकों को वर्ष भर रोजगार प्रदान नहीं करती। वस्तुतः भारतीय कृषक वर्ष में 140 से लेकर 270 दिन तक बेकार रहते हैं। इसी कारण कृषि में अर्द्धबेरोजगारी तथा अदृश्य बेरोजगारी की समस्या पायी जाती है।
(10) श्रम-प्रधान – भारतीय कृषि श्रम-प्रधान है, अर्थात् भारत में पूँजी के अनुपात में श्रम की प्रधानता है।
(11) खाद्यान्न फसलों की प्रमुखता – भारतीय कृषि में खाद्यान्न फसलों की प्रमुखता रहती है। देश की कुल कृषि भूमि के लगभग 72% भाग पर खाद्यान्न तथा शेष भाग में व्यापारिक व अन्य फसलों का उत्पादन होता है।
(12) अन्य विशेषताएँ

  • प्रमुख उद्योगों का कच्चे माल का स्रोत,
  • भारतीय कृषि में फलों, सब्जियों तथा चारे की फसलों को महत्त्व प्राप्त नहीं है,
  • सिंचित भूमि की कमी,
  • राष्ट्रीय आय का प्रमुख स्रोत,
  • परिवहन व्यवस्था का मुख्य आधार।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि भारतीय कृषि की अपनी कुछ निजी विशेषताएँ हैं, जिनके कारण वह विश्व के अन्य राष्ट्रों से मौलिक विशिष्टता रखती है।

प्रश्न 2
भारतीय कृषि की प्रमुख समस्याएँ क्या हैं? उन्हें कम करने में हरित एवं श्वेत क्रान्तियों के योगदान का मूल्यांकन कीजिए।
या
भारतीय कृषि की चार प्रमुख समस्याएँ लिखिए। [2016]
उत्तर

भारतीय कृषि की प्रमुख समस्याएँ
Major Problems of Indian Agriculture

भारत के 70% लोगों का प्रधान व्यवसाय कृषि है; परन्तु दुर्भाग्यवश यह उद्योग पिछड़ा हुआ है। भारत में कृषि के पिछड़ेपन की प्रमुख समस्याएँ निम्नलिखित हैं –

  1. खेतों का छोटा और छिटका होना।
  2. कृषि का मानसूनी वर्षा पर निर्भर होना।
  3. उर्वरकों एवं खादों का प्रयोग बहुत कम होना।
  4. उत्तम तथा उन्नत बीजों का अभाव।
  5. कृषि की परम्परागत दोषपूर्ण विधियाँ।
  6. कृषि-भूमि पर जनसंख्या का अधिक भार होना।
  7. किसानों की अज्ञानता, निर्धनता एवं ऋणग्रस्तता।
  8. कृषि उपजों के विपणन की अनुचित व्यवस्था।
  9. सिंचाई के साधनों का अभाव।
  10. कृषि सम्बन्धित उद्योगों का अल्प विकास।

कृषि समस्या को दूर करने में हरित क्रान्ति का योगदान
Contribution of Green Revolution in Solving the Agricultural Problems

हरित क्रान्ति से देश के कृषि-क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण प्रगति हुई है। खाद्यान्नों के मामले में देश आत्मनिर्भरता की ओर अग्रसर हुआ है। देश के कृषकों के दृष्टिकोण में परिवर्तन हुआ है तथा कृषि बचतों में वृद्धि हुई है। हरित क्रान्ति के अन्य लाभ या आर्थिक परिणाम निम्नलिखित हैं –

  1. अधिक उत्पादन – हरित क्रान्ति या नवीन कृषि-नीति से सबसे बड़ा लाभ यह हुआ है कि कृषि उत्पादन बढ़ा है। गेहूँ, बाजरा, चावल, मक्का व ज्वार की उपज में आशातीत वृद्धि हुई है, जिसके परिणामस्वरूप खाद्यान्नों के मामले में भारत आत्मनिर्भरता की ओर अग्रसर हो गया है।
  2. परम्परामत स्वरूप में परिवर्तन – नवीन कृषि-नीति से खेती के परम्परागत स्वरूप में परिवर्तन हुआ है और खेती व्यावसायिक दृष्टि से की जाने लगी है।
  3. कृषि बचतों में वृद्धि – उन्नत बीज, रासायनिक खादें, उत्तम सिंचाई के साधन व मशीनों के प्रयोग से उत्पादन बढ़ा है जिससे कृषक की बचतों की मात्रा में उल्लेखनीय प्रगति हुई है, जिसको देश के विकास के काम में लाया जा सका है। इससे औद्योगिक क्षेत्र में भी प्रगति हुई है और राष्ट्रीय उत्पादन भी बढ़ा है।
  4. कृषि निर्यात – भारतीय कृषि की अभिनव प्रवृत्ति यह दर्शाती है कि आज भारत खाद्यान्न एवं अन्य कृषिगत वस्तुओं के निर्यात की क्षमता भी प्राप्त कर चुका है। वर्ष 2011-12 के दौरान देश से 93.9 मिलियन टन का गेहूँ एवं चावल निर्यात किया गया, जिसका मूल्य लगभग ३ 6,000 करोड़ है।
  5. खाद्यान्न आयात नगण्य – हरित क्रान्ति से देश खाद्यान्नों में आत्मनिर्भर हुआ है। खाद्यान्नों के आयात नगण्य रह गये हैं, जिससे विदेशी मुद्रा की बचत हुई है।
  6. रोजगार के अवसरों में वृद्धि – हरित क्रान्ति से देश में रोजगार के अवसरों में वृद्धि हुई है। खाद, पानी, यन्त्रों आदि के सम्बन्ध में लोगों को रोजगार मिले हैं।

कृषि समस्या को दूर करने में श्वेत क्रान्ति का योगदान
Contribution of White Revolution in Solving the Agricultural Problems

स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् भारत में ग्रामीण विकास की समस्याओं को दूर करने के अनेक प्रयास किये गये हैं। श्वेत क्रान्ति (ऑपरेशन फ्लड) भी इन्हीं प्रयासों में एक है। इसके अन्तर्गत भारत के पशुधन का उचित नियोजन करके दुग्ध उत्पादन में वृद्धि का प्रयास किया जाता है।
कृषि के साथ-साथ पशुपालन भारतीय कृषकों को अतिरिक्त आय सुलभ कराता है। ये पशु विभिन्न उद्देश्यों की पूर्ति करने में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इससे न केवल कृषि अपितु सीमान्त एवं लघु कृषकों तथा भूमिहीन श्रमिकों को आजीविका के साधन उपलब्ध हुए हैं। इस प्रकार श्वेत क्रान्ति का भारत के समन्वित ग्रामीण विकास में प्रमुख योगदान निम्नलिखित है –

  1. ऑपरेशन फ्लड’ द्वारा लघु एवं सीमान्त कृषकों तथा भूमिहीन श्रमिकों को अतिरिक्त आय प्राप्त हुई है।
  2. इस व्यवसाय द्वारा खेतों के लिए जैविक खाद एवं बायो गैस उपलब्ध हुई है।
  3. इस व्यवसाय के विकास से बहुत-से परिवार निर्धनता की रेखा से ऊपर उठ गये हैं।
  4. सहकारी समितियाँ दुग्ध का संग्रहण तथा विपणन करती हैं, जिससे लोगों में सहकारिता की भावना बलवती हुई है।
  5. दुग्ध व्यवसाय के विकास से ग्राम-नगर सम्बन्ध प्रगाढ़ हुए हैं तथा एक-दूसरे को समझने में पर्याप्त सहायता मिली है।

प्रश्न 3
भारत में चावल की खेती का भौगोलिक वर्णन कीजिए। [2013, 15]
या
टिप्पणी लिखिए-पंजाब में चावल की खेती।
या
भारत में चावल की खेती के लिए उपयुक्त भौगोलिक दशाओं का वर्णन कीजिए तथा इसके वितरण एवं उत्पादन का उल्लेख कीजिए। (2007)
या
भारत में चावल की खेती का वर्णन निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत कीजिए
(क) उपयुक्त भौगोलिक देशाएँ,
(ख) प्रमुख उत्पादक क्षेत्र,
(ग) व्यापार। [2014, 16]
उत्तर
भारत में चावल की खेती ईसा से 3,000 वर्ष पूर्व से की जा रही है। यहीं से इसका प्रचार विश्व के अन्य देशों में हुआ। यह भारत में लगभग तीन-चौथाई जनसंख्या का खाद्यान्न है। चीन के बाद भारत का चावल के उत्पादन में प्रथम स्थान है जहाँ विश्व उत्पादन का 21% चावल उत्पन्न किया जाता है। देश में वर्ष 2012 में 42.1 हेक्टेयर भूमि पर 104.3 मिलियन टन चावल का उत्पादन हुआ। भारत में चावल का प्रति हेक्टेयर उत्पादन 2,372 किग्रा था। जापान में चावल को प्रति हेक्टेयर उत्पादन 4,990 किग्रा है। हमारे यहाँ खाद्यान्नों के उत्पादन में लगी हुई भूमि के 35% भाग तथा कुल कृषि-योग्य भूमि के 25% भाग पर इसका उत्पादन किया जाता है।

आवश्यक भौगोलिक दशाएँ
Necessary Geographical Conditions

चावल के उत्पादन के लिए निम्नलिखित भौगोलिक परिस्थितियाँ आवश्यक होती हैं –

  1. तापमान – चावल उष्ण कटिबन्धीय मानसूनी जलवायु का पौधा है; अत: इसे ऊँचे तापमान की आवश्यकता होती है। बोते समय 20°सेग्रे तथा पकते समय 27°सेग्रे तापमान उपयुक्त रहता है। इसकी कृषि के लिए पर्याप्त प्रकाश आवश्यक होता है, परन्तु अधिक मेघाच्छादित मौसम एवं तेज वायु हानिकारक होती है।
  2. वर्षा – चावल की कृषि के लिए 150 सेमी वर्षा आवश्यक होती है, परन्तु 60 से 75 सेमी वर्षा वाले भागों में सिंचाई के सहारे चावल का उत्पादन किया जाता है; जैसे–पश्चिमी उत्तर प्रदेश एवं पंजाब राज्यों में। चावल की खेती के लिए आवश्यक है कि खेतों में 75 दिनों तक जल भरा रहना चाहिए। भारत के चावल उत्पादन का 39.5% भाग सिंचाई के सहारे पैदा किया जाता है।
  3. मिट्टी – चावल उपजाऊ चिकनी, कछारी अथवा दोमट मिट्टियों में उगाया जाता है। चावल का पौधा मिट्टी के पोषक तत्त्वों का अधिक शोषण करता है; अत: इसमें रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग करते रहना चाहिए। हरी खाद, हड्डियों की खाद, अमोनियम सल्फेट, सुपर फॉस्फेट आदि उर्वरक लाभकारी होते हैं।
  4. मानवीय श्रम – चावल के खेतों की जुताई से लेकर कटाई तक अधिक संख्या में सस्ते श्रमिकों की आवश्यकता होती है। इसी कारण विश्व में चावल उत्पादक क्षेत्र सघन बसे क्षेत्रों में पाये जाते हैं, क्योंकि यहाँ श्रमिक सस्ते एवं सरलता से पर्याप्त संख्या में उपलब्ध हो जाते हैं।

भारत में चावल उत्पादक क्षेत्र
Rice Producing Areas in India

भारत में चावल का उत्पादन दक्षिणी एवं पूर्वी राज्यों में अधिक पाया जाता है। आन्ध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, बिहार, ओडिशा, मध्य प्रदेश, पंजाब, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, असम, कर्नाटक
आदि राज्य प्रमुख चावल उत्पादक हैं जो मिलकर देश का 97% चावल उत्पन्न करते हैं, जिनका विवरण निम्नलिखित है –
(1) पश्चिम बंगाल – पश्चिम बंगाल चावल उत्पन्न करने वाला भारत का प्रथम राज्य है, जहाँ देश का 17.5% चावल उत्पन्न किया जाता है। प्रतिवर्ष बाढ़ों द्वारा उपजाऊ नवीन काँप मिट्टी प्राप्त हो जाने के कारण खाद देने की भी आवश्यकता नहीं पड़ती है, परन्तु कभी-कभी बाढ़ से इसकी फसल को हानि भी उठानी पड़ती है। कृषि-योग्य भूमि के 77% से भी अधिक भाग पर चावल की फसल उत्पन्न की जाती है। इस राज्य में चावल की तीन फसलें उत्पन्न की जाती हैं-

  • अमन–78%,
  • ओस-20% एवं
  • बोरो-2%। यहाँ चावल उत्पादन की सभी अनुकूल भौगोलिक परिस्थितियां पायी जाती हैं। कूचबिहार, जलपाईगुड़ी, बांकुडा, मिदनापुर, वीरभूमि, दिनाजपुर, बर्दमान एवं दार्जिलिंग प्रमुख चावल उत्पादक जिले हैं।

(2) उत्तर प्रदेश एवं उत्तराखण्ड – इन राज्यों को देश के चावल उत्पादन में दूसरा स्थान है जहाँ देश का 12.2% चावल उत्पन्न किया जाता है। कृषि योग्य भूमि के 21% भाग पर इसकी खेती की जाती है, परन्तु इस राज्य की प्रति हेक्टेयर उपज कम है। देहरादून, पीलीभीत, सहारनपुर, देवरिया, गोण्डा, बहराइच, बस्ती, रायबरेली, बलिया, लखनऊ एवं गोरखपुर प्रमुख चावल उत्पादक जिले हैं। देहरादून का बासमती चावल अपने स्वाद एवं सुगन्ध के लिए देश-विदेश में प्रसिद्ध है।

