UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 10 Resources

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Geography
Chapter Chapter 10
Chapter Name Resources (संसाधन)
Number of Questions Solved 27
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 10 Resources (संसाधन)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
संसाधन से आपका क्या अभिप्राय है? संसाधनों का वर्गीकरण कीजिए। [2009]
या
विभिन्न प्रकार के संसाधनों का वर्णन कीजिए।
या
टिप्पणी लिखिए–संसाधनों के प्रकार। [2010]
या
संसाधनों के वर्गीकरण के आधारों को बताइए। [2012]
उत्तर

संसाधन का अर्थ
Meaning of Resources

संसाधनों का अध्ययन आर्थिक भूगोल की एक महत्त्वपूर्ण कड़ी है। किसी देश या प्रदेश में स्थित संसाधन आर्थिक विकास को आधार एवं गति प्रदान करते हैं। संसाधन आधुनिक धात्विक सभ्यता में। आधार-स्तम्भ माने जाते हैं। मानव अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए उपयोगी संसाधनों का शोषण कर अपना जीवन-यापन करता है तथा उनसे अधिकाधिक उपयोगिता प्राप्त करने का भरसक प्रयास करता है। ‘संसाधन’ शब्द के अर्थ को निम्नलिखित रूपों में प्रस्तुत किया जा सकता है –

  1. जिस पर कोई सहायता, पोषण तथा आपूर्ति के लिए आश्रित हो;
  2. दिये गये साधनों के प्राप्त करने के ढंग एवं
  3. अनुकूल परिस्थितियों से लाभ उठाने की क्षमता।

स्पष्ट है कि कोई भी वह वस्तु जो मानव की कठिनाइयों को दूर करने में समर्थ हो अथवा वह उसे आवश्यकताओं की पूर्ति करके सन्तुष्ट करती हो अथवा किसी प्रकार की उपयोगिता प्रदान करती हो, संसाधन कहलाती है। यह वस्तु प्राकृतिक अथवा सांस्कृतिक या मानवीय किसी भी प्रकार की हो सकती है, परन्तु यहाँ संसाधनों से आशय प्राकृतिक संसाधनों से ही लगाया जाता है। भूगोलवेत्ताओं की कथन है। कि संसाधनों से अभिप्राय, उन सभी भौतिक तत्त्वों तथा मानवीय क्रियाओं से सम्बन्धित पर्यावरण से समझा जाता है जो भूतल से लगभग 20 किमी ऊपर तथा 7 किमी धरातल के नीचे तक पाये जाते हैं। स्थलाकृति, मिट्टी, जलवायु, वनस्पति, वन्य प्राणी, जलराशियाँ, खनिज पदार्थ आदि सभी को प्राकृतिक संसाधनों के अन्तर्गत सम्मिलित किया जाता है, परन्तु ये सभी अवयव तब तक संसाधन नहीं बन सकते जब तक मानव अपने तकनीकी ज्ञान के आधार पर इन्हें अपने लिए उपयोगी नहीं बना लेता। अत: कोई भी वह पदार्थ जो मानव के लिए उपयोगी हो अथवा प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से मानव की कुछ उपयोगिता करता हो, संसाधन कहलाता है।

कोई भी पदार्थ संसाधन तभी कहा जा सकता है जब वह मानव को किसी भी प्रकार की उपयोगिता प्रदान करता हो। इस तथ्य को दृष्टिगत करते हुए प्रसिद्ध भूगोलवेत्ता ई०डब्ल्यू० जिम्मरमैन (E.W. zimmermann) ने कहा है, “मानव के विभिन्न उद्देश्यों एवं आवश्यकताओं की पूर्ति अथवा किसी कठिनाई का निवारण करने वाले या निवारण में योग देने वाले स्रोत को संसाधन कहा जाता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि संसाधन होते नहीं, बल्कि उन्हें बनाया जाता है। जिस देश या समाज में जितना अधिक तकनीकी एवं वैज्ञानिक विकास होगा, वहाँ संसाधनों का विकास भी उतना ही अधिक होगा। अतः संसाधन मानव से सम्बन्धित क्रियाओं में उपयोगी होते हैं।

संसाधनों का वर्गीकरण
Classification of Resources
UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 10 Resources 1
मानवीय संसाधन – मानवीय शक्ति किसी भी देश के लिए बहुत ही आवश्यक साधन है। उसके द्वारा ही प्राकृतिक सम्पदा का दोहन करके आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विकास सम्भव होता है; अत: मानव संसाधन के विकास में मानव ही सबसे महत्त्वपूर्ण कारक है। मानवीय संसाधनों के तीन मुख्य पक्ष निम्नवत् हैं –

  1. जनसंख्या – इसमें न केवल मानवं की संख्या वरन् उसकी शारीरिक शक्ति, मानसिक क्षमता, स्वास्थ्य, वितरण, जनघनत्व, वृद्धि दर, स्त्री-पुरुष अनुपात, आयु-वर्ग, शिक्षा आदि भी सम्मिलित किये जाते हैं।
  2. जनता का सामाजिक संगठन – इस पक्ष के द्वारा संसाधन उपयोग प्रभावित होता है तथा समाज के सब वर्गों को उसकी उपलब्धता एवं उपयोग की सीमा निर्धारित होती है। ये प्रादेशिक आर्थिक उन्नति के लिए बनाये गये सामाजिक राजनीतिक संगठन होते हैं; जैसे- पूँजीवादी व्यवस्था, समाजवादी व्यवस्था और साम्यवादी व्यवस्था।
  3. संस्कृति की अवस्था – किसी प्रदेश में तकनीकी एवं विज्ञान का जो स्तर होता है उससे उस प्रदेश की संस्कृति की अवस्था निर्धारित होती है। आज संसार के विकसित और विकासशील राष्ट्रों में यही अन्तर चल रहा है।

