UP Board Solutions for Class 11 Sahityik Hindi सूक्तिपरक निबन्ध

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 11
Subject Sahityik Hindi
Chapter Chapter 13
Chapter Name सूक्तिपरक निबन्ध
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 11 Sahityik Hindi सूक्तिपरक निबन्ध

सूक्तिपरक निबन्ध

 पराधीन सपने सख नाहीं

सम्बद्ध शीर्षक

  • स्वाधीनता का महत्त्व
  • पराधीनता एक अभिशाप है।
  • परतन्त्रता अथवा दासता

प्रमुख विचार-बिन्दु

  1. प्रस्तावना,
  2. पराधीनता एक अभिशाप है,
  3. पराधीनता के विविध रूप
    (क) राजनीतिक;
    (ख) आर्थिक;
    (ग) सांस्कृतिक;
    (घ) सामाजिक,
    (ङ) धार्मिक,
  4.  स्वाधीनता का महत्त्व,
  5.  उपसंहार।

प्रस्तावना – ‘पराधीनता से तात्पर्य दूसरे के अधीन या वश में रहने से है। जब हमारे मनन-चिन्तन और कार्य परं दूसरों की इच्छा और शक्ति का अंकुश लग जाता है तो हम पराधीन कहलाते हैं। इस स्थिति में प्राप्त सुख-सुविधाएँ भी सच्चा आनन्द प्रदान नहीं कर पातीं। सोने के पिंजरे में रहकर विभिन्न फल व स्वादिष्ट पदार्थ खाने वाला पक्षी भी इस बन्धन से छूटकर खुले आकाश में स्वच्छन्द विचरण के लिए उड़ जाना चाहता है। इसलिए गोस्वामी तुलसीदास की उक्ति सत्य चरितार्थ होती है कि ‘पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं। सूखी रोटी खाने वाला और पत्थर की चट्टान पर सोने वाला स्वाधीन व्यक्ति पराधीन व्यक्ति की अपेक्षा कहीं अधिक स्वस्थ, प्रसन्न व निर्भीक होता है। किसी कवि ने उचित ही कहा है

बस एक दिन की दासता, शत कोटि नरक समान है।
क्षण मात्र की स्वाधीनता, शत स्वर्ग की मेहमान है।

पराधीनता एक अभिशाप है – पराधीनता मानव की समस्त शक्तियों को कुण्ठित करने वाला पक्षाघात (लकवा) है। पराधीन व्यक्ति का व्यक्तित्व पंगु हो जाता है, उसकी इच्छाशक्ति मर जाती है और कठपुतली के समान दूसरों के आदेश-निर्देशों का अनुवर्तन ही उसकी नियति बन जाती है। फलतः उसका आत्मविश्वास नष्ट हो जाता है और वह प्रत्येक बात में दूसरों का मुँह ताकता रहता है। इसलिए एक संस्कृत कवि ने कहा है
“पारतन्त्र्यं महहुःखम् स्वातन्त्र्यं परमं सुखम्”, अर्थात् परतन्त्रता से बड़ा दुःख और स्वतन्त्रता से बड़ा सुख और कुछ नहीं है।

पराधीन मनुष्य का हृदय मात्र गति करता है। उसमें भावना के फूल नहीं लहराते। उसकी जिह्वा होती है पर स्वर कहीं खो जाते हैं। उसकी आँखें देखती हैं, किन्तु उनमें प्रतिक्रिया का कोई स्पन्दन नहीं होता, उसमें विचार उपजते हैं किन्तु शीघ्र ही विलीन हो जाने को बाध्य होते हैं। उसमें जीवन होता है किन्तु उसमें और मृतक में कोई विशेष अन्तर नहीं जान पड़ता।

पराधीन मनुष्य को तो कुछ सोचने और करने का अवसर ही नहीं मिलता और यदि मिलता भी है तो पराधीन बनाने वाले व्यक्ति की इच्छा और तेवर के अनुसार यानि वह जो सोचता है और करने को कहता है, पराधीन वही सब कर सकता है, वरन् करने को बाध्य हुआ करता है। अपनी इच्छा और सोच के अनुसार कुछ करने की उसकी चेष्टा पर उसे बड़ी बेशरमी से दण्डित किया जाता है। इस प्रकार धीरे-धीरे उसकी इच्छाएँ, भावनाएँ, सोच-विचार की शक्ति समाप्त हो जाती है। ऐसी अवस्था में उसे किसी सुख की प्राप्ति या अनुभूति. मात्र का भी प्रश्न नहीं उठता। इसके विपरीत स्वाधीन व्यक्ति अपनी इच्छा और भावना के अनुसार सोच-विचार कर वह सब कुछ करने के लिए स्वतन्त्र होता है, जिसे करने से उसे सुख-प्राप्ति होती है। स्वतन्त्रता पूर्व और पश्चात् की भारतवासियों की स्थिति की तुलना करके इस अन्तरे को सरलता के साथ समझा जा सकता हैं। मानव सचमुच स्वाभिमान के लिए ही जीता है। स्वाभिमान से शून्य जीवन नरक भोगने से भी असह्य है और स्वाभिमान की रक्षा बिना स्वाधीनता के सम्भव नहीं। इसीलिए एक लेखक ने कहा है, “It is better to reign in hell than to be a slave in heaven.” अर्थात् स्वर्ग में दास बनकर रहने से नरक में स्वाधीन रहना अच्छा है।