(3) आन्ध्र प्रदेश – आन्ध्र प्रदेश राज्य का चावल के उत्पादन में तीसरा स्थान है, जहाँ देश का 11.8% चावल उत्पन्न किया जाता है। इस राज्य की कृषि-योग्य भूमि के 24% भाग पर चावल की वर्ष में दो फसलें उत्पन्न की जाती हैं। यहाँ गोदावरी, कृष्णा, गण्टूर, विशाखापट्टनम्, श्रीकाकुलम, नेल्लोर, चित्तूर, कुडप्पा, कर्नूल, अनन्तपुर, पूर्वी एवं पश्चिमी गोदावरी चावल के प्रमुख उत्पादक जिले हैं।

(4) तमिलनाडु – इस राज्य का भारत के चावल उत्पादन में चौथा स्थान तथा प्रति हेक्टेयर उत्पादन के दृष्टिकोण से प्रथम स्थान है। कृषि योग्य भूमि के 38% भाग पर वर्ष में चावल की दो फसलें उत्पन्न कर देश के चावल उत्पादन का 9.1% भाग पूरा करता है। कोयम्बटूर, अर्कोट, तंजौर, नीलगिरि, थंजावूर चावल उत्पादन के प्रमुख जिले हैं।

(5) पंजाब – पंजाब भारत का पाँचवाँ बड़ा (8.6%) चावल उत्पादक राज्य है। यहाँ चावल के उत्पादन में उत्तरोत्तर वृद्धि होती जा रही है। यद्यपि पंजाब राज्य की भौगोलिक दशाएँ चावल के उत्पादन के अधिक अनुकूल नहीं हैं, परन्तु कृत्रिम साधनों द्वारा पर्याप्त सिंचाई की सुविधाएँ, रासायनिक उर्वरकों का अधिकाधिक प्रयोग, कृषि में नवीन यन्त्रों का प्रयोग, उत्पादन की उच्च तकनीकी सुविधाओं के कारण यहाँ प्रति हेक्टेयर चावल उत्पादन में वृद्धि हुई है। इसे राज्य में गेहूं उत्पादक भूमि चावल उत्पादक भूमि में परिवर्तित होती जा रही है जिसका प्रमुख कारण गेहूं की अपेक्षा चावल से अधिक आर्थिक लाभ की प्राप्ति है। भटिंडा, लुधियाना, होशियारपुर, पटियाला, गुरदासपुर, संगरूर, अमृतसर, फिरोजपुर आदि जिले चावल के प्रमुख उत्पादक क्षेत्र हैं।

(6) ओडिशा – ओडिशा भारत का 7.7% चावल का उत्पादन करता है जहाँ कृषि योग्य भूमि के 67% भाग पर चावल की दो फसलें तक उत्पन्न की जाती हैं। यहाँ चावल का प्रति हेक्टेयर उत्पादन कम (केवल 960 किग्रा) है। प्रमुख उत्पादक जिले कटक, पुरी, सम्बलपुर, मयूरभंज, गंजाम, कोरापुट, कालाहांडी, बोलंगिरि, धेन्कानाल आदि हैं।

(7) बिहार – यह राज्य भी प्रमुख चावल उत्पादक है जहाँ देश के 6% चावल का उत्पादन किया जाता है। इस राज्य की कृषि-योग्य भूमि के 63% भाग पर चावल की वर्ष में तीन फसलें उत्पन्न की जाती हैं, परन्तु मानसूनी वर्षा की अनिश्चितता के कारण सिंचाई का सहारा लेना पड़ता है। गया, मुंगेर, मुजफ्फरपुर, भागलपुर एवं पूर्णिया प्रमुख चावल उत्पादक जिले हैं।

(8) अन्य राज्य – चावल के अन्य प्रमुख उत्पादक राज्यों में छत्तीसगढ़, असम, महाराष्ट्र, कर्नाटक, हरियाणा, केरल आदि हैं। इन राज्यों में सिंचाई के सहारे चावल का उत्पादन किया जाता है। छत्तीसगढ़ राज्य को चावल का कटोरा’ कहा जाता है।
व्यापार – चावल उत्पादक राज्यों में सघन जनसंख्या के कारण चावल का निर्यात नहीं किया जाता, परन्तु इसका व्यापार अन्तर्राज्यीय होता है। चावल के उत्पादन में वृद्धि होने पर सन् 1978 में 52,000 टन चावल इण्डोनेशिया को भेजा गया। विश्व के चावल निर्यात में भारत का भाग 2.58% है। सन् 1970-71 से भारत से चावल का निर्यात होता है। वर्तमान समय में उच्च-कोटि का चावल खाड़ी देशों एवं रूस को निर्यात किया जाता है।

प्रश्न 4
गेहूँ उत्पादन के लिए कौन-सी भौगोलिक परिस्थितियाँ अनुकूल होती हैं? भारत के गेहूँ। उत्पादक क्षेत्रों को बताते हुए इसके व्यापार को संक्षेप में स्पष्ट कीजिए। [2011]
या
भारत में गेहूं की खेती का भौगोलिक विवरण दीजिए।
या
भारत में गेहूं की खेती का वर्णन निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत कीजिए –
(क) उपयुक्त भौगोलिक दशाएँ,
(ख) उत्पादन के क्षेत्र। [2010,14,15]
या
भारत में गेहूं की खेती के लिए अनुकूल भौगोलिक दशाओं का उल्लेख कीजिए तथा उसकी खेती के प्रमुख क्षेत्रों का वर्णन कीजिए। [2014]
या
भारत में गेहूँ उत्पादक दो प्रमुख राज्यों का वर्णन कीजिए। [2015]
उत्तर
ऐसा अनुमान किया जाता है कि भारत ही गेहूँ का जन्म-स्थान रहा है। चावल के बाद यह भारत का दूसरा महत्त्वपूर्ण खाद्यान्न है। यह सबसे पौष्टिक आहार माना जाता है। विश्व के गेहूँ उत्पादन का 9.9% भाग ही भारत से प्राप्त होता है। वर्ष 2011-2012 में गेहूं का प्रति हेक्टेयर उत्पादन 3,140 किग्री था तथा गेहूं की कृषि 25.9 मिलियन हेक्टेयर भूमि पर की गयी थी जिस पर 93.9 मिलियन टन गेहूं का उत्पादन हुआ। खाद्यान्नों के उत्पादन में लगी कुल भूमि के 18.7% भाग पर गेहूँ उगाया जाता है, जबकि यह देश की कृषि भूमि का 10% भाग घेरे हुए है। कुल खाद्यान्नों में गेहूं का भोग लगभग 29.9% है। भारत में गेहूं उत्पादन में वृद्धि एक सफले क्रान्ति है। वास्तव में हरित-क्रान्ति गेहूँ-क्रान्ति ही है। गेहूँ की कृषि में उन्नत एवं नवीन बीजों तथा रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग से उत्पादन में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए हैं, जिससे देश आत्मनिर्भरता की ओर अग्रसर हुआ है तथा वर्तमान में निर्यात करने की स्थिति में आ गया है।

आवश्यक भौगोलिक दशाएँ
Necessary Geographical Conditions

गेहूँ उत्पादन के लिए निम्नलिखित भौगोलिक परिस्थितियाँ आवश्यक होती हैं –
(1) तापमान – गेहूँ सम-शीतोष्ण जलवायु की प्रमुख उपज है। बोते समय 10° से 15° सेग्रे तथा पकते समय 20° से 28° सेग्रे तापमान की आवश्यकता पड़ती है। वास्तव में गेहूं के पकते समय अधिक गर्मी की आवश्यकता होती है। ओला, पाला, कोहरा, मेघपूर्ण वातावरण इसकी फसल के लिए हानिकारक होते हैं।

(2) वर्षा – गेहूँ की कृषि के लिए 50 से 75 सेमी वर्षा आदर्श मानी जाती है। इससे कम वर्षा वाले भागों में सिंचाई के सहारे गेहूं का उत्पादन किया जाता है। गेहूँ के बोते समय जल की अधिक आवश्यकता होती है, परन्तु अधिक वर्षा वाले भागों में गेहूं की फसल नहीं बोयी जाती, जबकि पंजाब, हरियाणा, उत्तरी राजस्थान एवं उत्तर प्रदेश के शुष्क भागों में सिंचाई की सहायता से इसकी खेती की जाती है। उत्तर प्रदेश में 42%, पंजाब एवं हरियाणा में 45% तथा राजस्थान में 45% गेहूं की फसल सिंचाई साधनों पर ही आधारित है। शीतकालीन चक्रवातीय वर्षा इसके लिए बहुत ही लाभदायक रहती है।

(3) मिट्टी – गेहूं की खेती के लिए हल्की दोमट यो गाढ़े रंग की मटियार मिट्टी उपयुक्त रहती है। यदि धरातल समतल मैदानी हो तो उसमें आधुनिक वैज्ञानिक कृषि-उपकरणों का प्रयोग कर अधिक उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है। यूरिया, अंमोनियम सल्फेट, कम्पोस्ट आदि रासायनिक उर्वरक अधिक उपयोगी रहते हैं।

(4) मानवीय श्रम – गेहूं के खेतों को जोतने, बोने, निराई-गुड़ाई, काटने तथा दानों को भूसे से अलग करने की प्रक्रिया तक पर्याप्त मानवीय श्रम की आवश्यकता पड़ती है। जनाधिक्य के कारण यहाँ श्रमिक सस्ते और पर्याप्त संख्या में सुगमता से उपलब्ध हो जाते हैं। इसीलिए भारतवर्ष के सघन जनसंख्या वाले क्षेत्रों में गेहूं की कृषि की जाती है।

भारत में गेहूं उत्पादक राज्य
Wheat Producing States in India

गेहूँ अधिकांशत: उत्तरी एवं मध्य भारत की प्रमुख फसल है। उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, मध्य प्रदेश, गुजरात, राजस्थान एवं बिहार राज्य मिलकर देश का 90% गेहूँ उत्पन्न करते हैं। भारत में गेहूँ उत्पादक राज्य निम्नलिखित हैं –
(1) उत्तर प्रदेश – इस राज्य में कृषि-योग्य भूमि के 32% भाग पर देश का 40% गेहूं उत्पन्न किया जाता है। गंगा-जमुना दोआब तथा गंगा-घाघरा क्षेत्र गेहूं-उत्पादन में प्रमुख स्थान रखते हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सिंचाई की सुविधाओं के कारण गेहूं का अच्छा उत्पादन होता है। मेरठ, बुलन्दशहर, गाजियाबाद, सहारनपुर, आगरा, अलीगढ़, मुजफ्फरनगर, मुरादाबाद, इटावा, फर्रुखाबाद, बदायूँ, कानपुर देहात, फतेहपुर आदि जिले गेहूं के प्रमुख उत्पादक हैं।

(2) पंजाब – पंजाब राज्य 21% गेहूं का उत्पादन कर देश में दूसरा स्थान रखता है। यहाँ कृषि-योग्य भूमि के 12.5% भाग पर गेहूँ की कृषि की जाती है। इस राज्य में गेहूं की प्रति हेक्टेयर उपज सर्वाधिक (3,690 किग्रा) है। मिट्टी की उर्वरता, सिंचाई की सुविधा, आधुनिक एवं वैज्ञानिक कृषि-यन्त्रों का प्रयोग तथा शीतकालीन वर्षा के कारण गेहूं का प्रति हेक्टेयर उत्पादन भारत में सबसे अधिक है। अमृतसर, लुधियाना, गुरदासपुर, पटियाला, जालन्धर, भटिण्डा, संगरूर एवं फिरोजपुर प्रमुख गेहूँ उत्पादक जिले हैं।

(3) हरियाणा – इस राज्य में कुल कृषि-योग्य भूमि के लगभग 6% भाग पर गेहूँ की कृषि की जाती है। यहाँ भारत का 11.5% गेहूं उत्पन्न किया जाता है। गेहूं उत्पादन में इस राज्य का भारत में तीसरा स्थान है। रोहतक, अम्बाला, करनाल, जींद, हिसार तथा गुड़गाँव जिलों में सिंचाई के सहारे गेहूँ का उत्पादन किया जाता है। भाखड़ा-नाँगल योजना की सहायता से गेहूं के उत्पादक क्षेत्र को दक्षिण-पूर्व की ओर बढ़ाया जा रहा है।

(4) मध्य प्रदेश – गेहूँ के उत्पादन में मध्य प्रदेश राज्य का चौथा स्थान है तथा यहाँ देश का 8.6% गेहूँ उगाया जाता है। इस राज्य में कृषि-योग्य भूमि के 16% भाग पर गेहूं की खेती की जाती है। यहाँ मैदानी क्षेत्रों में ताप्ती, नर्मदा, तवा, गंजल, हिरन आदि नदियों की घाटियों तथा मालवा के पठार पर काली मिट्टी के क्षेत्रों में गेहूं का उत्पादन किया जाता है।

(5) अन्य राज्य – अन्य गेहूँ उत्पादक राज्यों में राजस्थान महत्त्वपूर्ण है, जहाँ प्रति वर्ष लगभग 37 लाख मीटरी टन गेहूं का उत्पादन किया जाता है। श्रीगंगानगर, भरतपुर, भीलवाड़ा, अलवर, टोंक, चित्तौड़गढ़, उदयपुर एवं सवाईमाधोपुर जिले प्रमुख गेहूँ उत्पादक हैं। गुजरात में माही एवं साबरमती नदियों की घाटियों में; महाराष्ट्र में खानदेश एवं नासिक जिले; कर्नाटक में बेलगाम, धारवाड़, रायचूर एवं बीजापुर जिलों में गेहूं का उत्पादन किया जाता है। पश्चिम बंगाल एवं बिहार राज्यों की जलवायु गेहूँ। उत्पादन के अधिक अनुकूल नहीं है; अत: बहुत कम क्षेत्र में ही गेहूं का उत्पादन किया जाता है।