प्राकृतिक संसाधनों को मुख्यत: निम्नलिखित दो भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है –
(1) भौतिक संसाधन (Physical Resources) – भौतिक संसाधनों के अन्तर्गत चट्टानें, धरातल, मिट्टी, खनिज सम्पदा व जलीय तत्त्वों आदि को सम्मिलित किया जाता है। ये सभी पदार्थ मानव को प्रकृति की ओर से नि:शुल्क उपहार के रूप में प्राप्त हुए हैं। इन पर सभी व्यक्तियों का समान अधिकार है, परन्तु विश्व के उन भागों में जहाँ मानव ने अत्यधिक तकनीकी ज्ञान प्राप्त कर लिया है, वहाँ इन संसाधनों का अधिक उपयोग किया जा सका है। इसके विपरीत जिन प्रदेशों से प्रकृति के साथ किसी भी प्रकार का सामंजस्य स्थापित नहीं किया गया है, वहाँ पर इनका उपयोग नहीं किया जा सका है। उदाहरण के लिए, अफ्रीका महाद्वीप में प्राकृतिक संसाधनों के पर्याप्त भण्डार भरे पड़े हैं, परन्तु तकनीकी ज्ञान के अभाव के कारण इनका उपयोग एवं उपभोग नहीं किया जा सका है।

इन संसाधनों के अन्तर्गत खनिज पदार्थ, जल, भूमि, वन, वायु, मिट्टी, धरातल आदि का स्थान मुख्य है। इनमें से कुछ संसाधन तो ऐसे हैं जो प्रत्येक स्थान पर उपलब्ध होते हैं, जिन्हें सर्वत्र सुलभ संसाधन कहते हैं; जैसे-वायु एवं धरातल। कुछ संसाधन ऐसे होते हैं जो कम ही स्थानों पर उपलब्ध होते हैं, अर्थात् धरातल पर समान रूप से विकसित नहीं हैं; जैसे-लौह-अयस्क, ताँबा, अभ्रक, मैंगनीज
आदि खनिज तथा कोयला एवं पेट्रोलियम आदि शक्ति संसाधन। इस प्रकार धरातल पर संसाधनों का वितरण समान नहीं है।

(2) जैविक संसाधन (Biotic Resources) – जैविक संसाधन मानव की आर्थिक क्रियाओं को लम्बे समय तक प्रभावित करते हैं। इन संसाधनों में कमी अथवा वृद्धि हो सकती है। वनस्पति की उत्पत्ति तथा पशुपालन जैविक संसाधनों के अन्तर्गत आते हैं। इन संसाधनों पर मानवीय क्रियाकलापों का प्रभाव तो पड़ता है, परन्तु इनके स्वरूप में कोई परिवर्तन नहीं होता। वनों के शोषण पर वर्षा तथा तापमान के प्रभाव के कारण प्राकृतिक वनस्पति स्वत: ही उग आती है। जैविक संसाधन गतिशील होते हैं। इन संसाधनों का उपयोग करने पर इनका कुछ भाग शेष रह जाता है, जिससे वे पुन: अपना रूप धारण कर लेते हैं। मत्स्य उत्पादक क्षेत्रों से सभी मछलियों को पकड़ने के उपरान्त भी वहाँ मछलियों की उत्पत्ति धीरे-धीरे होती रहती है। विश्व में जैविक संसाधनों के वितरण में भी भिन्नता पायी जाती है। शीत कटिबन्धीय प्रदेशों में पायी जाने वाली प्राकृतिक वनस्पति तथा मरुस्थलीय वनस्पति में अन्तर पाया जाता है। इन संसाधनों में कठोरता कम होती है। कभी-कभी जैविक संसाधनों का पूर्णतः उपयोग कर लेने पर इनकी मात्रा समाप्त हो जाती है।

उपयोगिता के आधार पर संसाधनों का वर्गीकरण
Classification of Resources on the Basis of Utility

उपयोगिता के आधार पर संसाधनों को निम्नलिखित दो वर्गों में वर्गीकृत किया जा सकता है –
(1) क्षयी संसाधन – वे संसाधन जिनका उपयोग मानव की इच्छा-शक्ति पर निर्भर रहता है, क्षयी संसाधन होते हैं। कभी-कभी अधिकतम उपयोग करने से यह संसाधन समाप्त भी हो जाते हैं। इन्हें निम्नलिखित दो भागों में विभाजित किया जा सकता है –

  1. नव्यकरणीय संसाधन – ग्लोब पर कुछ संसाधन ऐसी प्रकृति के पाये जाते हैं कि उनका अधिकतम उपयोग किया जा सकता है। ऐसा मानव के तकनीकी ज्ञान पर निर्भर करता है। ये संसाधन पुनः विकसित हो जाते हैं अथवा उनका नवीनीकरण करने के उपरान्त उन्हें उपयोग में लाया जा सकता है। जलवायु, सौर ऊर्जा, जल विद्युत शक्ति आदि इसी प्रकार के संसाधंन हैं।
  2. अनव्यकरणीय संसाधन – इस प्रकार के संसाधन एक बार उपयोग करने के उपरान्त सदैव के लिए समाप्त हो जाते हैं अथवा वे नष्ट हो जाते हैं। कोयला, खनिज तेल, अनेक प्रकार के धात्विक खनिज आदि इन संसाधनों के प्रमुख उदाहरण हैं।