पराधीनता के विविध रूप – पराधीनता चाहे व्यक्ति की हो या राष्ट्र की—दोनों ही गर्हित हैं; क्योंकि व्यक्तिगत पराधीनता व्यक्ति के एवं राष्ट्रगत पराधीनता राष्ट्र के सम्पूर्ण विकास को अवरुद्ध कर उसे पंगु बना देती है। उसकी चेतना शक्ति शून्य और निष्कर्म हो जाती है। पराधीनता के कई रूप हैं, जिनमें मुख्य हैं

(क) राजनीतिक,
(ख) आर्थिक,
(ग) सांस्कृतिक,
(घ) सामाजिक और
(ङ) धार्मिक।

(क) राजनीतिक पराधीनता – इससे आशय है कि किसी देश का दूसरों द्वारा शासित होना। राजनीतिक पराधीनता सबसे भयावह स्थिति है। वह शासित देश के समस्त गौरव का नाश कर उसे संसार में उपहास, घृणा
और दया का पात्र बना देती है। विजेता द्वारा ऐसे देश का सर्वांगीण शोषण करके उसे प्रत्येक दृष्टि से नि:सत्त्व, श्रीहीन और अपदार्थ बना दिया जाता है। भारत का उदाहरण सामने है। जो भारत किसी समय सोने की चिड़िया कहलाता था, वही सैकड़ों वर्षों की गुलामी के परिणामस्वरूप अन्न के दाने-दाने को मोहताज हो गया था। यही कारण है कि प्रत्येक पराधीन देश बड़े-से-बड़ा बलिदान देकर भी सबसे पहले राजनीतिक स्वाधीनता प्राप्त करना चाहता है।

(ख) आर्थिक पराधीनता – आज के युग में किसी देश को राजनीतिक दृष्टि से पराधीन बनाये रखना कठिन हो गया है, इसलिए संसार के शक्तिशाली और समृद्ध राष्ट्रों, मुख्यतः अमेरिका, ने दूसरे देशों पर अपना वर्चस्व स्थापित करने हेतु यह एक नया हथकण्डा अपनाया है। वे उन्हें आर्थिक सहायता या ऋण देकर उनके आन्तरिक मामलों में मनमाने हस्तक्षेप की अधिकार पा लेते हैं। यह पराधीनता वर्तमान में तो क्षणिक सुखकर अवश्य प्रतीत होती है, परन्तु भविष्य में यह बहुत ही कष्टकर होती है। महाजनों और जमींदारों के अत्याचार ऐसी पराधीनता के ही फल रहे हैं।

(ग) सांस्कृतिक पराधीनता – इसका आशय है किसी देश द्वारा दूसरे देश पर अपनी भाषा और साहित्य थोप कर उसके साहित्य, कला और संस्कृति के सहज विकास को अवरुद्ध कर, वहाँ के बुद्धिजीवियों के स्वतन्त्र चिन्तन को नष्ट कर, उन्हें मानसिक दृष्टि से अपना गुलाम बनाना। भारत पर मुसलमानी शासनकाल में फारसी और अंग्रेजों के शासनकाल में अंग्रेजी भाषा का थोपा जाना इस देश के स्वाभाविक सांस्कृतिक विकास के लिए बहुत घातक सिद्ध हुआ। वस्तुतः राजनीतिक और आर्थिक पराधीनता तो किसी देश के शरीर को ही गुलाम बनाती है, किन्तु सांस्कृतिक पराधीनता उसकी आत्मा को ही बन्धक रख लेती है। मैकाले (Macaulay) ने भारत में अंग्रेजी शिक्षा की वकालत करते हुए यही तर्क दिया था कि इससे यह देश मानसिक दृष्टि से हमारा गुलाम बन जाएगा और उसकी बात आज अत्यधिक सत्य सिद्ध हो रही है। सन् 1947 ई० में राजनीतिक स्वाधीनता पाकर भी इस देश में पनपे अंग्रेजी के मानस-पुत्रों ने भारत को आज पहले से कहीं भयंकर सांस्कृतिक पराधीनता में जकड़कर खोखला बना दिया है।

(घ) सामाजिक पराधीनता – सामाजिक पराधीनता से आशय है समाज के विभिन्न वर्गों में असमानता का होना, जिससे कुछ वर्ग अधिक सुविधाएँ भोगते हुए दूसरों को दबाकर रखें। हिन्दू समाज में पराधीनता का यह रूप छुआछूत, ऊँच-नीच और स्त्रियों पर अत्याचार के कारण अपनी निकृष्टतम स्थिति में दीख पड़ता है। भारतीय नारी की तो नियति सचमुच दयनीय है; क्योंकि कौमार्यावस्था में पिता, यौवन में पति और वृद्धावस्था में पुत्र उसका अभिभावकत्व करते हैं। इस प्रकार बचपन से वार्धक्य तक वह बेचारी किसी-न-किसी के अधीन रहने को बाध्य है, स्वाधीनता उसके भाग्य में नहीं।

(ङ) धार्मिक पराधीनता – धार्मिक पराधीनता के कारण मनुष्य अनेक नियमों, रीति-रिवाजों, परम्पराओं और अन्धविश्वासों के अधीन हो जाता है। वह पुरोहितों-पुजारियों, मुल्लाओं-मौलवियों और पादरियों का दास बन जाता है। शिक्षा, व्यवसाय, साहित्य, कला आदि में उसे प्रचलित रूढ़िवादिता का अनुकरण करना ही पड़ता है।