व्यापार – विभाजन से पहले भारत भारी मात्रा में गेहूं का निर्यात करता था, परन्तु 1947 ई० में पश्चिमी पंजाब का गेहूँ उत्पादक क्षेत्र पाकिस्तान में चले जाने के कारण निर्यात बन्द कर दिया गया। इसके साथ ही देश में जनसंख्या की उत्तरोत्तर वृद्धि के कारण भी गेहूं का निर्यात बन्द करना पड़ा। वर्ष 1971-72 से प्रारम्भ हरित-क्रान्ति ने धीरे-धीरे देश को गेहूँ उत्पादन में आत्मनिर्भर बना दिया है। छठी योजना में देश में गेहूं का निर्यात नहीं किया गया वर्ष 1984-85 में फसल अच्छी होने के कारण रूस को 10 लाख टन गेहूं का निर्यात किया गया था। वर्ष 1988-89 में गेहूं के उत्पादन में कमी के कारण देश ने 30 लाख टन गेहूं का विदेशों से आयात किया था, परन्तु वर्तमान समय में देश गेहूं उत्पादन में आत्मनिर्भर हो गया है।

यदि देश के गेहूँ उत्पादन में इसी गति से वृद्धि होती रही तो शीघ्र ही भारत की गणना विश्व के प्रमुख गेहूँ निर्यातक देशों में की जाने लगेगी।

प्रश्न 5
भारत में गन्ने की खेती का विवरण लिखिए।
या
भारत में गन्ने की खेती के लिए उपयुक्त भौगोलिक दशाओं का वर्णन कीजिए एवं इसके उत्पादन के प्रमुख क्षेत्रों का उल्लेख कीजिए। [2011]
या
भारत में गन्ने की खेती की विवेचना निम्नलिखित शीर्षकों में कीजिए –
(क) उपयुक्त भौगोलिक दशाएँ,
(ख) उत्पादक क्षेत्र। [2007]
उत्तर
गन्ना भारत की प्रमुख मुद्रादायिनी फसल है। भारत को ही गन्ने का जन्म-स्थान होने का गौरव प्राप्त है। गन्ना उत्पादक क्षेत्रफल की दृष्टि से भारत का विश्व में प्रथम स्थान है, जबकि गन्ना उत्पादन में ब्राजील के बाद भारत का प्रथम स्थान है। विश्व गन्ना उत्पादन का 35% क्षेत्रफल भारत में पाया जाता है। भारत में गन्ने का प्रति हेक्टेयर उत्पादन अन्य गन्ना उत्पादक देशों की अपेक्षा कम है तथा रंस की मात्रा भी कम होती है। देश में प्रति हेक्टेयर गन्ने का उत्पादन 67 टन है, जबकि चीन में 70 टन है। वर्ष 2011-12 में
357.7 मिलियन टन गन्ने का उत्पादन हुआ। गन्ने की मिलों से प्राप्त शीरे से शराब, ऐल्कोहल तथा रबड़ बनाई जाती है। इससे प्राप्त खोई को गत्ता बनाने में प्रयुक्त किया जाता है।

अनुकूल भौगोलिक दशाएँ
Favourable Geographical Conditions

गन्ने की कृषि के लिए निम्नलिखित भौगोलिक दशाएँ प्रमुख स्थान रखती हैं –
(1) जलवायु – गन्ना उष्णार्द्र जलवायु का पौधा है, परन्तु अर्द्ध-उष्ण कटिबन्धीय भागों में भी इसकी खेती की जाती है। भारत में इसकी खेती 8° उत्तरी अक्षांश से 37°उत्तरी अक्षांशों के मध्य की जाती है। इसके लिए निम्नलिखित जलवायुविक दशाएँ उपयुक्त रहती हैं –
(i) तापमान – गन्ने की फसल को तैयार होने में लगभग एक वर्ष का समय लग जाता है। अंकुर निकलते समय 20°सेग्रे तापमाने की आवश्यकता होती है। इसकी खेती 40 सेग्रे से अधिक एवं 8°सेग्रे से कम तापमान में नहीं हो पाती। अत्यधिक शीत एवं पाला इसकी फसल के लिए हानिकारक होता है।
(ii) वर्षा – गन्ना 150 से 200 सेमी वर्षा वाले भागों में भली-भाँति पैदा किया जा सकता है। यदि वर्षा की मात्रा इससे कम होती है तो सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है। यही कारण है कि नहरों एवं नलकूपों से सिंचित क्षेत्र गन्ने के महत्त्वपूर्ण उत्पादक क्षेत्र बन गये हैं। ग्रीष्म ऋतु में कम-से-कम चार बार सिंचाई और गुड़ाई करने से एक पौधे में कई अंकुर निकल आते हैं और वह भूमि में भली प्रकार जम जाता है।

(2) मिट्टी – गन्ने की कृषि के लिए उपजाऊ दोमट तथा नमीयुक्त मिट्टी उपयुक्त होती है। दक्षिण की लावायुक्त काली मिट्टी में भी गन्ना पैदा किया जाता है। गन्ने को पर्याप्त खाद की आवश्यकता पड़ती है। इसी कारण चूने एवं फॉस्फोरस वाली मिट्टी अधिक उपयुक्त रहती है।

(3) मानवीय श्रम – गन्ने को रोपने, निराई-गुड़ाई काटकर बण्डल बनाने तथा समय-समय पर सिंचाई करने के लिए पर्याप्त संख्या में सस्ते श्रमिकों की आवश्यकता होती है। इसी कारण गन्ने का उत्पादन सघन जनसंख्या वाले प्रदेशों में अधिक किया जाता है।
समुद्री पवनों के प्रभाव से गन्ना अधिक रसीला तथा मिठासयुक्त हो जाता है। इस प्रकार अनुकूल भौगोलिक दशाएँ भारत के तटीय क्षेत्रों में अधिक मिलती हैं। इसी कारण उत्तरी भारत की अपेक्षा यहाँ गन्ने का प्रति हेक्टेयर उत्पादन भी अधिक होता है तथा गन्ना अधिक रसीला एवं मीठा होता है।

भारत में गन्ने के उत्पादक क्षेत्र
Sugarcane Producing Areas in India

यद्यपि उत्तरी भारत की अपेक्षा दक्षिणी भारत में गन्ना उत्पादन के लिए भौगोलिक सुविधाएँ अधिक अनुकूल हैं तथापि गन्ना उत्तरी भारत में ही अधिक पैदा किया जाता है। उत्तर प्रदेश राज्य देश का 54%, पंजाब तथा हरियाणा 15% तथा बिहार 12% गन्ने का उत्पादन करते हैं। पिछले दो दशकों से दक्षिणी राज्यों के गन्ना उत्पादन में पर्याप्त वृद्धि हुई है। देश के दक्षिणी राज्यों में आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र एवं तमिलनाडु प्रमुख गन्ना उत्पादक राज्य हैं। इन राज्यों में गन्ने की प्रति हेक्टेयर उपज उत्तरी राज्यों की अपेक्षा अधिक है। इसी कारण नवीन चीनी मिलों की स्थापना इन्हीं राज्यों में अधिक की गयी है। भारत में गन्ना उत्पादन के प्रमुख प्रदेश निम्नलिखित हैं –

(1) उत्तर प्रदेश – भारत के गन्ना उत्पादन में इस राज्य का प्रथम स्थान है, जो देश का 45 से 55% तक गन्ना उत्पन्न करता है। देश के गन्ना उत्पादक क्षेत्रफल का 54% भाग भी इसी राज्य में केन्द्रित है। यहाँ गन्ना उत्पादन की सभी भौगोलिक सुविधाएँ प्राप्त हैं। उत्तर प्रदेश में गन्ना उत्पादन के दो महत्त्वपूर्ण क्षेत्र हैं। पहला क्षेत्र तराई प्रदेश में है जो रामपुर से प्रारम्भ होकर बरेली, पीलीभीत, सीतापुर, खीरी, लखीमपुर, मुरादाबाद, गोण्डा, फैजाबाद, आजमगढ़, जौनपुर, बस्ती, बलिया, गोरखपुर तक फैला : है। दूसरा प्रमुख क्षेत्र गंगा-यमुना नदियों के दोआब में विस्तृत है। यह क्षेत्र मेरठ से वाराणसी होता हुआ इलाहाबाद तक फैला है। यहाँ का गन्ना मोटा, रसदार तथा प्रति हेक्टेयर उत्पादन में भी अधिक होता है। सहारनपुर, मुजफ्फरनगर, मेरठ, बिजनौर, देवरिया, शाहजहाँपुर, हरदोई आदि प्रमुख गन्ना उत्पादक जिले हैं।

(2) महाराष्ट्र – देश में इस राज्य का गन्ना उत्पादन में दूसरा स्थान है। यहाँ देश का 13% गन्ना उगाया जाता है। यहाँ गन्ने का क्षेत्र नासिक के दक्षिण में गोदावरी नदी की ऊपरी घाटी में स्थित है। साँगली, सतारा, नासिक, पुणे, अहमदनगर एवं शोलापुर प्रमुख गन्ना उत्पादक जिले हैं। यहाँ वर्षभर तापमान सम रहने के कारण गन्ने से अधिक रस की प्राप्ति होती है।

(3) तमिलनाडु – इस राज्य का गन्ने के क्षेत्रफल एवं प्रति हेक्टेयर उत्पादन की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। कोयम्बटूर में गन्ने की एक अनुसन्धानशाला स्थापित की गयी है। देश का लगभग 11% गन्ना इसी राज्य में उत्पन्न किया जाता है। यहाँ कोयम्बटूर, रामनाथपुरम्, तिरुचिरापल्ली, उत्तरी एवं दक्षिणी अर्कोट तथा मदुराई जिलों में गन्ने की खेती विशेष रूप से की जाती है।

(4) आन्ध्र प्रदेश – यह राज्य गन्ने का प्रमुख उत्पादक है, जहाँ देश का लगभग 5% गन्ना उत्पन्न किया जाता है। यहाँ मन्ने की खेती गोदावरी एवं कृष्णा नदियों के डेल्टा में की जाती है, क्योंकि इस क्षेत्र में नहरों द्वारा सिंचाई की पर्याप्त सुविधाएँ प्राप्त हैं।

(5) पंजाब एवं हरियाणा – भारत में ये दोनों प्रमुख गन्ना उत्पादक राज्य हैं जहाँ सिंचाई की सहायता से गन्ना उगाया जाता है। हरियाणा में गुड़गाँव, हिसारं, करनाल, अम्बाला, रोहतक प्रमुख गन्ना उत्पादक जिले हैं। पंजाब राज्य में पटियाला, संगरूर, फिरोजपुर, जालन्धर, अमृतसर एवं गुरदासपुर प्रमुख गन्ना उत्पादक जिले हैं। दोनों राज्य सम्मिलित रूप से देश का 15% गन्ना उगाते हैं।

(6) अन्य राज्य – कर्नाटक, पश्चिम बंगाल, बिहार, गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश तथा ओडिशा में भी गन्ने का उत्पादन किया जाता है।

भारत में जितना भी गन्ना उत्पन्न होता है उसका 45% खाण्डसारी एवं गुड़ बनाने में, 35% सफ़ेद चीनी बनाने में तथा शेष चूसने, रस निकालने एवं बीज के रूप में प्रयुक्त किया जाता है।

प्रश्न 6
भारत में कपास की खेती में सहायक भौगोलिक कारकों की विवेचना कीजिए तथा उसकी खेती के प्रमुख क्षेत्रों का वर्णन कीजिए। [2008]
या
भारत में कपास की खेती का भौगोलिक विवरण लिखिए।
या
भारत की किसी एक रेशेदार (Fibre) फसल का भौगोलिक विवरण प्रस्तुत कीजिए।
या
भारत में कपास की कृषि का निम्नांकित शीर्षकों में वर्णन कीजिए –
(अ) भौगोलिक दशाएँ, (ब) उत्पादक क्षेत्र, (स) व्यापार। [2009, 12, 13]
उत्तर
रेशेदार फसलों में कपास, जूट, रेशम व फ्लेक्स आती हैं, परन्तु इनमें कपास सबसे महत्त्वपूर्ण है। कपास का जन्म-स्थान भारत को ही माना जाता है। यहीं से इसका पौधा चीन तथा विश्व के अन्य देशों में पहुँचा। आज भी कपास भारत की प्रमुख व्यापारिक फसल है। भारत का कपास के क्षेत्रफल की दृष्टि से संयुक्त राज्य अमेरिका के बाद दूसरा तथा उत्पादन की दृष्टि से संयुक्त राज्य अमेरिका, चीन, रूस एवं ब्राजील के बाद पाँचवाँ स्थान है। कपास सूती वस्त्र उद्योग एवं वनस्पति घी उद्योग के लिए कच्चे माल का प्रमुख स्रोत है। भारत विश्व की 8.2% कपास का उत्पादन करता है, जबकि यहाँ विश्व की कपास उत्पादक भूमि का 22% क्षेत्रफल विद्यमान है। देश में 91 लाख हेक्टेयर भूमि पर कपास का उत्पादन किया जाता है। वर्ष वर्ष 2011-2012 में यहाँ कपास का वार्षिक उत्पादन 35.2 मिलियन गाँठ (एक गाँठ = 170 किग्रा) हुआ था। कपास का औसत उत्पादन 189 किग्रा प्रति हेक्टेयर है।

आवश्यक भौगोलिक दशाएँ
Necessary Geographical Conditions

कपास उगाने के लिए निम्नलिखित भौगोलिक दशाओं की आवश्यकता होती है –
(1) तापमान – कपास के पौधे के लिए 20° से 30° सेग्रे तापमान की साधारणतः आवश्यकता होती है। पाला एवं ओला इसके लिए हानिकारक होते हैं। अतः इसकी खेती के लिए 200 दिन पालारहित मौसम होना आवश्यक होता है। कपास की बौंडियाँ खिलने के समय स्वच्छ आकाश तथा तेज एवं चमकदार धूप होनी आवश्यक है जिससे रेशे में पूर्ण चमक आ सके।