(2) अक्षयी संसाधन – ये कभी समाप्त न होने वाले संसाधन हैं। इन्हें बार-बार उपयोग किया जाता रहता है। एक बार उपयोग करने के बाद वे स्वयं विकसित हो जाते हैं तथा उनका पुन: उपयोग कर लिया जाता है। यह प्रक्रिया निरन्तर जारी रहती है, परन्तु इनका पुनः उत्पादन रासायनिक एवं भौतिक उपकरणों की सहायता से किया जा सकता है। वनस्पति, मिट्टी, जल, वायु, सौर ऊर्जा, वन्य प्राणी, मानवआदि कभी न समाप्त होने वाले संसाधनों की श्रेणी में आते हैं। इस प्रकार ये संसाधन मानव उपभोग के लिए असीम एवं चिरस्थायी संसाधन हैं।

प्रश्न 2
संसाधनों के संरक्षण की आवश्यकता की विवेचना कीजिए।
या
प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण की आवश्यकता का वर्णन कीजिए।
या
‘संसाधन संरक्षण से आप क्या समझते हैं?’ इसके लिए उपयुक्त उपाय समझाइए। (2011)
उत्तर

संसाधनों के संरक्षण का अर्थ एवं आवश्यकता
Meaning and Need of Conservation of Resources

धरातल पर संसाधन सीमित ही उपलब्ध हैं; अतः उनका अधिकतम एवं सुरक्षित उपयोग ही ‘संसाधन संरक्षण’ कहलाता है। दूसरे शब्दों में, “प्राकृतिक संसाधनों का कम-से-कम मात्रा में अधिकतम उपयोग ही संसाधन संरक्षण कहलाता है।” संसाधनों के संरक्षण की आवश्यकता 20वीं शताब्दी की देन है, क्योंकि इस सदी में संसाधनों का बड़ी निर्ममता से उपयोग किया गया है। विज्ञान एवं तकनीकी विकास के साथ-साथ संसाधनों का दोहन तीव्र गति से किया गया है जिस कारण उनमें से कुछ संसाधन समाप्ति की,ओर अग्रसर हुए हैं। अत: संसाधनों को सुरक्षित बनाये रखने के लिए संसाधनों के संरक्षण की भावना बलवती हुई है। पिछली दो शताब्दियों से विश्व पटल पर आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक क्षेत्र में क्रान्तिकारी परिवर्तन दिखाई पड़ते हैं, जिसके अग्रलिखित कारण उत्तरदायी रहे हैं –

  1. कुछ देशों में तीव्र जनसंख्या-वृद्धि का होना।
  2. तकनीकी एवं औद्योगिक क्रान्ति के कारण औद्योगिक उत्पादों में तीव्र वृद्धि का होना।
  3. मानव का जीवन के प्रति भौतिकवादी दृष्टिकोण पनपना।

उपर्युक्त कारणों के फलस्वरूप संसाधनों का बड़े ही अविवेकपूर्ण ढंग से दोहन किया गया है। इसी कारण बहुत से जैविक एवं अजैविक संसाधनों को तीव्र गति से ह्रास होता जा रहा है अथवा वे पूर्ण । रूप से विनष्ट हो गये हैं। इसके फलस्वरूप इस तथ्य को बल मिलने लगा है कि संसाधनों का अधिकतम उपयोग मानवहित में नहीं हो सकेगा। अत: संसाधनों का मितव्ययिता के साथ सदुपयोग किया जाए तथा जो संसाधन अल्पमात्रा में शेष रह गये हैं, उनका संरक्षण अवश्य ही किया जाए जिससे भावी जनसंख्या को भी ये संसाधन मिल सकें। इस सम्बन्ध में सिरीयसी वाण्ट्रप ने कहा है कि “संसाधनों का उपयोग कब, किस प्रकार होगा, इसका विश्लेषण करते हुए उपयोग को समय के अनुसार निर्धारित किया जाना चाहिए।’

वर्तमान समय में विश्व की जनसंख्या में द्रुत गति से वृद्धि होती जा रही है जिससे उसकी संसाधनों की आवश्यकता में भी वृद्धि हुई है तथा संसाधनों का अविवेकपूर्ण ढंग से विनाश किया जाने लगा है। इस पर तत्काल रोक लगाना आवश्यक है, अन्यथा ये संसाधन किसी भी समय समाप्त हो सकते हैं। इस प्रकार जनसंख्या की अपरिमित वृद्धि, उत्पादन प्रक्रिया में तकनीकी विकास से क्रान्ति आने तथा मानव का जीवन-स्तर उच्च होने से संसाधनों में कमी आयी है। इससे मानवीय क्रियाकलापों एवं प्रकृति में असन्तुलन होने लगा है। अतः मानवीय क्रियाकलापों एवं उपभोग के मध्य अनुकूलन एवं सामंजस्य स्थापित किया जाना चाहिए जो संसाधनों के संरक्षण का मूल उद्देश्य है।

संसाधन संरक्षण के उपाय
Remedies of Conservation of Resources

  1. किसी भी राष्ट्र के कुल संसाधनों की संख्या, मात्रा, प्रकार, गुण एवं उपलब्धि के विषय में पूर्ण जानकारी होना अति आवश्यक है, जिससे आवश्यकतानुसार उनका व्यावहारिक उपयोग किया जा सके।
  2. संसाधनों का अविवेकपूर्ण उपयोग नहीं किया जाना चाहिए, बल्कि सम्भाव्यता के आधार पर ही उनका उपयोग निर्धारित किया जाना चाहिए।
  3. जो संसाधन शीघ्र समाप्त होने वाले हैं, उनका उपयोग अधिकतम उपयोगिता प्रदान करने वाले कार्यों में ही किया जाना चाहिए।
  4. संसाधनों की वृद्धि एवं गुणवत्ता बनाये रखने के लिए उनकी विशेषताओं को वैज्ञानिक-तकनीकी ज्ञान के सहारे विकसित किया जाना चाहिए।
  5. जो संसाधन अधिक मात्रा में उपलब्ध हैं, उनका उपयोग अधिकतम मात्रा में करना चाहिए।
  6. संसाधनों की कमी को दूर करने के लिए उनके सही विकल्पों को खोज लिया जाना चाहिए, जिससे अधिक समय तक उनकी उपलब्धता बनी रह सके।
  7. संसाधनों के उपयोग की ऐसी पद्धतियाँ एवं प्रणालियाँ विकसित की जानी चाहिए कि राष्ट्र सदैव के लिए आत्मनिर्भर बना रह सके।
  8. राष्ट्र के संसाधनों का सर्वेक्षण करा लिया जाना चाहिए जिससे उनके उपभोग की मात्रा सुनिश्चित की जा सके।