स्वाधीनता का महत्त्व – स्वतन्त्रता से मधुर कोई मनोदशा नहीं है। मनुष्य की गरिमा इसी कारण है कि वह स्वतन्त्र है। पशु को इसीलिए पशु कहा जाता है कि वह पाश (बन्धन) में है। जो मनुष्य भी पाश में हो तो उसका जीवन भी पशुवत् ही है। स्वतन्त्रता से उच्च स्वर्ग और कहीं नहीं है। स्वतन्त्र व्यक्तित्व व विचार से युक्त मानव का तेज अलौकिक होता है। जब प्रसिद्ध क्रान्तिकारी बालक चन्द्रशेखर को न्यायालय में पेश किया गया तो न्यायाधीश ने उससे पूछा- तुम्हारा नाम। बालक चन्द्रशेखर ने उत्तर दिया–आजाद’। तुम्हारे पिता का नाम’, न्यायाधीश ने फिर पूछा। स्वतन्त्र, चन्द्रशेखर ने निडरता के साथ उत्तर दिया। तात्पर्य यह है कि मानव का मन स्वतन्त्रता का प्रेमी है, परतन्त्रता तो उसके लिए मरण तुल्य है। वियोगी हरि लिखते हैं कि,

पराधीन जे नर नहीं, स्वर्ग-नरक ता हेत।
पराधीन जे नर नहीं, स्वर्ग-नरक ता हेत ॥

अर्थात् जो मनुष्य पराधीन नहीं हैं, उनके लिए स्वर्ग-नरक में अन्तर है। जो मनुष्य पराधीन हैं, उनके लिए स्वर्ग-नरक में कोई अन्तर नहीं है। निश्चित ही स्वाधीनता का कोई सानी नहीं। स्वाधीनता की शीतल छाया में संस्कृति, सभ्यता और समृद्धि बढ़ती है; देश में खुशहाली आती है; जीवन में उत्साह, स्फूर्ति और प्रसन्नता का संचार होता है; राष्ट्र की जीवन-ज्योति जगमगा उठती है; अज्ञान का अन्धकार हटने लगता है और ज्ञान का प्रकाश बढ़ने लगता है।

उपसंहार – आज हम स्वाधीन हैं, स्वतन्त्र हैं। हमें सभी प्रकार के व्यापक अधिकार मिले हुए हैं। इसे प्राप्त करने के लिए न जाने कितने लोग कुर्बान हुए और न जाने कितने कष्ट सहे, इसका अनुभव बहुत कम ही लोग कर सके हैं। हमें स्वाधीन होकर भी स्वच्छन्द नहीं होना चाहिए। हमें स्वतन्त्रता को वास्तविक प्रयोग कर देश का सहयोग करना चाहिए, जिससे देश की स्वाधीनता अमर बनी रहे। इसीलिए तो गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है

पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं। करि बिचार देखहु मन माहीं॥

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि स्वाधीनतारूपी अमृत-फल चखने के लिए हमें पराधीनतारूपी कण्टकों को निर्मूल करना होगा, सभी प्रकार की पराधीनता के कलंक को मिटाना होगा। तभी भारतमाता का मुख उज्ज्वल होकर सम्पूर्ण विश्व को अपनी आभा से दीप्त कर सकेगा, उसका मार्गदर्शन कर सकेगा।

परहित सरिस धरम नहि भाई

सम्बद्ध शीर्षक

  • मानवता का आधार : परोपकार
  • परोपकार
  • वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे
  • परोपकार का महत्त्व
  • परपीड़ा सम नहिं अधमाई

प्रमुख विचार-बिन्दु

  1.  प्रस्तावना,
  2.  परोपकार की महत्ता अर्थात् परोपकार मानवीय धर्म,
  3.  प्रकृति और परोपकार,
  4.  परोपकार : मानवता का परिचायक,
  5. परोपकार के विविध रूप,
  6.  परोपकार : आत्म-उत्थान का मूल,
  7.  उपसंहार।

प्रस्तावना – “परहित सरिस धरम नहिं भाई। परपीड़ा सम नहिं अधमाई”, अर्थात् दूसरे की भलाई करने से बढ़कर कोई धर्म नहीं और दूसरे को कष्ट पहुँचाने से बढ़कर कोई नीच काम नहीं। महाकवि गोस्वामी तुलसीदास जी की ये पंक्तियाँ धर्म की सुन्दर परिभाषा प्रस्तुत करती हैं। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, अतः समाज में एक-दूसरे का सहयोग किये बिना वह पूर्ण मानव नहीं बन सकता। कोई भी मनुष्य स्वयं में पूर्ण नहीं है, किसी-न-किसी कार्य के लिए वह दूसरे पर आश्रित रहता ही है। हम दूध-दही के लिए पशुओं पर, फल-फूल तथा अन्नादि के लिए वृक्षों पर, जल के लिए बादल एवं नदियों पर आश्रित हैं। ये सभी बिना किसी स्वार्थ के हमें यही सन्देश प्रदान करते हैं।

परोपकार की महत्ता अर्थात् परोपकार मानवीय धर्म – महर्षि दधीचि ने वृत्रासुर वध के लिए देवताओं द्वारा माँगने पर अपनी हड्डियों को प्रदान करते हुए मानवीय परोपकार का एक अनूठा उदाहरण प्रस्तुत किया था। उनकी हड्डियों से निर्मित सर्वाधिक कठोर वज्र के निर्माण से ही देवता वृत्रासुर का वध कर सके। मानव द्वारा देवों की रक्षा करने के लिए त्याग-भावना द्वारा मानव देवताओं से भी महान् दिखाई देने लगता है। महाराज शिवि ने भी करुणा-भावना के वशीभूत एक कबूतर की प्राण रक्षा के लिए अपने हाथों से अपने शरीर का मांस काट-काट कर कबूतर को खाने के लिए आये बाज को खिलाकर परोपकार के क्षेत्र में प्रतिमान उपस्थित किया। वास्तव में ये महान् पुरुष धन्य हैं, जिन्होंने परोपकार के लिए अपने शरीर व प्राणों की भी चिन्ता नहीं की। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने इनकी वन्दना करते हुए उचित ही कहा है