(2) वर्षा – कपास की खेती के लिए साधारणतया 50 से 100 सेमी वर्षा पर्याप्त होती है, परन्तु यह वर्षा कुछ अन्तर से होनी चाहिए। अधिक वर्षा हानिकारक होती है, जबकि 50 सेमी से कम वर्षा वाले भागों में सिंचाई के सहारे कपास का उत्पादन किया जाता है।
(3) मिट्टी – कपास के उत्पादन के लिए आर्द्रतायुक्त चिकनी एवं गहरी काली मिट्टी अधिक लाभप्रद रहती है, क्योंकि पौधों की जड़ों में पानी भी न रहे और उन्हें पर्याप्त नमी भी प्राप्त होती रहे; इस दृष्टिकोण से दक्षिणी भारत की काली मिट्टी कपास के लिए बहुत ही उपयोगी है। भारी काली, दोमट, लाल एवं काली चट्टानी मिट्टी तथा सतलुज-गंगा मैदान की कछारी मिट्टी भी इसके लिए उपयुक्त रहती है।

(4) मानवीय श्रम – कपास की खेती को बोने, निराई-गुड़ाई करने और बौंडियाँ चुनने के लिए सस्ते एवं पर्याप्त संख्या में श्रमिकों की आवश्यकता होती है। कपास चुनने के लिए अधिकतर स्त्रियाँ-श्रमिक उपयुक्त रहती हैं।
भारत में कपास का प्रति हेक्टेयर उत्पादन 375 किग्रा है। कपास के उत्पादन के लिए दक्षिणी भारत की जलवायु उत्तरी भारत की अपेक्षा अधिक अनुकूल है, क्योंकि शीतकाल में उत्तरी भारत का तापमान तेजी से कम हो जाता है और भूमध्यसागरीय चक्रवातों के आ जाने से बादल छा जाते हैं तथा बौंडियों को खिलने के लिए पर्याप्त धूप नहीं मिल पाती।

भारत में कपास उत्पादक क्षेत्र
Cotton Producing Areas in India

भारत में विभिन्न प्रकार की जलवायु, मिट्टी एवं उत्पादन की भौगोलिक दशाएँ पायी जाती हैं तथा कृषित भूमि के 5% भाग पर ही कपास का उत्पादन किया जाता है, परन्तु देश में कपास उत्पादक क्षेत्रफल में वृद्धि होती जा रही है। वर्ष 2011-12 में 9.1 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र पर 35.2 मिलियन गाँठ कपास का उत्पादन किया गया। गुजरात, महाराष्ट्र एवं मध्य प्रदेश राज्य मिलकर देश की 65% कपास का उत्पादन करते हैं। तमिलनाडु, आन्ध्र प्रदेश, पंजाब व राजस्थान अन्य प्रमुख कपास उत्पादक राज्य हैं। कपास के उत्पादन में लगी कुल भूमि का 28% क्षेत्र सिंचित है। प्रमुख कपास उत्पादक राज्यों का विवरण निम्नवत् है –

(1) पंजाब एवं हरियाणा – कपास के उत्पादन में पंजाब राज्य का प्रथम तथा हरियाणा का छठा स्थान है। पंजाब में कपास का प्रति हेक्टेयर उत्पादन देश में सर्वाधिक (386 किग्रा) है। यहाँ कपास में 6% कृषित भूमि लगी है तथा देश की 20.4% कपास उगायी जाती है। इन दोनों राज्यों में कपास का उत्पादन सिंचाई के सहारे किया जाता है। पंजाब में अमृतसर, जालन्धर, लुधियाना, पटियाला, नाभा, संगरूर एवं भटिण्डा तथा हरियाणा में गुड़गाँव, करनाल, रोहतक एवं जींद आदि जिले प्रमुख कपास उत्पादक हैं।

(2) महाराष्ट्र – कपास के उत्पादन में महाराष्ट्र राज्य का देश में दूसरा स्थान है जहाँ लगभग 16.3% कपास का उत्पादन किया जाता है। इस प्रदेश की काली मिट्टी एवं सागरीय नम जलवायु का प्रभाव कपास के उत्पादन में बड़ा ही सहायक है। अकोला, अमरावती, बुलडाना, नागपुर, वर्धा, चन्द्रपुर, छिन्दवाड़ा, साँगली, बीजापुर, नासिक, शोलापुर, यवतमाल, जलगाँव, पुणे तथा परेभनी प्रमुख उत्पादक जिले हैं।

(3) गुजरात – गुजरात की उत्तम काली मिट्टी में देश का 28% कपास उत्पादक क्षेत्र फैला है तथा यह तीसरा स्थान प्राप्त किये हुए है। यहाँ देश का 13% कपास उत्पादित होता है। अहमदाबाद, मेहसाना, बनासकांठा, भड़ौंच, वड़ोदरा, खेड़ा, पंचमहल, साबरकाँठा, सूरत एवं पश्चिमी खानदेश जिले कपास के प्रमुख उत्पादक क्षेत्र हैं।

(4) आन्ध्र प्रदेश – इस राज्य का भारत के कपास उत्पादन में चौथा स्थान है। यहाँ देश की लगभग 12% कपास पैदा की जाती है। गुण्टूर, कुडप्पा, कर्नूल, पश्चिमी गोदावरी, कृष्णा, महबूबनगर, अदिलाबाद एवं अनन्तपुर जिले कपास के प्रमुख उत्पादक क्षेत्र हैं।
(5) अन्य राज्य – भारत में कर्नाटक, राजस्थान, मध्य प्रदेश, तमिलनाडु एवं उत्तर प्रदेश कपास के अन्य प्रमुख उत्पादक राज्य हैं। उत्तर प्रदेश देश की लगभग 1% कपास का उत्पादन करता है जहाँ गंगा-यमुना, दोआब में कपास का उत्पादन किया जाता है। रुहेलखण्ड एवं बुन्देलखण्ड सम्भागों में सिंचाई द्वारा छोटे रेशे वाली कपास का उत्पादन किया जाता है।

व्यापार
देश में कपास के उत्पादन में वृद्धि के साथ-साथ यह कपास का निर्यात भी करने लगा है। छोटे रेशे वाली घटिया कपास का निर्यात जापान, ब्रिटेन एवं संयुक्त राज्य अमेरिका को किया जाता है। थोड़ी मात्रा में कपास का निर्यात जर्मनी, फ्रांस, नीदरलैण्ड्स, न्यूजीलैण्ड, इंग्लैण्ड, जापान एवं ऑस्ट्रेलिया को किया जाता है।

प्रश्न 7
भारत में जूट उत्पादन के लिए अनुकूल भौगोलिक परिस्थितियों का वर्णन कीजिए तथा उसके उत्पादक क्षेत्रों पर प्रकाश डालिए।
या
भारत की किसी एक रेशेदार (Fibre) फसल का भौगोलिक विवरण प्रस्तुत कीजिए।
या
भारत में जूट उद्योग के प्रमुख केन्द्रों का वर्णन कीजिए एवं उनमें स्थानीकरण के कारकों का विश्लेषण कीजिए।
या
भारत में जूट की खेती की समीक्षा निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत कीजिए –
(अ) उपयुक्त भौगोलिक दशाएँ,
(ब) उत्पादक क्षेत्र,
(स) व्यापार
उत्तर
जूट भारत की एक प्राचीन उपज है। यह उत्तरी-पूर्वी भारत की एक महत्त्वपूर्ण व्यापारिक एवं मुद्रादायिनी फसल है। वर्तमान समय में भारत विश्व के 40% जूट का उत्पादन कर विश्व में प्रथम स्थान बनाये हुए है। जूट के पौधे से सस्ता एवं मजबूत रेशा प्राप्त होता है। यह जूट उद्योग का प्रमुख कच्चा माल है जिससे टाट, बोरियाँ, रस्सियाँ, सुतली, गलीचे, मोमजामा, पर्दे आदि बनाये जाते हैं। भारत में जूट का प्रति हेक्टेयर उत्पादन 1,907 किग्रा है। वर्ष 2011-12 में 10.9 मिलियन गाँठ (1 गाँठ =180 कि०) जूट का उत्पादन किया गया था। भारत में जूट उत्पादन में 0.9 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्रफल लगा हुआ है।

अनुकूल भौगोलिक दशाएँ
Favourable Geographic Conditions

जूट उष्ण कटिबन्धीय उष्णार्द्र जलवायु का पौधा है। पश्चिम बंगाल में इसकी 66% से अधिक होती है। इसकी खेती के लिए निम्नलिखित भौगोलिक परिस्थितियाँ अनुकूल रहती हैं –

  1. तापमान – जूट के उत्पादन के लिए उच्च एवं नम जलवायु की आवश्यकता पड़ती है। साधारणतया 25° से 35° सेग्रे तापमान आवश्यक होता है।
  2. वर्षा – जूट के पौधे के अंकुर निकलने के बाद अधिक जल की आवश्यकता पड़ती है। अतः इसकी खेती के लिए 100 से 200 सेमी या उससे भी अधिक वर्षा आवश्यक होती है। प्रति सप्ताह 2 से 3 सेमी वर्षा उपयुक्त रहती है।
  3. मिट्टी – जूट की कृषि, भूमि के उत्पादक तत्त्वों को नष्ट कर देती है। अत: इसकी खेती उन्हीं भागों में की जाती है, जहाँ प्रतिवर्ष नदियाँ अपनी बाढ़ द्वारा उपजाऊ मिट्टियों का निक्षेप करती रहती हैं। इसी कारण जूट की खेती डेल्टाई भागों में की जाती है। दोमट, काँप एवं बलुई मिट्टियाँ भी इसके लिए उपयुक्त रहती हैं।
  4. मानवीय श्रम – जूट की कृषि के लिए सस्ते एवं पर्याप्त संख्या में श्रमिकों की आवश्यकता पड़ती है, क्योंकि तैयार पौधों को काटने तथा तैयार करने में अधिक श्रम की आवश्यकता होती है।

जूट के पौधों से रेशा प्राप्त करने के लिए उसे 20-25 दिनों तक जल में डुबोकर रखना पड़ता है। अत: जूट के पौधों को खेत में काटकर तालाब, तलैया और झील के जल में डुबोकर रख दिया जाता है। जब पौधा सड़ जाता है तो उसे पीटकर साफ किया जाता है तथा सुखाकर रेशे अलग कर लिये जाते हैं।

भारत में जूट उत्पादक क्षेत्र
Jute Producing Areas in India

वर्ष 1985-86 से जूट के उत्पादन एवं उत्पादक-क्षेत्र दोनों में ही कमी हुई है, यद्यपि दक्षिणी-पूर्वी . भारत में जूट के प्रधान उत्पादक क्षेत्र विकसित हुए हैं। देश में प्रमुख जूट उत्पादक राज्यों का विवरण निम्नलिखित है –
(1) पश्चिम बंगाल – यह राज्य भारत का 75% जूट का उत्पादन कर प्रथम स्थान रखता है। इस राज्य में जूट की कृषि के लिए अनुकूल जलवायु, उपजाऊ भूमि, पर्याप्त श्रम, कच्चा माल आयात करने की सुविधा, परिवहन सुविधा और सस्ता मानवीय श्रम आदि सभी आदर्श भौगोलिक सुविधाएँ उपलब्ध हैं। दार्जिलिंग, हावड़ा, हुगली, माल्दा, जलपाईगुड़ी, बांकुड़ा, बर्दमान, मिदनापुर, मुर्शिदाबाद, चौबीस-परगना तथा कूच बिहार प्रमुख जूट उत्पादक जिले हैं।

(2) बिहार एवं झारखण्ड – इन राज्यों का देश के जूट उत्पादन में दूसरा स्थान है जहाँ देश की 15% जूट का उत्पादन किया जाता है। बिहार को तराई क्षेत्र जूट का प्रमुख उत्पादक प्रदेश है। सस्ते श्रमिक, परिवहन, जूट की कृषि के लिए अनुकूल जलवायु आदि सभी आदर्श भौगोलिक सुविधाएँ उपलब्ध हैं। सारन, चम्पारन, दरभंगा, पूर्णिया, मुजफ्फरपुर, सहरसा, मोतीपुर, मुंगेर, मोतिहारी एवं संथाल-परगना जिलों में जूट का उत्पादन प्रमुख रूप से किया जाता है।

(3) असम – असम राज्य का देश के जूट उत्पादन में तीसरा स्थान है। इस राज्य की जलवायु दशाएँ एवं मृदा जूट के उत्पादन के अधिक अनुकूल पायी जाती हैं। साथ ही जूट की कृषि के लिए कच्चे माल के आयात की सुविधा, सस्ता श्रम, परिवहन की सुविधा, पर्याप्त माँग आदि की आदर्श भौगोलिक सुविधाएँ उपलब्ध हैं। कृषि-योग्य भूमि के अधिकांश भाग (95%) पर जूट का उत्पादन किया जाता है। ब्रह्मपुत्र एवं इसकी सहायक नदियों की घाटियाँ जूट के प्रमुख उत्पादक क्षेत्र हैं। यहाँ कछार, धरांग, गोलपाड़ा, कामरूप, लखीमपुर, नवगाँव आदि जूट के प्रमुख उत्पादक जिले हैं।

(4) अन्य राज्य – आन्ध्र प्रदेश; ओडिशा, मेघालय में गारो, खासी और जयन्तिया की पहाड़ियाँ, मिकिर तथा उत्तरी कछार जिले; उत्तर प्रदेश के तराई क्षेत्र में देवरिया, बहराइच, गोंडा, सीतापुर एवं खीरी जिलों में जूट की खेती की जा रही है। केरल (मालाबार तट), त्रिपुरा तथा मणिपुर राज्यों में भी जूट का उत्पादंने अल्प मात्रा में किया जाता है।