इस प्रकार उपर्युक्त विवरण से निष्कर्ष निकलता है कि देश के प्रत्येक नागरिक को वहाँ उपलब्ध संसाधनों को अमूल्य निधि समझना चाहिए। इन संसाधनों का भविष्य के लिए संरक्षण करना अति
आवश्यक है, जिससे कि वर्तमान एवं भावी सन्तति उनसे लाभान्वित हो सके तथा धीरे-धीरे अधिकतम उपयोगिता प्राप्त होती रहे।

प्रश्न 3
विश्व में लकड़ी काटने का उद्योग (Lumbering) किन भौगोलिक परिस्थितियों पर आधारित है? लकड़ी काटने एवं चीरने वाले प्रमुख देशों का वर्णन कीजिए।
उत्तर

लकड़ी काटने Lumbering

वन- व्यवसाय का महत्त्वपूर्ण उपयोग लकड़ी काटने एवं चीरने का है। लकड़ी काटना एवं उनकी चिराई एक प्राथमिक व्यवसाय है। वनों से कठोर एवं कोमल दोनों प्रकार की लकड़ी काटी जाती है, जिसका उपयोग निम्नवत् किया जाता है –

  1. ईंधन में 40 प्रतिशत।
  2. इमारती कार्यों में- भवन-निर्माण, पुल निर्माण, नावें, रेल के डिब्बे एवं स्लीपर, मोटर, टूक, फर्नीचर तथा पैकिंग आदि कार्यों में 40 प्रतिशत।
  3. निर्माण उद्योगों में- कागज की लुग्दी, दियासलाई, कृत्रिम रेशम आदि में-10 प्रतिशत।
  4. अन्य फुटकर कार्य- बल्लियों, सीढ़ियों, खानों आदि में-10 प्रतिशत।
    जेड० एस० हॉक ने विश्व में प्राप्त लकड़ी को निम्नलिखित तीन भागों में बाँटा है –

    • शीत कटिबन्धीय वनों (कोणधारी) से (कोमल लकड़ी)-35 प्रतिशत;
    • शीतोष्ण कटिबन्धीय वनों से (मिश्रित लकड़ी)-49 प्रतिशत एवं
    • उष्ण कटिबन्धीय वनों से (कठोर लकड़ी)-16 प्रतिशत।

लकड़ी काटने के लिए आवश्यक भौगोलिक परिस्थितियाँ
Necessary Geographical Conditions for Lumbering

  1. उत्तम लकड़ी की प्राप्ति – लकड़ी काटने एवं चीरने के लिए काफी मात्रा में कठोर एवं कोमल लकड़ी के वन होने चाहिए। कठोर लकड़ी में महोगनी, सीडार एवं टीक तथा कोमल लकड़ी में देवदार, कैल, फर, चीड़ एवं यूकेलिप्टस प्रमुख हैं।
  2. सस्ते एवं कुशल श्रमिक – वृक्षों को सघन वनों से काटने के लिए काफी संख्या में सस्ते एवं कुशल श्रमिकों की उपलब्धता अति आवश्यक है। साइबेरिया एवं कनाडा में टैगा वनों की कटाई के लिए सस्ते एवं पर्याप्त श्रमिक मिल जाते हैं जो ग्रीष्म ऋतु में कृषि-कार्य करते हैं एवं शीत ऋतु में हिम अधिक पड़ने के कारण वनों को काटने का कार्य करते हैं।
  3. यातायात एवं परिवहन साधनों की सुलभता – लकड़ी के बड़े-बड़े लट्ठों को बहाकर ले जाने के लिए जल-परिवहन सबसे सस्ता साधन है तथा अन्य साधनों में रेल, मोटर आदि का होना अति आवश्यक है। म्यांमार एवं थाईलैण्ड में यह कार्य हाथियों द्वारा किया जाता है।
  4. जल-विद्युत शक्ति का विकास – कारखानों को चलाने के लिए जल-विद्युत शक्ति सबसे सस्ती पड़ती है। इस शक्ति को प्राप्त करने के लिए नदियों के मार्ग में कृत्रिम जल-प्रपात या बाँध बनाये जा सकते हैं।
  5. बाजार की समीपता-वनों के समीपवर्ती प्रदेशों में लकड़ी का उपभोग करने के लिए कागज़ मिल, दियासलाई, पैकिंग, कृत्रिम रेशम आदि उद्योगों की स्थापना की जानी अति आवश्यक है।
  6. सघन वनों का न होना- वने सघन नहीं होने चाहिए, अन्यथा लकड़ी काटना बड़ा ही कठिन हो जाता है। विरल वनों से लकड़ी सावधानीपूर्वक काटी जा सकती है।

सम्पूर्ण विश्व में 425 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्रफल पर वन फैले हैं, जिसमें से लगभग आधे भाग पर उष्ण कटिबन्धीय कठोर, मिश्रित एवं अवर्गीकृत वनों का विस्तार है। शंकुधारी या टैगो वनस्पति का विस्तार 136 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र पर है, जब कि शीतोष्ण कटिबन्धीय कठोर लकड़ी के वनों का विस्तार केवल 66 करोड़ हेक्टेयर भूमि पर है। विश्व में लकड़ी का उत्पादन करने वाले देशों में संयुक्त राज्य अमेरिका औद्योगिक लकड़ी का 76% भाग पूरा करता है।