क्षुधार्त रन्तिदेव ने दिया करस्थ थाल भी,
तथा दधीचि ने दिया परार्थ अस्थिजाल भी।
उशीनर क्षितीश ने स्वमांस दान भी किया,
सहर्ष वीर कर्ण ने शरीर चर्म भी दिया।
अनित्य देह के लिए अनादि जीव क्या डरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

इसी भावना से प्रेरित होकर हमारे हजारों क्रान्तिकारी देशभक्तों ने भी नयी पीढ़ी की स्वतन्त्रती एवं सुख-समृद्धि के लिए परोपकार भावना से अनुप्राणित होकर अपने माता-पिता, पति-पत्नी, पुत्र-पुत्री एवं परिवार की तनिक भी चिन्ता न करते हुए अपने प्राणों को हँसते-हँसते देश की बलिवेदी पर चढ़ा दिया। संसार में उन्हीं व्यक्तियों के नाम अमर होते हैं, जो दूसरों के लिए मरते और जीवित रहते हैं। सीता की रक्षा में अपने प्राणों की बाजी लगा देने वाले गिद्धराज जटायु से श्रीराम कहते हैं, “तुमने अपने सत्कर्म से ही सद्गति को अधिकार पाया है, इसका। श्रेय मुझे नहीं है

परहित बस जिनके मन माहीं। तिन्ह कहुँ जग दुर्लभ कछु नाहीं॥

प्रकृति और परोपकार-प्रकृति में परोपकार का नियम अप्रतिहत गति से कार्य करता हुआ दिखाई देता है। सूर्य बिना किसी जाति, देश, वर्ण के भेदभाव के समानता-असमानता की भावना से, बिना किसी प्रत्युपकार की भावना के, समस्त संसार को अपने प्रकाश और उष्णता से जीवन प्रदान करते हैं। वायु सभी को प्राण प्रदान कर रही है। चन्द्रमा अपनी शीतल किरणों से सभी को रस एवं शीतलता प्रदान करता है। पृथ्वी रहने को स्थान देती है। मेघ वर्षा ऋतु में आकर फसलों को हरा-भरा कर देते हैं। वृक्ष तो फूल, फल, छाल, शाखाएँ, ऑक्सीजन, जल, पत्ते, लकड़ियाँ, छाया आदि सर्वस्व प्रदान कर मानव-जीवन को आनन्दित बना देते हैं। झरने, प्रपात और नदियाँ अपने अमृतमय जल से पिपासा शान्त करती हुई, विद्युत एवं तैरने के अवसर, नौकाविहार, जलचरों को जीवन प्रदान करती हुई परोपकार की देवी ही बनी हुई है। कहा भी गया है

बृच्छ कबहुँ नहिं फल भखें, नदी न संचै नीर।
परमारथ के कारने, साधुन धरा सरीर ॥

उपर्युल्लिखित सूर्य, चन्द्रमा, वृक्ष, वायु आदि ऐसा किसी प्रतिफल प्राप्ति की भावना से नहीं करते हैं, वे केवल अपने जन्मजात स्वभाववश ही ऐसा करते हैं। तब क्या प्रकृति की ही एक देन, मनुष्य, का यह कर्त्तव्य नहीं है। कि वह दूसरों के हित में अपने जीवन का कुछ समय ही लगा दे।
परोपकार : मानवता का परिचायक – परोपकार ही मानव को महामानव बनाने की सामर्थ्य रखता है। परोपकार से ही हमारी स्वार्थ-भावना नष्ट होती है और हम देवता के समान कहलाने लगते हैं

सूर्य, चन्द्र, बादल, सरिता, भू, पेड़, वायु कर पर उपकार।
बन जाते हैं देवतुल्य क्या, देवों के सचमुच अवतार॥

परोपकारी व्यक्ति समाज में सर्वत्र सम्मान प्राप्त कर देश एवं विश्व के पूज्य बन जाते हैं। परोपकार से ही मनुष्य विश्वबन्धुत्व की भावना की ओर अग्रसर होता है। जनकल्याण, प्राणिसेवा में निरत व्यक्ति परमआदरणीय हो जाती है

जो पराये काम आता, धन्य है जग में वही।
द्रव्य ही को जोड़कर, कोई सुयश पाता नहीं ॥

परोपकार भाईचारे की भावना का विकास करता है। यही घृणा, द्वेष और स्वार्थ का नाशक है। सभी प्राणियों में अपने ईश्वर का अंश देखकर महापुरुष जगत् के कल्याण में प्रवृत्त हो जाते हैं। राजा रन्तिदेव अपना सर्वस्व दान में देकर अड़तालीस दिन तक भूखे रहे। उनचासवें दिन जब भोजन का प्रबन्ध हुआ तो एक याचक आ गया। उन्होंने वह भोजन याचक को खिलाकर सन्तोष धारण किया

ने त्वहं कामये स्वर्ग, न मोक्षं न पुनर्भवम् ।
कामये दुःखतप्तानां, प्राणिनामार्तनाशनम् ॥

राजा रन्तिदेव ने स्वर्ग-मोक्ष न माँग कर मानव ही नहीं सभी प्राणियों की पीड़ा को दूर करने का वरदान माँगा। परोपकारियों को ही सज्जन एवं महापुरुष की पदवी प्रदान की जाती है, जो युगों तक प्रणम्य हो जाते हैं। अट्ठारह पुराणों के रचयिता व्यास जी ने भी परोपकार को पुण्य एवं परपीड़ा को पाप घोषित किया है

अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम् ।
परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम्॥