व्यापार – भारत जूट के उत्पादन में अभी तक आत्मनिर्भर नहीं हो पाया है। अत: यहाँ कच्चा जूट बांग्लादेश से मॅगाया जाता है, परन्तु जूट-निर्मित सामान का निर्यात ब्रिटेन, मिस्र, ऑस्ट्रेलिया, संयुक्त राज्य अमेरिका, जर्मनी तथा फ्रांस आदि देशों को किया जाता है। भारत में जूट के उत्पादन में वृद्धि के प्रयास किये जा रहे हैं। पश्चिमी बंगाल राज्य के हुगली नगर में जूट अनुसन्धानशाला स्थापित की गयी है। जो जूट की नयी किस्मों पर शोध का कार्य कर रही है तथा जूट के उत्पादन में वृद्धि के नवीन प्रयास कर रही है। जूट की कमी को पूरा करने के लिए घाघरा, सरयू, ताप्ती, महानदी आदि घाटियों, समुद्रतटीय क्षेत्रों तथा तराई प्रदेश में जूट के उत्पादन में वृद्धि के प्रयासों में सफलता मिली है।

प्रश्न 8
भारत में चाय की खेती एवं उसके अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का वर्णन कीजिए।
या
भारत में चाय की खेती के लिए उपयुक्त भौगोलिक दशाओं का वर्णन कीजिए और इसका वितरण एवं उत्पादन बताइए। [2011]
या
भारत में चाय की खेती का वर्णन निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत कीजिए –
(अ) उपयुक्त भौगोलिक दशाएँ, (ब) उत्पादक क्षेत्र, (स) अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार। [2009, 13, 16]
या
भारत का एक रेखा-मानचित्र बनाइए तथा उस पर चाय की खेती के क्षेत्रों को दर्शाइए। [2013]
या
भारत का एक रेखा-मानचित्र बनाइए तथा उस पर चाय की खेती का एक महत्त्वपूर्ण क्षेत्र (नाम सहित) दिखाइए।
या
भारत में चाय की खेती के क्षेत्रों को वर्णन कीजिए तथा इसका व्यापारिक महत्त्व बताइए। [2007]
उत्तर
चाय भारत का एक प्रमुख पेय पदार्थ है। भारत में चाय की कृषि एक महत्त्वपूर्ण बागानी फसल है। वर्तमान समय में चाय देश की प्रमुख मुद्रादायिनी फसल है। 2001-2002 ई० में भारत ने 176.3 हजार टन चाय का निर्यात किया तथा 1,719 करोड़ की विदेशी मुद्रा अर्जित की। भारत विश्व की 28.3% चाय का उत्पादन कर विश्व में प्रथम स्थान प्राप्त किये हुए है तथा देश के निर्यात व्यापार में चाय का भाग 4% है। देश में चाय के 13,256 बागाने हैं जिनमें 10 लाख श्रमिकों को रोजगार प्राप्त है। वर्ष 2011-12 में 1 मिलियन टन यहाँ चाय का उत्पादन किया गया तथा प्रति हेक्टेयर उत्पादन 1,663 किग्रा था।

अनुकूल भौगोलिक दशाएँ
Favourable Geographical Conditions

चाय के लिए निम्नलिखित भौगोलिक परिस्थितियों की आवश्यकता होती है –
(1) तापमान – चाय का पौधा छायाप्रिय होता है जो हल्की छाया में बड़ी तीव्र गति से बढ़ता है। इसके लिए 20 से 30° सेग्रे तापमान उपयुक्त रहता है। न्यूनतम तापमान 18° सेग्रे हो जाने पर इसकी वृद्धि रुक जाती है, परन्तु असम में 37° सेग्रे तापमान वाले भागों में भी इसका उत्पादन किया जाता है। ठण्डी पवने, पाला एवं ओले इसकी खेती के लिए हानिकारक होते हैं।

(2) वर्षा – चाय के लिए आर्द्र जलवायु आवश्यक होती है। यदि वसन्त एवं शीत ऋतु में अच्छी वर्षा हो जाये तो चाय की पत्तियों को वर्ष में 4-5 बार चुना जा सकता है। इसके लिए 150 से 250 सेमी वर्षा उपयुक्त रहती है। द्वार एवं दार्जिलिंग की ढालू भूमि में 250 से 500 सेमी वर्षा वाले भागों में चाय का उत्पादन किया जाता है। जल पौधों की जड़ों में न रुक सके, इसलिए चाय के बागान ढालू भूमि पर 610 से 1,830 मीटर की ऊँचाई वाले भागों पर ही लगाये जाते हैं।

(3) मिट्टी – चाय का उत्पादन पहाड़ी ढालों वाली भूमि पर अधिक किया जाता है। इसके लिए गहरी, गन्धक, पोटाश, लोहांश तथा जीवांशों से युक्त मिट्टी उपयुक्त रहती है। वनों से साफ की गयी भूमि पर चाय सर्वाधिक उगायी जाती है। बलुई मिट्टी, जिसमें जीवांशों की मात्रा अधिक होती है, चाय के लिए सर्वोत्तम रहती है। चाय की झाड़ी की जड़ों में पानी नहीं रुकना चाहिए।

(4) मानवीय श्रम – चाय की पत्तियों के लिए सस्ते एवं अधिक संख्या में श्रमिकों की आवश्यकता होती है, क्योंकि चाय की पत्तियाँ एक-एक कर चुनी जाती हैं जिससे कोमल पत्तियाँ नष्ट न हों। इस कार्य के लिए बच्चे एवं स्त्रियाँ श्रमिक अधिक उपयुक्त रहती हैं।

भारत में चाय का उत्पादन एवं वितरण
Production and Distribution of Tea in India

भारत में लगभग 5 लाख हेक्टेयर भूमि पर चाय का उत्पादन होता है। देश में 13,256 चाय के उद्यान हैं। देश में चाय के उत्पादन का 75% भाग पश्चिम बंगाल एवं असम राज्यों से; 5% उत्तर प्रदेश, बिहार एवं हिमाचल प्रदेश से प्राप्त होता है। शेष 20% चाय दक्षिणी राज्यों-तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक एवं महाराष्ट्र में उगाई जाती है। भारत में प्रमुख चाय उत्पादक राज्य निम्नलिखित हैं –
(1) असम – चाय के उत्पादन में इस राज्य का भारत में प्रथम स्थान है। यहाँ देश की 50% चाय का उत्पादन किया जाता है। यहाँ चाय के प्रमुख क्षेत्र ब्रह्मपुत्र एवं सुरमा नदियों की घाटियों में हैं। यह क्षेत्र ब्रह्मपुत्र नदी की घाटी में धरांग, कामरूप, गोलपाड़ा, नवगाँव, शिवसागर तथा लखीमपुर जिलों में विस्तृत है। असम में दूसरा चाय उत्पादक क्षेत्र सुरमा नदी की घाटी के कछार जिले में है। यहाँ चाय के उत्पादन के लिए सभी अनुकूल भौगोलिक दशाएँ पायी जाती हैं तथा राज्य की अर्थव्यवस्था में चाय का योगदान प्रमुख है।

(2) पश्चिम बंगाल – चाय के उत्पादन में इस राज्य का भारत में दूसरा स्थान है जहाँ देश की 20 से 25% तक चाय का उत्पादन किया जाता है। यहाँ चाय के उद्यान दार्जिलिंग, कूच बिहार, पुरुलिया तथा
जलपाईगुड़ी जिलों में हैं। द्वार पहाड़ी क्षेत्रों के ढलानों पर भी चाय का उत्पादन किया जाता है। यहाँ सुगन्धित एवं स्वादिष्ट चाय पैदा की जाती है। दार्जिलिंग में 1,800 मीटर की ऊँचाई तक चाय का उत्पादन किया जाता है। यहाँ उत्पादित अधिकांश चाय का निर्यात कर दिया जाता है।

(3) तमिलनाडु – तमिलनाडु दक्षिणी भारत का सर्वप्रमुख चाय उत्पादक राज्य है तथा देश के चाय उत्पादन में तीसरा स्थान प्राप्त किये हुए है। यहाँ देश की 12% चाय उत्पन्न की जाती है। अन्नामलाई, कन्याकुमारी, नीलगिरि, तिरुनलवेली एवं कोयम्बटूर जिले प्रमुख चाय उत्पादक हैं। अधिकांश चाय का उत्पादन अन्नामलाई एवं नीलगिरि के पर्वतीय ढालों पर किया जाता है।
UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 21 Agriculture Q.8
(4) केरल – भारत में चाय के उत्पादन में कर्नाटक केरल चौथा प्रमुख राज्य है। यहाँ देश की 7% चाय उत्पन्न की जाती है। मालनद, मध्य ट्रावणकोर, कोनन-देवास एवं मालाबार तट चाय के प्रमुख
उत्पादक क्षेत्र हैं।

(5) महाराष्ट्र – महाराष्ट्र राज्य में देश की चित्र 3.1–भारत : चाय उत्पादक क्षेत्र। 2% चाय का उत्पादन किया जाता है। रत्नागिरि, कनारा एवं सतारा जिले प्रमुख उत्पादक क्षेत्र हैं।

(6) अन्य राज्य – देश में चाय के अन्य उत्पादक राज्य कर्नाटक, बिहार, हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश, मणिपुर, मेघालय, त्रिपुरा एवं अरुणाचल प्रदेश हैं। उत्तराखण्ड राज्य में देहरादून, गढ़वाल एवं अल्मोड़ा जिलों में चाय उगायी जाती है।

अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार – भारत विश्व में चाय का सबसे बड़ा निर्यातक देश है। भारत में चाय की खपत उत्पादन का केवल दो-तिहाई भाग है, शेष एक-तिहाई चाय विदेशों को निर्यात कर दी जाती है। देश के निर्यात व्यापार की 60% चाय ब्रिटेन मॅगाता है। रूस, संयुक्त राज्य अमेरिका, जर्मनी, ऑस्ट्रेलिया, अफगानिस्तान, सूडान, इराक, ईरान, मिस्र आदि 80 देश भारतीय चाय के प्रमुख ग्राहक हैं।

प्रश्न 9
भारत में कहवा की कृषि का भौगोलिक विवरण प्रस्तुत कीजिए।
या
भारत में कहवा उत्पादक क्षेत्रों का वर्णन कीजिए तथा इसके उत्पादन के लिए अनुकूल भौगोलिक परिस्थितियों को बताइए।
या
भारत में कहवा की खेती का विवरण निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत कीजिए –
(अ) उत्पादक क्षेत्र, (ब) उत्पादन, (स) निर्यात।
उत्तर
भारत में सन् 1830 से कहवा की कृषि व्यवस्थित रूप से की जाती है तथा इसका विस्तार कर्नाटक के अन्य जिलों, केरल एवं तमिलनाडु में हो गया था। विश्व उत्पादन का 2.8% कहवा ही भारत से प्राप्त हो पाता है, परन्तु स्वाद में उत्तम होने के कारण इसका अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में ऊँचा मूल्य मिलता है। इसी कारण देश के उत्पादन का लगभग 70% भाग विदेशों को निर्यात कर दिया जाता है। देश में इस समय लगभग कहवा के 52,000 बागान हैं जिनमें 2.5 लाख लोग लगे हैं। वर्ष 2011-2012 में 3 लाख टन कहवे का उत्पादन हुआ था।

अनुकूल भौगोलिक दशाएँ
Favourable Geographical Conditions

कहवा के उत्पादन के लिए अग्रलिखित भौगोलिक परिस्थितियाँ अनुकूल रहती हैं –

  1. तापमान – कहवा के उत्पादन के लिए औसत वार्षिक तापमान 20° से 30° सेग्रे आवश्यक होता है। कहवे का पौधा अधिक धूप को सहन नहीं कर पाता। इसी कारण इसे छायादार वृक्षों के साथ उगाया जाता है।
  2. वर्षा – कहवे के लिए 150 से 250 सेमी वर्षा पर्याप्त रहती है। जिन क्षेत्रों में वर्षा का वितरण समान होता है, वहाँ 300 सेमी वर्षा पर्याप्त रहती है। सामान्यतया इसकी खेती 900 से 1,800 मीटर ऊँचाई वाले भागों में छायादार वृक्षों के साथ की जाती है।
  3. मिट्टी – इसके लिए वनों से साफ की गयी भूमि उपयुक्त रहती है, क्योंकि इसमें उपजाऊ तत्त्व अधिक मिलें रहते हैं। कहवे के लिए दोमट एवं ज्वालामुखी उद्गार से निकली लावा मिट्टी अधिक उपयुक्त रहती है जिनमें क्रमश: जीवांश एवं लोहांश मिले होते हैं।
  4. मानवीय श्रम – कहवे के पौधों को लगाने, निराई-गुड़ाई करने, बीज तोड़ने, सुखाने, पीसने आदि कार्यों के लिए पर्याप्त संख्या में सस्ते एवं कुशल श्रमिकों की आवश्यकता पड़ती है। इन कार्यों के लिए बच्चे एवं स्त्रियाँ श्रमिक अधिक उपयुक्त रहते हैं।

भारत में कहवा उत्पादक क्षेत्र
Coffee Producing Areas in India

भारत में कहवे का उत्पादन करने वाले राज्य निम्नलिखित हैं –

  1. कर्नाटक – कर्नाटक राज्य का कहवा के उत्पादन में प्रथम स्थान है (देश के उत्पादन का 70%)। यहाँ कहवे के 4,600 बाग हैं। इस राज्य के दक्षिणी एवं दक्षिणी-पश्चिमी भागों में कादूर, शिमोगा, हासन, चिकमंगलूर एवं मैसूर जिलों के पहाड़ी क्षेत्रों में 1,200 मीटर की ऊँचाई वाले भागों में कहवे का उत्पादन किया जाता है।
  2. केरल – कहवा के उत्पादन में केरल राज्य का दूसरा स्थान है जहाँ देश का 20% कहवा उत्पन्न किया जाता है। यहाँ 58,000 हेक्टेयर भूमि कहवा के उत्पादन में लगी हुई है जिस पर 33,600 टन कहवे का वार्षिक उत्पादन होता है। केरल के प्रमुख उत्पादक जिले–कोजीकोड़, कन्नानोर, बयनाड़ तथा पालघाट प्रमुख हैं।
  3. तमिलनाडु – कहवा के उत्पादन में इस राज्य का देश में तीसरा स्थान है। यहाँ 21,700 हेक्टेयर भूमि पर 15,200 टन कहवा उगाया जाता है। तमिलनाडु के उत्तर में अर्कोट जिले से लेकर दक्षिण-पश्चिम में तिरुनलवेली तक इसका विस्तार है। नीलगिरि प्रमुख कहवा उत्पादक जिला है। कोयम्बटूर, मदुराई, पेरियार, सलेम, रामनाथपुरम् अन्य प्रमुख केहवा उत्पादक जिले हैं।
  4. अन्य राज्य – महाराष्ट्र में रत्नागिरि, सतारा एवं कनारा जिलों तथा आन्ध्र प्रदेश में विशाखापट्टनम जिले में भी कहवे का उत्पादन किया जाता है।