लकड़ी का उत्पादन करने वाले प्रमुख देश
Main Wood Producing Countries

समशीतोष्ण कटिबन्धीय प्रदेशों में लकड़ी काटने एवं चीरने का व्यवसाय प्रमुख है। इन देशों में संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा, अलास्का, रूस, नार्वे, स्वीडन, फिनलैण्ड, जापान, चीन, म्यांमार एवं भारत आदि देश मुख्य हैं।
(1) संयुक्त राज्य अमेरिका – इस देश का लकड़ी काटने एवं चीरने में महत्त्वपूर्ण स्थान है। यहाँ पर लगभग एक-तिहाई भूमि पर वन-सम्पदा फैली है जिनमें से दो-तिहाई क्षेत्रफल व्यापारिक लकड़ियों का है। इस देश में कोमल लकड़ी के वनों का विस्तार अधिक है। पाइन, डगलस, फर, येलोपाइन, स्पूस आदि वृक्ष महत्त्वपूर्ण हैं जिनसे लुग्दी, कागज, गत्ता, बिरोजा, तारपीन का तेल एवं अखबारी कागज बनाये जाते हैं। अमेरिका में उत्तरी-पूर्वी क्षेत्र, महान् झील क्षेत्र, अप्लेशियन पर्वतीय क्षेत्र, मध्यवर्ती क्षेत्र, रॉकी पर्वतीय क्षेत्र एवं पश्चिमी तटीय क्षेत्र लकड़ी काटने एवं चीरने में मुख्य स्थान रखते हैं।

(2) कनाडा – इस देश के 45% भाग पर वन-सम्पदा फैली है। यहाँ कोमल लकड़ी के वनों का विस्तार अधिक है। ब्रिटिश कोलम्बिया, उत्तरी प्रेयरी प्रान्त, ओण्टेरियो, क्यूबेक एवं न्यू ब्रिन्सविक मुख्य लकड़ी उत्पादक क्षेत्र हैं। कुल वन क्षेत्रों का 51% भाग व्यापारिक है। यहाँ 65% कोमल, 24% मिश्रित एवं 11% कठोर लकड़ी के वन हैं। इस देश में 150 से भी अधिक किस्मों की लकड़ी पायी जाती है जिनमें नुकीली पत्ती वाले वृक्ष 47 प्रकार के हैं। स्यूस, बालसम, पाइन, डगलस, फर, हेमलॉक, सीडार, मैपिल, बीच, रेड पाइन आदि मुख्य वृक्ष हैं। इनसे लकड़ी चीरने, कागज एवं लुग्दी बनाने, फर्नीचर, वस्त्रों के कृत्रिम धागे एवं प्लास्टिक बनायी जाती है। वन उत्पादन का 95% भाग लट्ठों, लुग्दी एवं ईंधन का होता है। कुल उत्पादन का 10% भाग निर्यात कर दिया जाता है। लकड़ी का कुल उत्पादन 402 लाख घन मीटर है। जिसमें 9 लाख घन मीटर कठोर एवं 393 लाख घन मीटर कोमल लकड़ी है।।

(3) रूस – रूस में 91 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र पर वन-सम्पदा का विस्तार है। यहाँ पर शंकुल वृक्षों की अधिकता है जिनमें स्पूस, एल्डर, विलो, लिंडन, हार्डब्रीम, फर, लार्च, सीडार एवं पाइन मुख्य हैं। इनकी लकड़ी कागज एवं लुग्दी बनाने के काम आती है। शंकुल वनों का विस्तार 60° उत्तरी अक्षांश से टुण्ड्रा प्रदेश तक है। यह वन क्षेत्र बाल्टिक सागर से पूर्व में ओखोटस्क सागर तक विस्तृत है। ओनेगा, लेनिनग्राड, मरमास्क, मेजेनई, गरका एवं आरकेंजल लकड़ी की चिराई के प्रमुख केन्द्र हैं। रूस के समस्त वन भाग का 80% एशियाई रूस में है। साइबेरिया के इस वन प्रदेश की सबसे बड़ी सुविधा ट्रांस-साइबेरियन रेलवे है। विश्व लकड़ी भण्डार का 21% भाग साइबेरिया से प्राप्त होता है।

(4) यूरोपीय देश – यूरोप महाद्वीप का एक-तिहाई भाग वनों से आच्छादित है, जहाँ विश्व की 10% लकड़ी प्राप्त होती है। इनमें कोमल लकड़ी की अधिकता है। इसका विस्तार 50° से 70° उत्तरी अक्षांशों तक है, जो नार्वे, स्वीडन, फिनलैण्ड होती हुई उत्तरी रूस तक चली गयी है। लकड़ी में निम्नलिखित देश प्रमुख उत्पादक हैं –