परोपकारी व्यक्ति “नि:स्वार्थ परोपकार कर अलौकिक आनन्द का अनुभव करता है। किसी भूखे को भोजन देते समय, प्यासे को पानी पिलाते समय, ठण्ड से ठिठुरते को वस्त्र देते समय, रोगी की सेवा करते समय मानव को जो अपार आनन्द का अनुभव होता है, वह वर्णनातीत है। उस समय वह स्व-पर के भेद से ऊपर उठकर ब्रह्मानन्द की प्राप्ति करता है। हमारी सांस्कृतिक परम्परा में यज्ञ परोपकार ही है, जिसके द्वारा ‘इदं न मम कहते हुए अग्नि में डाली गयी आहुति लाखों लोगों का कल्याण करती हुई विस्तृत हो जाती है।”

परोपकार के विविध रूप – नि:शुल्क लंगर, सदाव्रत, प्याऊ, विद्यालय, धर्मशाला, बगीचा, वृक्षारोपण, जलाशय, औषधालय, वस्त्र-वितरण, निर्धन विद्यार्थियों को छात्रवृत्ति, पुस्तकालय, गौशाला आदि की व्यवस्था करना परोपकार के ही विविध रूप हैं। परोपकार का क्षेत्र केवल मनुष्यों तक संकुचित नहीं है, उसमें पशु-पक्षी कीट-पतंग सभी सम्मिलित हैं। इसीलिए गोस्वामी तुलसीदास जी ने सभी को प्रणाम करते हुए कहा है

सियाराममय सब जग जानी। कर प्रणाम जोरि जुग पानी।।

रहीम ने परोपकार की महिमा का बखान करते हुए लिखा है कि

रहिमन यों सुख होत है, उपकारी के संग।
बाँटनवारे को लगे, ज्यों मेंहदी के रंग ॥

तात्पर्य यह है कि परोपकारी व्यक्ति को उसी प्रकार स्वतः ही आनन्द की उपलब्धि होती है, जिस प्रकार लगाने वाले के हाथों में मेंहदी का रंग स्वतः ही आ जाता है।

जहाँ पुल, सड़कें नहीं वहाँ पुल, सड़कों का निर्माण करना, कन्याओं के लिए रोजगार सीखने के नि:शुल्क प्रशिक्षण देना, उन्हें स्वावलम्बी बनाना, अकाल, भूकम्प, युद्धादि के अवसर पर अन्न, वस्त्र, निवास की व्यवस्था करना परोपकारी कार्यों की श्रेणी में आते हैं।

सामान्य व्यक्ति तर्क दे सकते हैं कि धन से सम्पन्न व्यक्ति ही परोपकार कर सकता है। विचार करने पर हम अनुभव करेंगे कि परोपकार के लिए धन की कोई आवश्यकता नहीं होती, अपितु एक सेवाभावी मन की आवश्यकता होती है। हम राह भटके हुए को राह दिखा सकते हैं, सड़क के बीच में पड़े हुए केले के छिलके, कंकड़-पत्थर आदि को उठाकर एक किनारे पर फेंक सकते हैं। यह परोपकार ही तो है। हम किसी दुखिया के आँसू पोंछ सकें, किसी आहत व्यक्ति की आहों में साझीदार बन सकें, किसी के सिर पर रखे हुए बोझ को हलका कर सकें, किसी प्यासे को पानी पिला सकें आदि, तो हम परोपकार के आनन्द एवं पुण्य-फल का लाभ प्राप्त करने के सहज अधिकारी बन जाएँगे। निर्धन विद्यार्थियों को निःशुल्क ट्यूशन उत्तम कोटि का परोपकार कहलाएगा।

परोपकार : आत्म-उत्थान का मूल – मनुष्य क्षुद्र से महान् और बिरल से विराट् तभी बन सकता है, जब उसकी परोपकार-वृत्ति विस्तृत होती रहेगी। भारतीय संस्कृति की यह विशेषता है कि उसने प्राणि-मात्र के हित को मानव-जीवन का लक्ष्य बताया है। यही व्यक्ति का समष्टिमय स्वरूप भी है। ज्यों-ज्यों आत्मा में उदारता बढ़ती जाती है, उसे उतनी ही अधिक आनन्द की उपलब्धि होती जाती है तथा अपने समस्त कर्म जीवमात्र के लिए समर्पित कर देने की भावना तीव्रतर होती जाती है

सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः ।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःख भाग्भवेत् ॥

तात्पर्य यह है कि सभी लोग सुखी हों, निरोगी हों, कल्याणयुक्त हों। कोई भी दु:ख-कष्ट नहीं भोगे। इसी भावना से संचालित होकर सभी जीवों के कल्याण में रत रहना चाहिए। यही सर्वकल्याणमय भावना सन्तों का मुख्य लक्षण है; क्योंकि वे मन, वचन और काया से सदा परोपकार में लगे रहते हैं

पर उपकार वचन मन काया। सन्त सहज सुभान खगराया।

राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी के शब्दों में

यही पशु प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।

अर्थात् जो अपने लिए जीता है वह पशु है, जो अपने साथ-साथ दूसरों के लिए भी जीता है वह मनुष्य है और जो केवल दूसरों के लिए ही जीता है वह महामानव है, महात्मा है।

उपसंहार – परोपकारी अक्षय कीर्ति को धारण करते हैं। प्रत्येक युग में उनका सम्मान वृद्धि को प्राप्त होता रहता है। महात्मा गांधी, पं० मदनमोहन मालवीय, सुभाषचन्द्र बोस, चन्द्रशेखर आजाद, भगत सिंह, अशफाक उल्ला खाँ, रामप्रसाद बिस्मिल आदि सदैव ही प्रातः स्मरणीय रहेंगे। तभी तो मैथिलीशरण गुप्त जी ने कहा है कि इस जीवन को अमर बनाने के लिए इसे दूसरों को समर्पित कर दो