निर्यात – देश में कहवा उत्पादन का 30% उपभोग घरेलू रूप में किया जाता है तथा शेष 70% ब्रिटेन, रूस, कनाडा, स्वीडन, नार्वे, यूगोस्लाविया, ऑस्ट्रेलिया, पोलैण्ड, फ्रांस, जर्मनी, नीदरलैण्ड्स, बेल्जियम एवं इराक को निर्यात कर दिया जाता है। वर्ष 2010-11 में 203.8 लाख टन कहवे का निर्यात किया गया। भारत विश्व व्यापार का 1.41% कहवा निर्यात करता है।

प्रश्न 10
भारत में तिलहनों की खेती का भौगोलिक विवरण दीजिए तथा उनकी वर्तमान कमी के कारण बताइए।
उत्तर
भारत का विश्व में तिलहन उत्पादन में प्रमुख स्थान है। यहाँ विश्व की प्रमुख तिलहन (Oil seeds) फसलें; जैसे- मूंगफली (3/4), तिल (1/4) वे सरसों (176) उत्पन्न की जाती हैं। तिलहन फसलें भारत में दो प्रकार की हैं—एक छोटे दाने वाली एवं दूसरी बड़े दाने वाली। उत्तरी भारत में छोटे दाने वाली सरसों प्रमुख फसल है, जबकि दक्षिण भारत में नारियल प्रमुख फसल है। भारत में सभी राज्यों में कोई-न-कोई तिलहन फसल न्यूनाधिक मात्रा में पैदा की जाती है।

विभिन्न तिलहनों के लिए भौगोलिक दशाएँ एवं उत्पादक क्षेत्र
Geographical Conditions and Producing Areas of Various Oil Seeds

(1) सरसों (Mustard); (2) मूंगफली (Peanut); (3) तिल (Sesamum) तथा (4) नारियल (Coconut)।
(1) सरसों – भारत में सरसों की फसल रबी के मौसम में गेहूँ एवं जौ के साथ उगायी जाती है। सरसों की खेती के लिए यहाँ उपयुक्त तापमान 20°C से 25°C एवं वर्षा 75 सेमी से 150 सेमी पायी जाती है। उत्तरी भारत में जहाँ वर्षा की कमी होती है वह सिंचाई के साधनों द्वारा पूरी कर ली जाती है। सरसों की खेती के लिए उपजाऊ दोमट मिट्टी एवं सस्ते श्रम की आवश्यकता पड़ती है। भारत में सरसों की खेती प्राय: गेहूँ, जौ, चना एवं मटर के साथ मिलाकर की जाती है। जहाँ पानी की कमी है वहाँ अलग खेत में भी सरसों की फसल पैदा की जाती है।

उत्पादक क्षेत्र – सरसों की फसल मुख्यत: उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, बिहार, हरियाणा, पंजाब, ओडिशा, मध्य प्रदेश एवं राजस्थान में उगायी जाती है। भारत की अधिकांश उपज का स्थानीय उपयोग हो जाता है, फिर भी कुछ सरसों यूरोपीय देशों को निर्यात की जाती है।

(2) मूंगफली – यह एक उष्ण कटिबन्धीय जलवायु की फसल है। भारत में इसकी फसल के लिए उपयुक्त तापमान बोते समय 15°C एवं पकते समय 25°C सेग्रे तक तथा वर्षा 75 से 150 सेमी के मध्य पायी जाती है। शीतल जलवायु वाले भागों में मूंगफली की खेती करना सम्भव नहीं है। उपजाऊ एवं जीवाश्म युक्त मिट्टी मूंगफली की फसल के लिए आवश्यक है। साथ ही सस्ता श्रम भी मूंगफली की खेती में आवश्यक भौगोलिक कारक है और उपर्युक्त सभी भौगोलिक दशाएँ भारत में पायी जाती हैं।

उत्पादक क्षेत्र – भारत में मूंगफली की खेती गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश, तमिलनाडु तथा उत्तर प्रदेश में की जाती है। कुल उत्पादन का 90% दक्षिण भारत में उत्पन्न किया जाता है। भारत मूंगफली के उत्पादन में विश्व में प्रथम स्थान रखता है। कुल मूंगफली उत्पादन का 15% भूनकर खाने के काम में, 50% तेल बनाने एवं शेष का निर्यात यूरोपीय देशों एवं कनाडा को किया जाता है।

(3) तिल – तिल की फसल अर्द्ध-उष्ण भागों में पैदा की जाती है। तिल की खेती के लिए तापमान 20°C से 25°C एवं वर्षा 50-100 सेमी होनी चाहिए। तिल की फसल के लिए अधिक उपजाऊ मिट्टी की आवश्यकता नहीं होती। तिल की खेती भारत में ठण्डे भागों में खरीफ के मौसम में एवं गर्म भागों में रबी के मौसम में की जाती है। तिल के पौधे की जड़ों में पानी नहीं भरना चाहिए। अत: बलुई मिट्टी उपयुक्त होती है।

उत्पादक क्षेत्र – भारत के कुल तिल उत्पादन का लगभग 90% उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र एवं आन्ध्र प्रदेश में उत्पन्न किया जाता है। तिल के उत्पादन में उत्तर भारत की ही प्रधानता है। तिल का व्यापार कच्चे माल के रूप में न होकर तेल के रूप में किया जाता है।

(4) नारियल – नारियल का पौधा उष्णार्द्र जलवायु का पौधा है। इसकी उपज के लिए 20°C से 30°C तक तापमान एवं 150 सेमी से अधिक वर्षा होनी चाहिए। सामान्यतः नारियल की फसल समुद्रतटीय भागों, डेल्टाओं एवं टापुओं में पैदा की जाती है।

उत्पादक क्षेत्र – भारत में नारियल की फसल मुख्यतः केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक, महाराष्ट्र, गोआ, आन्ध्र प्रदेश, ओडिशा, पश्चिम बंगाल आदि में पैदा की जाती है। पूर्वी गोदावरी एवं कावेरी डेल्टा में बहुतायत में नारियल उगाया जाता है। भारत में नारियल का क्षेत्र एवं उत्पादन निरन्तर बढ़ रहा है। भारत से नारियल एवं नारियल का तेल यूरोप वे संयुक्त राज्य अमेरिका को निर्यात किया जाता है। उपर्युक्त तिलहनों के अलावा अरण्डी, राई, अलसी, तिल्ली आदि भी उगाये जाते हैं। इनका उत्पादन मुख्यत: उत्तरी भारत में रबी के मौसम में किया जाता है।

तिलहनों के उत्पादन में कमी के कारण
Causes of Decreasing Production of Oil Seeds

भारत में जनसंख्या का दबाव निरन्तर बढ़ रहा है और तिलहनों की खपत बढ़ रही है। माँग के अनुपात में तिलहनों का उत्पादन नहीं बढ़ा है, क्योंकि तिलहनों की भारत में प्रति हेक्टेयर उपज कम है तथा उन्नत बीज एवं वैज्ञानिक तरीकों से तिलहनों को नहीं उगाया जाता है। भारत में तिलहन मुख्य फसल के रूप में बहुत कम क्षेत्रों में पैदा किये जाते हैं जिस कारण से वर्तमान में तिलहनों की उपज में निरन्तर गिरावट आ रही है। तिलहनों के बजाय कृषकों का ध्यान खाद्यान्नों एवं औद्योगिक फसलों की तरफ अधिक है। भारत सरकार ने भी तिलहनों के उत्पादन को बढ़ाने के लिए कोई नियोजित योजना लागू नहीं की है। यही कारण है कि भारत में वर्तमान में तिलहन उत्पादन में कमी आयी है।

प्रश्न 11
भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि के योगदान की विवेचना निम्नलिखित शीर्षकों में कीजिए –
(क) योजनाकाल में कृषि का विकास,
(ख) हरित क्रान्ति।
उत्तर

(क) योजनाकाल में कृषि का विकास
Development of Agriculture During Planning

भारत में नियोजन 1 अप्रैल, 1950 से आरम्भ हुआ है। अब तक 65 वर्ष पूरे हो चुके हैं और 66वाँ वर्ष चल रहा है। इस काल में कृषि का अत्यधिक विकास हुआ है, जिसका विवरण निम्नवत् है –
(1) कृषि उत्पादन में वृद्धि – इने योजनाकालों में कृषि उत्पादन बढ़ा है, जैसे-वर्ष 1950-51 में खाद्यान्नों का उत्पादन 551 लाख टन था, वह सन् 1983-84 में 1,524 लाख टन हो गया था, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में सूखे में कारण यह उत्पादन सन् 1986-87 में 1,440 लाख टन हुआ जो कि सन् 1988-89 में बढ़कर 1,702 लाख टन हो गया। इसी प्रकार की वृद्धि लगभग सभी कृषि उत्पादों में हुई। वर्ष 2006-07 में 2,120 लाख टन खाद्यान्नों का उत्पादन हुआ।

(2) सिंचाई की सुविधा में वृद्धि – सन् 1950-51 में कुल 226 लाख हेक्टेयर भूमि को ही सिंचाई सुविधाएँ प्राप्त थीं, लेकिन सन् 1992-93 में 883 लाख हेक्टेयर भूमि को सिंचाई सुविधाएँ प्राप्त थीं। वर्ष 1994-95 में 78.6 लाख हेक्टेयर में सिंचाई की गयी। वर्ष 2000-01 में बड़ी योजना द्वारा 947 लाख हेक्टेयर की सिंचाई हुई।

(3) रासायनिक उर्वरक का उपयोग – वर्ष 1950-51 में रासायनिक उर्वरकों का उपयोग न के बराबर अर्थात् 1 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर से भी कम था, लेकिन आज यह 90 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर से अधिक है। वर्ष 1989-90 में सभी प्रकार के खाद की खपत 120 लाख टन एवं 1992-93 ई० में 127 लाख तथा वर्ष 1994-95 में 130 लाख टन हो गयी। वर्ष 2005-06 में 203 लाख टन रासायनिक उत्पादों का प्रयोग किया गया था।

(4) हरित क्रान्ति एवं उच्च तकनीक – इसके प्रयोग से उत्पादन के नये कीर्तिमान स्थापित किये जा सकते हैं। अब कीटनाशक एवं रासायनिक उर्वरकों की बढ़ती हानियों एवं प्रदूषण के खतरों को देखते हुए इनका उपयोग सीमित रखकर इनके स्थान पर अधिक क्षमता के उपचारित बीज एवं जैव तकनीक व्यवस्था का बड़े पैमाने पर उपयोग 1990-91 ई० से ही प्रारम्भ किया गया है।

(5) बहु-फसली कृषि – कृषि पहले सामान्यतया एक ही फसल की होती थी लेकिन आज एक से अधिक कृषि फसलें होती हैं। बागानी कृषि का भी तेजी से विकास हो रहा है। अब कुल सिंचित क्षेत्र के 20% भाग पर बहुफसलें बोयी गयीं।

(6) उन्नत बीज – नियोजन प्रारम्भ होने पर अनेक प्रकार के उन्नत बीजों की खोज हुई है, जिसके परिणामस्वरूप सन् 1992 में 706 लाख हेक्टेयर भूमि पर और सन् 1994-95 में 800 लाख हेक्टेयर भूमि पर उन्नत बीजों को बोया गया, जबकि नियोजन से पूर्व ऐसा नहीं होता था। राष्ट्रीय निगम द्वारा वर्ष 2001-02 में 91 लाख क्विटल उन्नतशील बीजों का उत्पादन किया गया।

(ख) हरित क्रान्ति
Green Revolution

जब तीसरी पंचवर्षीय योजना सफल हो गयी तो सरकार ने कृषि विकास के लिए नये कार्यक्रम तैयार किये। इन कार्यक्रमों का उद्देश्य अच्छे बीज, खाद, सिंचाई आदि के प्रयोग द्वारा कृषि उत्पादन में क्रान्तिकारी परिवर्तन लाना था। इस योजना को नयी कृषि नीति (New Agricultural Strategy) कहते हैं। इसके फलस्वरूप गेहूँ की उपज में तीव्र गति से वृद्धि हुई और अन्य वस्तुओं की उपज का वातावरण तैयार हो गया। इसी को हरित क्रान्ति (Green Revolution) कहते हैं। हरित क्रान्ति का आशय यह नहीं कि खेती की मेड़बन्दी करवाकर फावड़े, तगारी, गेंती, हल इत्यादि अन्य उपयोगी कृषि के साधन प्राप्त करके कृषि की जाए वरन् इन साधनों का विकास तकनीक के साथ प्रयोग करके कृषि उत्पादन में पर्याप्त वृद्धि की जा सके। हरित क्रान्ति अथवा नयी कृषि नीति के मुख्य तत्त्व निम्नलिखित हैं –