  1. नार्वे – इस देश के 25% भाग पर वन फैले हैं। उत्तरी एवं दक्षिणी तट को छोड़कर शेष पर्वतीय ढालों एवं नदी घाटियों में वनों का विस्तार पाया जाता है। यहाँ पर पाये जाने वाले प्रमुख वृक्षों में फर 50%, चीड़ 34% तथा शेष पर बीच एवं ओक आदि के वृक्ष हैं। यहाँ अखबारी कागज, सैलूलोज, गत्ता, दियासलाई तथा उत्तम किस्म का कागज बनाया जाता है।
  2. स्वीडन – यहाँ 60% भाग पर वन-सम्पदा फैली है। उत्तर एवं मध्य में कोमल तथा दक्षिण में कठोर लकड़ी के वनों की अधिकता है। यहाँ पर पाइन, स्पूस, फर आदि वृक्षों की प्रधानता है। इस देश में कागज, लुग्दी, प्लाईवुड एवं दियासलाई बनायी जाती है। निर्यात व्यापार में भी इन्हीं वृक्षों की लकड़ियों की अधिकता है।
  3. फिनलैण्ड – फिनलैण्ड के 70% भाग पर वन-सम्पदा का विस्तार है। यहाँ स्पूस, पाइन एवं फर वृक्षों की अधिकता है। यहाँ के निर्यात में 88% भाग वन वस्तुओं का है। चीरी हुई लकड़ी की वस्तुएँ, प्लाईवुड, अखबारी कागज तथा लकड़ी का रेशा यहाँ भी मुख्य उत्पादक वस्तुएँ हैं। तटीय भाग में लकड़ी चीरने के केन्द्र स्थापित हुए हैं।

मध्य यूरोपीय देशों में फ्रांस–22%, जर्मनी-21%, स्विट्जरलैण्ड-25% तथा जर्मनी में 27% भाग पर वन फैले हैं, परन्तु सभी देशों में लकड़ी का अभाव पाया जाता है। इन देशों में केवल अपने उपभोग के लिए ही लकड़ी का उत्पादन किया जाता है।

(5) एशियाई देश – एशिया महाद्वीप में जापान, चीन, म्यांमार एवं भारत प्रमुख लकड़ी उत्पादक देश हैं, जिनका विवरण निम्नवत् है –

  1. जापान – इस देश के लगभग 50% भाग पर वन फैले हैं। मध्य होकेड़ो एवं हाँशू के भीतरी पर्वतीय क्षेत्रों में इनका विस्तार है। फर, स्पूस, हिकोरी, सुगी-नुकीली पत्ती वाले; मैपिल, बूना, पॉपलर, ओक-चौड़ी पत्ती के वृक्ष महत्त्वपूर्ण हैं। शंकुल वनों का विस्तार 60,000 वर्ग किमी क्षेत्र पर है। इन वृक्षों को चीरकर विभिन्न वस्तुएँ तथा कागज उद्योग के लिए लुग्दी बनायी जाती है।
  2. चीन – चीन में केवल 40% भाग पर ही वन छाये हुए हैं। जनसंख्या में भारी वृद्धि के कारण कृषि के विकास के लिए भारी पैमाने पर वनों का विनाश किया गया है। केवल पश्चिमी एवं दक्षिणी पहाड़ी भागों पर ही वन मिलते हैं। फर, स्थूस, हेमलॉक, ओक, चेस्टनट आदि मुख्य वृक्ष हैं।
  3. म्यांमार – यहाँ 200 सेमी से अधिक वर्षा वाले भागों में सदापर्णी एवं 100 से 200 सेमी वर्षा वाले भागों में पर्णपाती मानसूनी वन मिलते हैं। इरावदी नदी के बेसिन में विश्वविख्यात सागौन के वृक्ष पाये जाते हैं। यहाँ से लकड़ी काटकर हाथियों द्वारा ढोयी जाती है। रंगून नगर से सागौन की लकड़ी विदेशों को निर्यात की जाती है।
  4. भारत – भारत में 200 सेमी से अधिक वर्षा वाले भागों में, प्रमुख रूप से असम के पहाड़ी ढालों एवं पश्चिमी घाट पर, सदापर्णी वन मिलते हैं। 100 से 200 सेमी वर्षा वाले भागों में मानसूनी वन मिलते हैं जिनकी लकड़ी फर्नीचर एवं इमारती कार्यों में प्रयुक्त की जाती है। मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र एवं छोटा-नागपुर का पठार इन लकड़ियों के लिए प्रसिद्ध हैं। रेल विभाग द्वारा यहीं से लकड़ी डिब्बों एवं स्लीपरों के लिए मँगायी जाती है। पर्वतीय क्षेत्रों से ईंधन की लकड़ी प्राप्त होती है। यहीं से कुछ कोमल प्रकार की लकड़ी कागज एवं दियासलाई बनाने में प्रयुक्त की जाती है।

(6) ऑस्ट्रेलिया – इस महाद्वीप के केवल 4% भाग पर वन मिलते हैं। वनों का 50% भाग शीतोष्ण कटिबन्धीय है। कॉरीगम वृक्ष मुख्य है जो 50 मीटर से 90 मीटर तक ऊँचा होता है। दक्षिणी-पूर्वी ऑस्ट्रेलिया एवं तस्मानिया द्वीप में वन अधिक मिलते हैं। आर्द्र भागों में यूकेलिप्टस के वृक्ष बहुतायत में मिलते हैं।

न्यूजीलैण्ड द्वीप का 20% भाग वनों से आच्छादित है। यहाँ के प्रमुख वृक्ष कॉरीगम, पाइन, टोटोरा, तवा एवं बीच हैं।
उपर्युक्त आधार पर विश्व में लकड़ी की कटाई एवं चिराई का कार्य निम्नलिखित प्रदेशों में उल्लेखनीय है –

  1. मानसूनी प्रदेशों के पतझड़ वाले वनों में साल, सागौन, शीशम, साखू आदि सुन्दर एवं टिकाऊ लकड़ी के वृक्ष भारी संख्या में पाये जाते हैं।
  2. सामान्य गर्मी वाले समशीतोष्ण प्रदेशों में यूकेलिप्टस, ओक आदि दीमकों से नष्ट न होने वाले वृक्ष मिलते हैं।
  3. सामान्य शीत वाले समशीतोष्ण प्रदेशों में टिकाऊ लकड़ी के वृक्ष-मैपिल, बर्च, बीच, बलूत, पोपलर आदि वृक्षों की अधिकता होती है।
  4. शंकुल वनों में कागज की लुग्दी, कागज, दियासलाई, तारपीन का तेल आदि के लिए उपयुक्त चीड़, देवदार, स्पूस, फर आदि कोमल लकड़ी के वृक्ष बहुतायत में पाये जाते हैं।
  5. भूमध्यरेखीय वनों में जहाँ सघनता कम है एवं नदियाँ उपलब्ध हैं, वहाँ महोगनी, एबोनी, रोजवुड, ग्रीनवुड, हार्डवुड, रबड़ आदि की मजबूत एवं टिकाऊ लकड़ियों के वृक्ष मिलते हैं।