विचार लो कि मर्त्य हो नै मृत्यु से डरो कभी,
मरो परन्तु यों मरो कि याद जो करें सभी।

मानव का जीवन क्षणभंगुर है, किन्तु परोपकार के द्वारा वही अमरता को प्राप्त हो जाता है। भगवान् राम, कृष्ण, महावीर स्वामी, गौतम बुद्ध, दयानन्द सरस्वती, राजा राममोहन राय “सर्वभूत हिते रतः” रहकर ही अक्षय यश के भागी हैं।

वर्तमान समय में परोपकार का स्वरूप बदलता जा रहा है। परोपकार के आवरण में लोग अपने स्वार्थों की पूर्ति कर रहे हैं। कोई राजनीतिक नेता ‘गरीबी हटाओ’ का नारा लगाकर गरीबों का वोट अपनी ओर खींचता है तो कोई जनजातियों के लिए सीटें आरक्षित करवाकर अपना वोट बैंक पक्का करता है। कुछ व्यापारी आयकर में छूट पाने के लिए औषधालय खुलवाते हैं तथा पंजीकृत संस्थाओं में दान देते हैं। यह आज के परोपकार का परिवर्तित स्वरूप है। भारतीय संस्कृति ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’, ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’, ‘सर्वजन सुखाय सर्वजन हिताय’ के सदविवेक का सन्देश देती है। आज ऐसी ही भावना की आवश्यकता है। भारतीय संस्कृति के इन
सन्देशों को अपनाकर ही हम परोपकार के सर्वाधिक समीप पहुँच सकते हैं।

परोपकार किसी भी समाज एवं देश के सुख-संवर्धन का एकमात्र उपाय है। जिस समाज में परोपकारी लोगों का आधिक्य होगा वही सुखी और समृद्ध होगा। डॉ० हरिदत्त गौतम ‘अमर’ के शब्दों में

पर उपकार निरत जो सज्जन कभी नहीं मरते हैं।
चन्द्र सूर्य जब तक हैं उन पर यशः पुष्प झरते हैं।

 दैव-दैव आलसी पुकारा

सम्बद्ध शीर्षक

  • परिश्रम का महत्त्व
  • करम प्रधान बिस्व करि राखा?

प्रमुख विचार-बिन्दु

  1. प्रस्तावना,
  2.  भाग्यवाद : अकर्मण्यता का सूचक
  3.  प्रकृति भी परिश्रम का पाठ पढ़ाती है,
  4. शारीरिक श्रम और मानसिक श्रम,
  5.  भाग्य और पुरुषार्थ,
  6. सफलता का रहस्य : श्रम,
  7.  उपसंहार।

फ्रस्तावना – जीवन के उत्थान में परिश्रम का महत्त्वपूर्ण स्थान है। जीवन में आगे बढ़ने के लिए, ऊँचा उठने के लिए और सुयश प्राप्त करने के लिए श्रम ही आधार है। श्रम से कठिन-से-कठिन कार्य सम्पन्न किये जा सकते हैं। जो श्रम करता है, भाग्य भी उसका ही साथ देता है। जो निष्क्रिय रहता है, उसका भाग्य भी विपरीत है। श्रम के बल पर लोगों ने उफनती जलधाराओं को रोककर बड़े-बड़े बाँधों का निर्माण कर दिया। इन्होंने श्रम के बल पर उत्तुंग, अगम्य पर्वत-चोटियों पर अपनी विजय का ध्वज फहरा दिया। श्रम के बल पर मनुष्य चन्द्रमा पर पहुँच गया। श्रम के द्वारा ही मानव समुद्र को लॉघ गया, खाइयों को पाट दिया तथा कोयले की खदानों से बहुमूल्य हीरे खोज निकाले। मानव सभ्यता और उन्नति का एकमात्र आधार श्रम ही है। श्रम के सोपानों का अवलम्ब लेकर मनुष्य अपनी मंजिल पर पहुँच जाता है। अतः परिश्रम ही मानव-जीवन का सच्चा सौन्दर्य है; क्योंकि परिश्रम के द्वारा ही मनुष्य अपने को पूर्ण बना सकता है। परिश्रम ही उसके जीवन में सद्भाग्य, उत्कर्ष और महानता लाने वाला है। जयशंकर प्रसाद जी ने भी कहा है

जितने कष्ट कण्टकों में है, जिनका जीवन-सुमन खिला,
गौरव-गन्ध उन्हें उतना ही, यत्र तत्र सर्वत्र मिला।

भाग्यवाद : अकर्मण्यता का सूचक-जिन लोगों ने परिश्रम का महत्त्व नहीं समझा; वे अभाव, गरीबी और दरिद्रता का दुःख भोगते रहे। जो लोग मात्र भाग्य को ही विकास का सहारा मानते हैं, वे भ्रम में हैं। आलसी और अकर्मण्य व्यक्ति सन्त मलूकदास का यह दोहा उद्धृत करते हैं

अजगर करे न चाकरी, पंछी करै न काम।
दास मलूका कह गये, सबके दाता राम ॥

मेहनत से जी चुराने वाले दास मलूका के स्वर में स्वर मिलाकर भाग्य की दुहाई के गीत गा सकते हैं; लेकिन वे नहीं सोचते कि जो चलता है, वही आगे बढ़ता है और मंजिल को प्राप्त करता है। कहा भी है

उद्यमेन ही सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः।
न हि सुप्तस्य सिंहस्य, प्रविशन्ति मुखे मृगाः॥