(1) अधिक उपज देने वाली किस्में – जिन क्षेत्रों में सिंचाई की विश्वसनीय सुविधाएँ उपलब्ध हैं। अथवा जिनमें वर्षा का पर्याप्त जल मिल जाता है, उनमें सन् 1966 की खरीफ की फसल से अधिक उपज देने वाली फसलों में बीजों का प्रयोग प्रारम्भ किया गया। यह प्रयोग अभी केवल पाँच खाद्यान्नों-गेहूँ, धान, बाजरी, मक्का तथा ज्वार–के उत्पादन में ही किया गया। इनमें गेहूं की अधिक उपज देने वाली किस्में, जैसे-शरबती, सोनारा, कल्याण सोना, छोटी लरमा तथा हीरा किस्में प्रसिद्ध हैं। चावल की भी आई० आर० 8, ताइचुंग 65, जय, पद्मा, पंकज, जगन्नाथ, जमुना, सावरमती आदि किस्मों का विकास हो गया है।

(2) सुधरे हुए बीज – हरित क्रान्ति की सफलता अधिक उपज देने वाली किस्म तथा बढ़िया बीजों पर निर्भर करती है। इस दृष्टि से न केवल बढ़िया किस्मों का प्रयोग करना आवश्यक है, बल्कि उनके बढ़िया बीजों की व्यवस्था करना भी जरूरी है। इस दृष्टि से ही देश भर में लगभग 4,000 कृषि फार्म स्थापित किये गये हैं, जहाँ बढ़िया किस्म के बीजों की उत्पत्ति होती है।

(3) रासायनिक खाद – पाश्चात्य कृषिशास्त्रियों के अनुसार खेतों को अधिकाधिक रासायनिक खाद देकरं उत्पादन में आशातीत वृद्धि की जा सकती है। भारत के सामने वर्तमान समस्या उत्पादन की मात्रा में वृद्धि करने की है। अतः रासायनिक खाद का प्रयोग बढ़ाने का प्रयत्न किया जा रहा है।

(4) गहन कृषि (जिलावार) कार्यक्रम – गहन कृषि जिला कार्यक्रम से तात्पर्य यह है कि जिन क्षेत्रों में भूमि अच्छी है तथा सिंचाई की सुविधाएँ पर्याप्त हैं, वहाँ अधिक शक्ति और श्रम की सहायता से कृषि का विकास किया जाना चाहिए।

(5) लघु सिंचाई – हरित क्रान्ति की हरियाली केवल बीज अथवा खाद से ही बनाये रखना कठिन होता है। इसके लिए सिंचाई की पर्याप्त व्यवस्था बहुत आवश्यक है। यह व्यवस्था बड़े बाँधों के अतिरिक्त छोटी नहरों, कुओं तथा तालाबों से भी करनी पड़ती है, ताकि प्रत्येक वर्ग के किसान को इन सुविधाओं का लाभ प्राप्त हो सके। इस कार्यक्रम के अन्तर्गत नलकूप, छोटी नहरों तथा तालाब आदि बनाने का कार्य किया जाता है और इसमें सहायता दी जाती है।

(6) कृषि शिक्षा तथा शोध – देश में कृषि विकास की उन्नति करने के लिए कृषि कार्य में शोध करना बहुत आवश्यक हैं जिससे उत्पादन तथा विकास की नवीनतम पद्धति का प्रयोग किया जा सके। 1 अक्टूबर, 1975 से एक कृषि अनुसन्धान सेवा का गठन किया गया है। कृषि विज्ञान केन्द्र खोले गये हैं। जिससे स्व-नियोजित किसानों और विस्तार कर्मचारियों को नवीनतम कृषि विधियों की जानकारी दी जा सके। देश में 29 कृषि विश्वविद्यालय स्थापित किये जा चुके हैं जिनमें जबलपुर (मध्य प्रदेश), अकोला (महाराष्ट्र), पन्तनगर (उत्तराखण्ड), हिसार (हरियाणा), लुधियाना (पंजाब), बीकानेर (राजस्थान) तथा भुवनेश्वर (ओडिशा) मुख्य हैं। देश के विशिष्ट चुने हुए जिलों में कृषि प्रशिक्षण और शिक्षा कार्यक्रम चल रहे हैं।

(7) पौध संरक्षण – हरित क्रान्ति में पौध संरक्षण कार्यक्रमों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। इसके अन्तर्गत भूमि तथा फसलों पर दवा छिड़कने व बीज उपचारित करने का कार्य किया जाता है। जिन वर्षों में टिड्डी दल आते हैं, उन वर्षों में टिड्डियों को नष्ट करने के अभियान चलाकर उन्हें भूमि पर अथवा आकाश में नष्ट कर दिया जाता है। वर्तमान में पर्यावरण प्रिय ‘नीम’ पर आधारित कीटनाशकों तथा जैव कीटनाशकों को एकीकृत कीट प्रबन्धक की व्यापक परिधि के अन्तर्गत प्रोत्साहित किया जा रहा है। हैदराबाद में एक पौध संरक्षण संस्थान है जहाँ अधिकारियों को पौध संरक्षण सम्बन्धी प्रशिक्षण दिया जाता है।

(8) बहफसली एवं मिश्रित फसल प्रणाली – सन् 1967-68 में सिंचित क्षेत्र में खाद तथा नयी किस्म के बीजों से एक ही भूखण्ड में जल्दी पकने वाली कई फसलें उत्पन्न करने का प्रयोग 36.4 लाख हेक्टेयर भूमि पर आरम्भ किया गया था। वर्तमान में कुल सिंचित क्षेत्र के लगभग 35 प्रतिशत भाग में दो या अधिक फसलें बोयी जा रही हैं। वर्ष 1995-96 में लगभग 500 लाख हेक्टेयर भूमि पर दो या अधिक फसलें उत्पन्न की गयीं। वर्तमान समय में कुल सिंचित क्षेत्र के लगभग 20% भाग में दो या दो से अधिक फसलें बोयी जा रही हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
अर्थव्यवस्था की संरचना से आप क्या समझते हैं? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
अर्थव्यवस्था एक ऐसा तन्त्र है, जिसके माध्यम से लोगों का जीवन निर्वाह होता है। यह संस्थाओं का एक ढाँचा है, जिसके द्वारा समाज की सम्पूर्ण आर्थिक क्रियाओं का संचालन किया जाता है। आर्थिक क्रियाएँ वे मानवीय क्रियाएँ हैं, जिनके द्वारा मनुष्य धन अर्जित करने के उद्देश्य से उत्पादन क्रिया करता है अथवा स्वयं की सेवाएँ प्रदान करता है। अर्थव्यवस्था की संरचना आर्थिक क्रियाओं को सम्पन्न करने का मार्ग निर्धारित करती है। दूसरे शब्दों में, अर्थव्यवस्था की संरचना यह निर्धारित करती है कि देश में किन वस्तुओं का उत्पादन किया जाएगा और विभिन्न साधनों के मध्य इनका वितरण किस प्रकार किया जाएगा। परिवहन, वितरण, बैंकिंग एवं बीमा जैसी सेवाएँ कैसे प्रदान की जाएँगी; उत्पादित वस्तुओं का कितना भाग वर्तमान में उपयोग किया जाएगा और कितना भाग भविष्य के उपयोग के लिए संचित करके रखा जाएगा आदि। एक अर्थव्यवस्था की संरचना इन विभिन्न प्रकार की आर्थिक क्रियाओं का योग ही है।

अर्थव्यवस्था की मुख्य परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं –
(1) “अर्थव्यवस्था की संरचना एक ऐसा संगठन है, जिसके द्वारा सुलभ उत्पादने साधनों का प्रयोग करके मानव की आवश्यकताओं की पूर्ति की जाती है।”
(2) “एक अर्थव्यवस्था की संरचना जटिल मानव सम्बन्धों, जो वस्तुओं तथा सेवाओं की विभिन्न निजी तथा सार्वजनिक आवश्यकताओं को पूरा करने के उद्देश्य से सीमित साधनों के प्रयोग से सम्बन्धित है, को प्रकट करने वाला एक मॉडल है।”

उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि अर्थव्यवस्था की संरचना एक ओर आर्थिक क्रियाओं को योग है तो दूसरी ओर उत्पादकों के परस्पर सहयोग की प्रणाली भी है। वास्तव में विभिन्न उत्पादन क्रियाएँ परस्पर सम्बद्ध होती हैं और एक साधन की क्रिया दूसरे साधन की क्रिया पर निर्भर करती है। अत: इनमें परस्पर समन्वय एवं सहयोग होना आवश्यक है। उत्पादकों के परस्पर सहयोग की इस प्रणाली को ही अर्थव्यवस्था की संरचना कहते हैं; उदाहरण के लिए–एक वस्त्र-निर्माता को वस्त्र निर्मित करने के लिए अनेक वस्तुओं की आवश्यकता पड़ेगी। उसे सर्वप्रथम किसान से कपास प्राप्त करनी होगी तथा कपास की धुनाई, कताई व बुनाई के लिए मशीनों की व्यवस्था करनी होगी। मशीन निर्माता को लोहा व कोयला चाहिए, जो सम्बन्धित खानों से प्राप्त होगा।

इन साधनों को कारखाने तक लाने व ले जाने के लिए परिवहन के साधनों; यथा–रेल, मोटर, ट्रक, बैलगाड़ी आदि; की आवश्यकता होगी और इन सभी क्रियाओं के संचालन के लिए श्रमिकों की सेवाएँ चाहिए। इनमें से किसी भी साधन के अभाव में कपड़े का उत्पादन सम्भव नहीं है। इसे इस प्रकार भी समझाया जा सकता है यदि किसान कपास का उत्पादन बन्द कर दे अथवा मशीन निर्माता मशीन बनाना बन्द कर दे अथवा श्रमिक काम करना बन्द कर दे; तो कपड़े का उत्पादन नहीं होगा। इस प्रकार उत्पादन में उत्पादकों एवं उत्पत्ति के साधनों के बीच सहयोग एवं समन्वय होना आवश्यक है।

प्रश्न 2
भारतीय अर्थव्यवस्था की संरचना में कृषि के महत्त्व का परीक्षण कीजिए।
या
भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि के योगदान की विवेचना कीजिए। [2008, 12]
उत्तर
भारतीय अर्थव्यवस्था की संरचना में कृषि का अत्यधिक महत्त्व है। इसके महत्त्व का मूल्यांकन अग्रलिखित आधारों पर किया जा सकता है –

  1. राष्ट्रीय आय में योगदान – भारत की राष्ट्रीय आय में कृषि का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। भारत के सकल घरेलू उत्पाद (G.D.P) में कृषि का योगदान वर्ष 1960-61 में 62% थी, जो वर्ष 2001-02 में घटकर 26.5 प्रतिशत रह गया है। यद्यपि राष्ट्रीय आय में कृषि-क्षेत्र का प्रतिशत अंश घटता जा रहा है, परन्तु कृषि उत्पादन की दृष्टि से कृषि का योगदान बढ़ता जा रहा है।
  2. रोजगार की दृष्टि से – भारत की लगभग 64 प्रतिशत जनसंख्या कृषि-कार्य में लगी हुई है, जिन्हें कृषि से प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से रोजगार मिलता है। लगभग 20 करोड़ भारतीय कृषक और कृषि मजदूर भारतीय कृषि की रीढ़ हैं, जो कृषि-कार्य करते हैं तथा कृषि द्वारा ही अपनी आजीविका चलाते हैं।
  3. खाद्य – पदार्थों की प्राप्ति में योगदान – कृषि ने हमारे देश में खाद्यान्न की कमी को दूर करने में, अर्थात् आत्मनिर्भर बनाने में, महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। स्वतन्त्रता के पश्चात् से कृषि में आशातीत प्रगति हुई है। वार्षिक खाद्यान्न उत्पादन जो 50 वर्ष पहले मात्र 5 करोड़ 10 लाख टन था, बढ़कर अब 20 करोड़ 6 लाख मिलियन टन तक हो जाने का अनुमान है।
  4. औद्योगिक विकास में योगदान – भारतीय उद्योगों का आधार कृषि ही है। भारत के उद्योगों को कच्चा माल कृषि से ही प्राप्त होता है। सूती वस्त्र उद्योग, चीनी उद्योग, जूट उद्योग, चाय व कॉफी उद्योग आदि प्रत्यक्ष रूप से कृषि पर ही निर्भर हैं। इस प्रकार देश के औद्योगिक विकास में भी कृषि का महत्त्वपूर्ण योगदान है।

उपर्युक्त आधारों से स्पष्ट होता है कि कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ है। कृषि भारत के लिए ऐसी जीवन-पद्धति और परम्परा है जिसने भारत के लोगों के विचार, दृष्टिकोण, संस्कृति और आर्थिक जीवन को सदियों से सँवारा है; अतः कृषि देश के नियोजित सामाजिक-आर्थिक विकास की सभी कार्यनीतियों का मूल है। न केवल राष्ट्रीय स्तर पर अपितु घरेलू खाद्य-सुरक्षा के लिए, आत्मनिर्भरता प्राप्त करने तथा निर्धनता के स्तर में तेजी से कमी करने के लिए, आय और धन-सम्पदा के वितरण में साम्यं लाने के लिए भारतीय कृषि का अर्थव्यवस्था में महत्त्वपूर्ण योगदान है।

प्रश्न 3
भारत में चाय की खेती के लिए उत्तरदायी किन्हीं चार भौगोलिक कारकों का उल्लेख कीजिए।
या
असम में चाय की खेती अधिक क्यों होती है? इसके चार भौगोलिक कारण बताइए।
उत्तर
विस्तृत उत्तरीय प्रश्न 8 के अन्तर्गत अनुकूल भौगोलिक दशाएँ शीर्षक देखें।

प्रश्न 4
जूट की खेती पश्चिम बंगाल में अधिक होने के चार कारणों की विवेचना कीजिए।
उत्तर
विस्तृत उत्तरीय प्रश्न 7 के अन्तर्गत अनुकूल भौगोलिक दशाएँ शीर्षक देखें।