यह बात विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है कि दक्षिणी गोलार्द्ध में वन क्षेत्रफल उत्तरी गोलार्द्ध की अपेक्षा न केवल कम है, बल्कि ये क्षेत्र विश्व के औद्योगिक क्षेत्रों एवं बाजारों से दूर पड़ते हैं। अत: इन प्रदेशों की लकड़ियाँ बिना काटे ही रह जाती हैं। इसीलिए आर्थिक दृष्टिकोण से इन वनों की लकड़ी महत्त्व नहीं रखती।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
क्षयी और अक्षयी संसाधन से क्या अभिप्राय है?
उत्तर
पृथ्वी से प्राप्त विभिन्न प्रकार की धातुएँ खनिज क्षयी संसाधनों की श्रेणी में आती हैं। वास्तव में खनिज भण्डार इतनी तेजी से घट रहे हैं कि भविष्य में उनके अभाव से एक विकट समस्या उत्पन्न हो जाएगी। अतः ऐसे खनिज पदार्थ जो धीरे-धीरे कम हो रहे हैं, उन्हें क्षयी संसाधन कहा जाता है। इसके विपरीत वे पदार्थ जो बहुत अधिक समय तक रहेंगे; जैसे-सौर ऊर्जा, वायु, जल, वनस्पति, जीव-जन्तु तथा मानव आदि को अक्षयी संसाधन कहा जाता है।

प्रश्न 2
नव्यकरणीय एवं अनव्यकरणीय संसाधनों के बारे में आप क्या जानते हैं?
या
नव्यकरणीय एवं अनव्यकरणीय संसाधनों के बीच विभेद कीजिए। [2011, 13, 16]
उत्तर
ऐसे संसाधन जो एक बार प्रयोग करने के पश्चात् फिर प्रयोग किये जा सकें, नव्यकरणीय संसाधन कहे जाते हैं; जैसे-जल, पवन, सूर्य-ऊर्जा आदि ऐसे संसाधन हैं जो सतत उपयोग करने पर फिर उत्पन्न होते रहते हैं; परन्तु कुछ संसाधन ऐसे होते हैं जिसका एक बार उपयोग करने पर फिर उन्हें प्रयोग में नहीं लाया जा सकता; जैसे-कोयला। ऐसे संसाधनों को अनव्यकरणीय संसाधन कहा जाता है।

प्रश्न 3
संसाधनों के ‘संरक्षण’ पर टिप्पणी लिखिए। [2010]
उत्तर
संसाधनों के संरक्षण से अभिप्राय यह है कि जिन पदार्थों व वस्तुओं के प्रयोग के विषय में मानव को ज्ञान है, उनसे वह अधिकाधिक उपयोगिता हासिल करे। इस दिशा में संसाधनों का ऐसा प्रबन्ध किया जाए, जिससे वे अधिक लम्बे समय तक अधिकाधिक मनुष्यों की अधिकतम आवश्यकता की पूर्ति कर सकें। एली के अनुसार, “संरक्षण वर्तमान पीढ़ी या भावी पीढ़ी के लिए त्याग है।” डॉ० मैकनाल के अनुसार, “संरक्षण का आशय किसी संसाधन का ऐसा उपयोग है जिससे मनुष्य जाति की आवश्यकताओं की पूर्ति सर्वोत्तम रीति से हो सके।” संरक्षण का महत्त्व निम्नलिखित रूप से स्पष्ट होता है –

  1. बचत की भावना का विकास होता है।
  2. संरक्षण से बरबादी या दुरुपयोग को रोका जा सकता है।
  3. विवेकपूर्ण उपयोग भविष्य के लिए संसाधनों में बचत को प्रोत्साहित करता है।
  4. भविष्य में संसाधनों के नष्ट होने पर गहरा संकट केवल संरक्षण द्वारा ही दूर किया जा सकता है।
  5. पारिस्थितिक सन्तुलन को बनाये रखने के लिए भी संरक्षण आवश्यक है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
संसाधन से क्या तात्पर्य है? (2007)
या
संसाधन को परिभाषित कीजिए। [2012, 16]
उत्तर
कोई भी वह पदार्थ जो मानव के लिए उपयोगी हो अथवा प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से मानव की कुछ उपयोगिता करता हो, संसाधन कहलाता है।

प्रश्न 2
प्राकृतिक संसाधन किन्हें कहते हैं? [2007, 08, 10, 11, 16]
या
प्राकृतिक संसाधन को उदाहरण सहित परिभाषित कीजिए। [2014, 16]
उत्तर
वे संसाधन जो प्रकृति द्वारा मनुष्य को नि:शुल्क प्रदान किये जाते हैं और जो मानव के लिए उपयोगी होते हैं, प्राकृतिक संसाधन कहलाते हैं; जैसे-वायु, जल, सौर ऊर्जा, खनिज, जीव-जन्तु आदि।

प्रश्न 3
क्या मानव स्वयं भी एक संसाधन है?
उत्तर
वास्तव में मानव स्वयं में एक बहुत बड़ा संसाधन है, जो प्रकृति की विभिन्न वस्तुओं को अपने ज्ञान और क्षमता के द्वारा उपयोगी बनाता है।