अर्थात् परिश्रम से सभी कार्य सफल होते हैं, केवल कल्पना के महल बनाने से व्यक्ति अपने मनोरथ को पूर्ण नहीं कर सकता। शक्ति और स्फूर्ति से सम्पन्न गुफा में सोया हुआ वनराज शिकार-प्राप्ति के ख्याली पुलाव

पकाती रहे तो उसके उदर की अग्नि कभी भी शान्त नहीं हो सकती। सोया पुरुषार्थ फलता नहीं है। ऐसे ही अकर्मण्य व आलसी व्यक्ति के लिए कहा है

सकल पदारथ एहि जग माहीं। करमहीन नर पावत नाहीं।।

अर्थात् संसार में सुख के सकल पदार्थ होते हुए भी कर्महीन लोग उसका उपभोग नहीं कर पाते। जो कर्म करता हैं, फल उसे ही प्राप्त होता हैं और जीवन भी उसी का जगमगाता है। उसके जीवन उद्यान में ही रंग-बिरंगे सफलता के सुमन खिलते हैं।

परिश्रम से जी चुराना, आलस्य और प्रमोद में जीवन बिताने के समान बड़ा कोई पाप नहीं है। गांधी जी का कहना है कि जो लोग अपने हिस्से का काम किये बिना ही भोजन पाते हैं, वे चोर हैं। वास्तव में काहिली कायरों और दुर्बल जनों की शरण है। ऐसे आलसी मनुष्य में न तो आत्म-विश्वास ही होता है और न ही अपनी शक्ति पर भरोसा। किसी कार्य को करने में न तो उसे कोई उमंग होती है और न स्फूर्ति। परिणामस्वरूप पग-पग पर असफलता और निराशा के काँटे उसके पैरों में चुभते हैं।

प्रकृति भी परिश्रम का पाठ पढ़ाती है – प्रकृति के प्रांगण में झाँककर देखें तो चींटियाँ रात-दिन अथक परिश्रम करती हुई नजर आती हैं। पक्षी दाने की खोज में अनन्त आकाश में उड़ते हुए दिखाई देते हैं। हिरन आहार की खोज में वन-उपवन में कुलाँचे भरते रहते हैं। समस्त सृष्टि में श्रम का चक्र निरन्तर चलता ही रहता है। जो लोग श्रम को त्यागकर आलस्य का आश्रय लेते हैं वे जीवन में कभी सफल नहीं होते, क्योंकि ईश्वर भी उनकी सहायता नहीं करता- “God helps those who help themselves.” परिश्रमी व्यक्ति के लिए सफलता व स्वागत के द्वार स्वयमेव खुल जाते हैं

कर्मवीर के आगे पथ का, हर पत्थर साधक बनता है।
दीवारें भी दिशा बतातीं, जब वह आगे को बढ़ता है।

वस्तुतः परिश्रम द्वारा प्राप्त हुई उपलब्धि से जो मानसिक सन्तोष व आत्मिक तृप्ति प्राप्त होती है वह निष्क्रिय व्यक्ति को कदापि प्राप्त नहीं हो सकती। प्रकृति ने ही यह विधान बनाया है कि बिना परिश्रम के खाये हुए अन्न का पाचन भी सम्भव नहीं। व्यक्ति को विश्राम का आनन्द भी तभी प्राप्त होता है जब उसने भरपूर श्रम किया हो। वस्तुतः श्रम उन्नति, उत्साह, स्वास्थ्य, सफलता, शान्ति व आनन्द का मूलाधार है।

शारीरिक श्रम और मानसिक श्रम – परिश्रम चाहे शारीरिक हो अथवा मानसिक दोनों ही श्रेष्ठ । सत्य तो यह है क़ि मानसिक श्रम की अपेक्षा शारीरिक श्रम कहीं अधिक श्रेयस्कर है। गांधी जी की मान्यता है कि स्वस्थ, सुखी और समुन्नत जीवन के लिए शारीरिक श्रम अनिवार्य है। शारीरिक श्रम प्रकृति का नियम है और इसकी अवहेलना निश्चय ही हमारे जीवन के लिए बहुत ही दु:खदायी सिद्ध होगी। परन्तु यह बड़ी लज्जा और क्षोभ की बात है कि आज मानसिक श्रम की अपेक्षा शारीरिक श्रम को नीची निगाहों से देखा जाता है। लोग अपना काम अपने हाथों से करने में लज्जा का अनुभव करते हैं।

भाग्य और पुरुषार्थ – भाग्य और पुरुषार्थ जीवन के दो पहिये हैं। भाग्यवादी बनकर हाथ पर हाथ रखकर बैठना मौत की निशानी है। परिश्रम के बल पर ही मनुष्य अपने बिगड़े भाग्य को बदल सकता है। परिश्रम ने महा मरुस्थलों को हरे-भरे उद्यानों में बदल दिया तथा मुरझाये जीवन में यौवन का वसन्त खिला दिया। कवि ने इन भावों को कितनी सुन्दर अभिव्यक्ति दी है

प्रकृति नहीं डरकर झुकती कभी भाग्य के बल से।
सदा हारती वह मनुष्य के उद्यम से श्रम जल से ।।

परिश्रम सुमन का सौरभ है, मनुष्य का भाग्य है, जीवन का नवनीत है व देवताओं के वरदान से बढ़कर है। परिश्रम जीवन को नन्दन वन बना देता है। कवि श्रम का यशोगान करता हुआ कहता है