प्रश्न 5
हरित क्रान्ति क्या है? इसकी दो उपलब्धियों का उल्लेख कीजिए। [2013]
उत्तर
हरित क्रान्ति (Green Revolution) से अभिप्राय देश के सिंचित एवं असिंचित कृषि-क्षेत्रों में अधिक उपज देने वाली किस्मों को आधुनिक कृषि पद्धति से उगाकर तेजी से कृषि-उत्पादन में वृद्धि करना है। दूसरे शब्दों में, कृषि के क्षेत्रों में अपनाये जा रहे तकनीकी ज्ञान को ही ‘हरित क्रान्ति’ का नाम दिया गया है। देश में हरित क्रान्ति की शुरुआत सन् 1966-67 से हुई। हरित क्रान्ति शुरू करने का श्रेय नोबेल पुरस्कार विजेता प्रो० नॉरमन बोरलॉग को है। नयी कृषि तकनीक नवीनतम संसाधनों अर्थात् उर्वरकों, कीटनाशकों, कृषि-मशीनरी आदि पर आधारित है।
हरित क्रान्ति की दो उपलब्धियाँ निम्नलिखित हैं –

  1. हरित क्रान्ति के फलस्वरूप विगत तीन दशकों में खाद्यान्न उत्पादन में भारी वृद्धि हुई है जिससे देश खाद्यान्नों में आत्मनिर्भर हो सका है।
  2. हरित क्रान्ति के फलस्वरूप वाणिज्यिक फसलों में गन्ना, चाय, जूट तथा तिलहनों के उत्पादन में पर्याप्त सफलता मिली है।

प्रश्न 6
भारतीय कृषि की चार विशेषताएँ बताइए। (2014)
उत्तर
विस्तृत उत्तरीय प्रश्न 1 में देखें।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
भारतीयों के जीवन-निर्वाह का सबसे महत्त्वपूर्ण साधन क्या है?
उत्तर
भारतीय कृषि देश के निवासियों के जीवन-निर्वाह का सबसे महत्त्वपूर्ण साधन है।

प्रश्न 2
नयी कृषि नीति से क्या आशय है?
उत्तर
नयी कृषि नीति से आशय है-“उत्तम बीज, सिंचाई एवं कृषि-यन्त्रों आदि के प्रयोग से कृषि उत्पादन में क्रान्तिकारी परिवर्तन लाना’-इसे हरित क्रान्ति भी कहते हैं।

प्रश्न 3
भारत में कुल कितनी फसलें होती हैं? नाम लिखिए।
उत्तर
भारत में तीन फसलें होती हैं-

  1. रबी,
  2. खरीफ तथा
  3. जायद।

प्रश्न 4
रबी की फसल में कौन-कौन से अनाज पैदा किये जाते हैं?
उत्तर
रबी की फसल में गेहूँ, चना, जौ, मटर, सरसों, अलसी, राई आदि अनाज पैदा किये जाते हैं।

प्रश्न 5
भारत की व्यापारिक एवं मुद्रादायिनी फसलें लिखिए।
या
भारत की किन्हीं दो व्यापारिक फसलों का उल्लेख कीजिए। [2016]
उत्तर
गन्ना, कपास, जूट, नारियल, तिलहन, रबड़, गरम मसाले, काजू, चाय, कहवा आदि भारत की व्यापारिक एवं मुद्रादायिनी फसलें हैं।

प्रश्न 6.
रेशे वाली फसलों से क्या आशय है?
उत्तर
रेशे वाली फसलों के अन्तर्गत वे उपजें आती हैं जिनसे तन्तु या रेशा प्राप्त होता है। ये फसलें हैं-जूट, कपास, पटसन, मेस्टा और पटुआ आदि।

प्रश्न 7
तिलहन-फसलों के नाम लिखिए।
उत्तर
मूंगफली, तिल, सरसों, राई, अलसी, सोयाबीन आदि तिलहन-फसलें हैं।

प्रश्न 8
स्वर्णिम रेशा किसे कहते हैं?
उत्तर
व्यापारिक महत्त्व अधिक होने के कारण जूट को स्वर्णिम रेशा भी कहते हैं।

प्रश्न 9
कहवा कैसे प्राप्त किया जाता है?
उत्तर
कहवा एक वृक्ष के फलों को भूनकर तथा पीसकर तैयार किया जाता है।

प्रश्न 10
हरित क्रान्ति से क्या आशय है?
उत्तर
कृषि की नयी रणनीति (जिसमें उत्तम बीज, सिंचाई, कृषि-यन्त्रों, उर्वरकों, रोगनाशकों, कीटनाशकों आदि का वैज्ञानिक ढंग से प्रयोग किया जाता है) जिससे खाद्यान्नों तथा अन्य फसलों के उत्पादन में भारी वृद्धि हुई है, ‘हरित क्रान्ति’ कहते हैं।

प्रश्न 11
भारत में सर्वाधिक गेहूँ और चावल उत्पादक राज्यों के नाम लिखिए।
उत्तर
गेहूँ उत्पादक राज्य – उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा।
चावल उत्पादक राज्य – बंगाल, तमिलनाडु, आन्ध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़।

प्रश्न 12
चाय की कृषि के लिए किन्हीं दो उपयुक्त भौगोलिक दशाओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर

  1. पहाड़ी ढालों वाली मिट्टी तथा
  2. सस्ता मानवीय श्रम।

प्रश्न 13
भारत में चाय उत्पादक दो प्रमुख राज्यों के नाम लिखिए। [2014]
उत्तर

  1. असम तथा
  2. पश्चिम बंगाल चाय उत्पादक दो प्रमुख राज्य हैं।

प्रश्न 14
भारत के दो मुख्य कृषि-आधारित उद्योगों का उल्लेख कीजिए। [2014]
उत्तर

  1. कपास उद्योग तथा
  2. जूट उद्योग।

प्रश्न 15
भारतीय कृषि की दो विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर

  1. देश की लगभग 64% जनसंख्या प्रत्यक्ष रूप से कृषि पर आश्रित है।
  2. कृषि राष्ट्रीय आय का सबसे बड़ा स्रोत है।

प्रश्न 16
अन्नों का राजा किस फसल को कहा जाता है?
उत्तर
गेहूं को ‘अन्नराज’ कहा जाता है, क्योंकि यह अति पौष्टिक होता है।

प्रश्न 17
भारतीय व्यापारिक फसलों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
भारतीय व्यापारिक फसलों में गन्ना, कपास व जूट प्रमुख हैं।

प्रश्न 18
“भारत की अधिकांश जनसंख्या का व्यवसाय कृषि है।” कारण बताइए।
उत्तर
भारत गाँवों का देश है, जहाँ कृषि ही भरण-पोषण का मुख्य आधार है। अतः अधिकांश जनसंख्या का व्यवसाय कृषि है।

प्रश्न 19
भारत में कहवा किस क्षेत्र में पैदा किया जाता है ?
उत्तर
कहवा के मुख्य उत्पादक क्षेत्र हैं – कुर्ग, चिकमगलूर, कादूर, शिमोगा, हासन और मैसूर (कर्नाटक), नीलगिरि पहाड़ियाँ (तमिलनाडु), मालाबार और कोच्चि (केरल)।

प्रश्न 20
पश्चिम बंगाल की दो व्यापारिक फसलों का उल्लेख कीजिए। [2016]
उत्तर
पश्चिम बंगाल की दो व्यापारिक फसलें हैं – चाय व जूट।

प्रश्न 21
भारत के दो प्रमुख जूट उत्पादक राज्यों के नाम लिखिए। (2007)
उत्तर

  1. पश्चिम बंगाल तथा
  2. झारखण्ड।

प्रश्न 22
केरल की दो व्यापारिक फसलों का उल्लेख कीजिए। (2007)
उत्तर

  1. चाय तथा
  2. कहवा।

प्रश्न 23
भारत के दो प्रमुख गन्ना उत्पादक राज्यों के नाम लिखिए। [2009, 14]
उत्तर

  1. उत्तर प्रदेश तथा
  2. महाराष्ट्र।

प्रश्न 24
रबी, खरीफ तथा जायद की चार-चार फसलों का उल्लेख कीजिए। [2009]
या
कृषि के प्रकारों का उल्लेख कीजिए। [2012]
उत्तर
रबी – गेहूँ, जौ, चना तथा सरसों।
खरीफ – चावल, ज्वार, बाजरा तथा मक्का। जायद-सब्जियाँ, तरबूज, ककड़ी तथा खरबूजा।

बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1
बागानी खेती के रूप में की जाती है –
(क) कपास की पैदावार
(ख) गन्ने की पैदावार
(ग) चावल की पैदावार
(घ) चाय की पैदावार
उत्तर
(घ) चाय की पैदावार।

प्रश्न 2
कपास की खेती की जाती है –
(क) काली मिट्टी में
(ख) लैटेराइट मिट्टी में
(ग) बलुई मिट्टी में
(घ) दोमट मिट्टी में
उत्तर
(क) काली मिट्टी में

प्रश्न 3
गन्ना उत्पादक क्षेत्र निम्नलिखित में से किस राज्य में सर्वाधिक है? (2015)
(क) महाराष्ट्र
(ख) उत्तर प्रदेश
(ग) बिहार
(घ) पंजाब
उत्तर
(ख) उत्तर प्रदेश।

प्रश्न 4
निम्नलिखित में से सबसे अधिक रबड़-उत्पादक देश कौन-सा है?
(क) मलेशिया
(ख) भारत
(ग) ब्राजील
(घ) कनाडा
उत्तर
(क) मलेशिया।

प्रश्न 5
झूमिंग कृषि किस राज्य में की जाती है?
(क) मध्य प्रदेश
(ख) हरियाणा
(ग) असम (असम)
(घ) उत्तर प्रदेश
उत्तर
(ग) असम (असम)।

प्रश्न 6
भारत में सर्वाधिक चाय का उत्पादन किस राज्य में होता है? [2012, 13]
(क) असम (असम)
(ख) तमिलनाडु
(ग) पश्चिम बंगाल
(घ) उत्तराखण्ड
उत्तर
(क) असम (असम)।

प्रश्न 7
‘धान का कटोरा’ किसे कहते हैं? [2012]
(क) गंगा-सिन्धु मैदानी क्षेत्र
(ख) कृष्णा-गोदावरी डेल्टा
(ग) जम्मू-कश्मीर राज्य ।
(घ) केरल
उत्तर
(ख) कृष्णा-गोदावरी डेल्टा।

प्रश्न 8
सर्वाधिक तम्बाकू किस राज्य में पैदा होता है?
(क) ओडिशा
(ख) मध्य प्रदेश
(ग) अरुणाचल प्रदेश
(घ) आन्ध्र प्रदेश
उत्तर
(घ) आन्ध्र प्रदेश।

प्रश्न 9
निम्नलिखित कृषि फसलों में सर्वाधिक विदेशी मुद्रा किसके द्वारा अर्जित की जाती है?
(क) कहवा
(ख) चाय
(ग) जूट
(घ) कपास
उत्तर
(ख) चाय।

प्रश्न 10
निम्नलिखित में से कौन-सी पश्चिम बंगाल की प्रमुख फसल है? [2008, 10, 14, 16]
(क) गेहूँ
(ख) कपास
(ग) कहवा
(घ) जूट
उत्तर
(घ) जूट।

प्रश्न 11
निम्नलिखित में से गन्ने का सर्वाधिक उत्पादक देश कौन-सा है?
(क) क्यूबा
(ख) भारत
(ग) ब्राजील
(घ) चीन
उत्तर
(ग) ब्राजील।

प्रश्न 12
निम्नलिखित में से कौन-सी फसल उन क्षेत्रों में होती है, जहाँ 200 दिन पालारहित होते [2007]
(क) जूट
(ख) गेहूँ
(ग) कपास
(घ) धान
उत्तर
(ग) कपास।

प्रश्न 13
निम्नलिखित में से भारत का कौन-सा राज्य प्राकृतिक रबड़ का अधिकतम उत्पादक [2008]
(क) पुदुचेरी
(ख) कर्नाटक
(ग) केरल
(घ) तमिलनाडु
उत्तर
(ग) केरल।

प्रश्न 14
जूट मुख्यतः उगाया जाता है – [2010]
(क) पश्चिम बंगाल में
(ख) मध्य प्रदेश में
(ग) उत्तर प्रदेश में
(घ) उत्तराखण्ड में
उत्तर
(क) पश्चिम बंगाल में।

प्रश्न 15
निम्नलिखित में से कौन-सी रबी की फसल नहीं है? [2009]
(क) चावल
(ख) चना
(ग) गेहूँ।
(घ) जौ
उत्तर
(क) चावल।

प्रश्न 16
निम्नलिखित में से कौन-सा कहवा का प्रमुख उत्पादक राज्य है? [2011, 16]
(क) कर्नाटक
(ख) असम
(ग) ओडिशा
(घ) उत्तर प्रदेश
उत्तर
(क) कर्नाटक।

प्रधुन 17
निम्नलिखित में से कौन-सी फसल बागाती कृषि का उत्पाद नहीं है? [2011, 12]
(क) रबड़
(ख) गेहूँ
(ग) कहवा
(घ) नारियल
उत्तर
(ख) गेहूँ।

प्रश्न 18
निम्नलिखित में से कौन-सी असम की मुख्य फसल है? [2014]
(क) मक्का
(ख) कपास
(ग) गन्ना
(घ) चाय
उत्तर
(घ) चाय।

प्रश्न 19
निम्नलिखित में से कौन-सी पश्चिम बंगाल की प्रमुख फसल है? [2014, 16]
(क) गेहूँ
(ख) कपास
(ग) चावल
(घ) मक्का
उत्तरी
(ग) चावल।

प्रश्न 20
निम्नलिखित में से तम्बाकू का सबसे बड़ा उत्पादक कौन है? [2014, 16]
(क) ब्राजील
(ख) भारत
(ग) चीन
(घ) थाइलैण्ड
उत्तर
(ख) भारत।

प्रश्न 21
निम्नलिखित में से कौन-सी बागाती फसल है? [2016]
(क) गेहूँ
(ख) धान
(ग) मक्का
(घ) रबड़
उत्तर
(घ) रबड़।

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