प्रश्न 4
विश्व के कुछ प्रमुख संसाधनों के नाम बताइए।
उत्तर
विश्व के कुछ प्रमुख संसाधन हैं- मानव, कोयला, खनिज तेल, जल, खनिज, पशु-सम्पदा, मत्स्य आदि।

प्रश्न 5
वर्तमान काल में ऊर्जा का महत्त्वपूर्ण स्रोत क्या है?
उत्तर
वर्तमान काल में ऊर्जा का महत्त्वपूर्ण स्रोत ‘खनिज तेल है, क्योंकि ऊर्जा के अतिरिक्त खनिज तेल से 8,000 अन्य प्रकार की उपवस्तुएँ भी प्राप्त की जाती हैं।

प्रश्न 6
संसार के चार प्रमुख मछली उत्पादक देशों के नाम लिखिए।
उत्तर

  1. चीन,
  2. जापान,
  3. भारत तथा
  4. संयुक्त राज्य अमेरिका।

प्रश्न 7
दो नव्यकरणीय संसाधनों का उल्लेख कीजिए। [2008]
उत्तर

  1. जल तथा
  2. पवन-दो नव्यकरणीय संसाधन हैं। ये संसाधन निरन्तर बने रहते हैं। अथवी चक्रीय स्वरूप में प्राप्त हो जाते हैं।

प्रश्न 8
लकड़ी उत्पादन के चार प्रमुख देशों का नामोल्लेख कीजिए।
उत्तर
लकड़ी उत्पादन के चार प्रमुख देश हैं-संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा, रूस व नावें।

प्रश्न 9
एशिया में लकड़ी उत्पादन वाले चार देशों का नामोल्लेख कीजिए।
उत्तर
एशिया में लकड़ी उत्पादन वाले चार देश हैं-जापान, चीन, म्यांमार तथा भारत।

प्रश्न 10
मानव संसाधन किसी भी देश के लिए आवश्यक साधन क्यों है?
उत्तर
मानवीय शक्ति द्वारा ही प्राकृतिक सम्पदा का दोहन करके आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विकास सम्भव होता है; अत: मानव संसाधन किसी भी देश के लिए एक आवश्यक एवं महत्त्वपूर्ण साधन है।

प्रश्न 11
मुख्य भौतिक संसाधनों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
मुख्य भौतिक संसाधन हैं-खनिज पदार्थ, जल, भूमि, वन, वायु, मिट्टी, धरातल आदि।

प्रश्न 12
चार अक्षयी संसाधनों का नामोल्लेख कीजिए। [2007, 08]
उत्तर
चार अक्षयी संसाधन हैं-मिट्टी, जल, वायु तथा सौर ऊर्जा।

प्रश्न 13
विश्व में लकड़ी का उत्पादन करने वाले उस देश के नाम का उल्लेख कीजिए जो औद्योगिक लकड़ी का 76% भाग पूरा करता है।
उत्तर
संयुक्त राज्य अमेरिका।

बहुविकल्पीय प्रश्न
प्रश्न 1
“मनुष्य का ज्ञान ही सबसे बड़ा संसाधन है।” यह कथन है –
(क) मैकनाल का
(ख) जिम्मरमैन का
(ग) कु० सैम्पुल का
(घ) डॉ० डेविस का
उत्तर
(ख) जिम्मरमैन का।

प्रश्न 2
निम्न में से कौन जैविक संसाधन है? [2011, 12, 15, 16]
(क) मिट्टी
(ख) जस्ता
(ग) वनस्पति
(घ) वायु
उत्तर
(ग) वनस्पति।

प्रश्न 3
वायु, जल, सौर ऊर्जा, भूमि व धरातल, मिट्टी, प्राकृतिक वनस्पति, खनिज पदार्थ एवं जीव-जन्तु हैं –
(क) मानवीय संसाधन
(ख) प्राकृतिक संसाधन
(ग) (क) व (ख) दोनों
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर
(ख) प्राकृतिक संसाधन।

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प्रश्न 4
विश्व के कुल मछली उत्पादन का सागरों से प्राप्त होने वाला भाग है –
(क) 70 प्रतिशत
(ख) 90 प्रतिशत
(ग) 88 प्रतिशत
(घ) 84 प्रतिशत
उत्तर
(ग) 88 प्रतिशत।

प्रश्न 5
ऊर्जा के निम्नलिखित स्रोतों में से कौन-सा स्रोत नवीकरणीय नहीं है?
(क) ज्वार ऊर्जा
(ख) सौर ऊर्जा
(ग) जल-विद्युत
(घ) ताप-विद्युत
उत्तर
(घ) ताप-विद्युत।

प्रश्न 6
निम्नलिखित में से कौन-सा ऊर्जा का नव्यकरणीय स्रोत नहीं है ? (2009)
(क) भू-ताप
(ख) वायु
(ग) जल
(घ) खनिज तेल
उत्तर
(घ) खनिज तेल।

प्रश्न 7
निम्नलिखित में से कौन अक्षय संसाधन है? (2014)
(क) कोयला
(ख) लौह-अयस्क
(ग) सौर ऊर्जा
(घ) मैंगनीज
उत्तर
(क) सौर ऊर्जा।

प्रश्न 8
निम्नलिखित में से कौन-सा ऊर्जा का अनवीकरणीय स्रोत है? (2014)
(क) ज्वारीय ऊर्जा
(ख) सौर ऊर्जा
(ग) ताप विद्युत
(घ) जल-विद्युत
उत्तर
(क) तापविद्युत।

प्रश्न 9
निम्नलिखित में से कौन-सा नव्यकरणीय संसाधन है? (2015)
(क) पेट्रोलियम
(ख) लौह-अयस्क
(ग) जल
(घ) कोयला
उत्तर
(ग) जल

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