जीवन एक सुमन मानो तो सौरभ उसको श्रम है।
देवों की वरदान शक्ति भी इसके आगे कम है।

सफलता का रहस्य श्रम – महापुरुष बनने का प्रथम सोपान परिश्रमशीलता है। संसार में जितने भी महापुरुष हुए हैं। सभी कष्ट-सहिष्णुता और श्रम के कारण श्रद्धा, गौरव और यश के पात्र बने। वाल्मीकि, कालिदास, तुलसीदास आदि जन्म से महाकवि नहीं थे। उन्हें ठोकरें लगीं, ज्ञान-नेत्र खुले और अनवरत परिश्रम से महाकवि बने। गांधी जी का सम्मान उनके परिश्रम एवं कष्ट-सहिष्णुता के कारण ही है। इन सबने अपने जीवन का प्रत्येक क्षण श्रमरत रहकर बिताया। उसी का परिणाम था कि वे सफलता के उच्च शिखर तक पहुँच सके। महान् । राजनेताओं, वैज्ञानिकों, कवियों, साहित्यकारों और ऋषि-मुनियों की सफलता का रहस्य एकमात्र परिश्रम ही है। इतिहास साक्षी है कि भाग्य का आश्रय छोड़कर कर्म में तत्पर होने वाले लोगों ने ही इतिहास का निर्माण किया है, समय पर शासन किया है। कृष्ण यदि भाग्य के सहारे बैठे रहते तो एक ग्वाले का जीवन बिताकर ही काल-कवलित हो गये होते, नादिरशाह ईरान में जीवनपर्यन्त भेड़ों को ही चराता हुआ मर जाता, स्टालिन अपने वंश-परम्परागत व्यवसाय (जूते बनाने) को करता हुआ एक कुशल मोची बनता, खुश्चेव कोयले की खदान का मजदूर ही रह जाता, गोर्की कूड़े-कचरे के ढेर से चीथड़े ही बीनता रहता, बाबर समरकन्द से भागकर हिन्दूकुश की पर्वत-श्रेणियों में ही खो जाता, शेरशाह सूरी बिहार के गाँव में किसी किसान का हलवाहा होता, हैदस्अली सेना का एक सामान्य सिपाही ही बना रहता, प्रेमचन्द एक प्राथमिक पाठशाला के अध्यापक के रूप में अज्ञात रह जाता और लाल बहादुर शास्त्री के लिए प्रधानमन्त्री का पद एक सुहावना सपना ही बना रहता। निश्चय ही इन्होंने जो कुछ पाया वह सब कुछ दृढ़ संकल्प-शक्ति, साहस, धैर्य, अपने ध्येय में अटल विश्वास और कर्म शौर्य के कारण ही पाया। इनकी सफलता के पीछे किसी भाग्य अथवा संयोग का हाथ न था। दुष्यन्त कुमार ने कहा भी है

कौन कहता है कि आसमाँ में सुराख नहीं होता।
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो॥

ऊपर उल्लिखित पुरुषों ने सम्भवत: ऐसा ही कोई कथन अपने जीवन के प्रेरक के रूप में अपनाया होगा। संस्कृत में भी कहा गया है

उद्योगिनं पुरुषसिंहमुपैति लक्ष्मीः
दैवेन देयमिति का पुरुषा वदन्ति ।
दैवं विहाय पौरुषमात्मकृत्या ।
यले कृते यदि न सिध्यति कोऽत्र दोषः ।।

तात्पर्य यह है कि उद्योगी पुरुष वास्तव में पुरुष-सिंह होता है, लक्ष्मी उसी का वरण करती है। ‘भाग्य देगा यह कायरों का कथन है। भाग्य को अलग रखकर परिश्रम करना चाहिए। यत्न करने पर भी यदि कुछ प्राप्त नहीं होता, तो इसमें तुम्हारा क्या दोष है?

उपसंहार – परिश्रमी व्यक्ति राष्ट्र की बहुमूल्य पूँजी है। श्रम वह महान् गुण है, जिससे व्यक्ति का विकास और राष्ट्र की उन्नति होती है। संसार में महान् बनने और अमर होने के लिए परिश्रमशीलता अनिवार्य है। श्रम से अपार आनन्द मिलता है। महात्मा गांधी ने हमें श्रम की पूजा का पाठ पढ़ाया। उन्होंने कहा“श्रम से स्वावलम्बी बनने का सौभाग्य मिलता है। हम अपने देश को श्रम और स्वावलम्बन से ही ऊँचा उठा सकते हैं।” श्रम की अद्भुत शक्ति को देखकर ही नेपोलियन ने कहा था कि, “संसार में असम्भव कोई काम नहीं। असम्भव शब्द को तो केवल मूर्खा के शब्दकोश में ही हूँढ़ा जा सकता है।” आधुनिक युग विज्ञान का युग है। प्रत्येक बात को तर्क की कसौटी पर कसा जा सकता है। भाग्य जैसी काल्पनिक वस्तुओं से अब जनता का विश्वास उठता जा रहा है। वास्तव में भाग्य श्रम से अधिक कुछ भी नहीं। श्रम का ही दूसरा नाम भाग्य है। जीवन में श्रम की महती आवश्यकता है। बिना श्रम के मानव-जाति का कल्याण नहीं, दु:खों से त्राण नहीं और समाज में उसका कहीं भी सम्मान नहीं। हमें सदैव इस बात को ध्यान रखना चाहिए कि अपने भाग्य के विधाता हम स्वयं हैं। जब हम कर्म करेंगे तो समय आने पर हमें उसका फल अवश्य ही मिलेगा। उसमें प्रकृति के नियमानुसार कुछ समय लगना स्वाभाविक ही है। कबीरदास ने ठीक ही कहा है

धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय।
माली सींच सौ घड़ा, ऋतु आए फल होय ॥

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