UP Board Solutions for Class 11 Sahityik Hindi नाटक Chapter 3 गरुड़ध्वज

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 11
Subject Sahityik Hindi
Chapter Chapter 3
Chapter Name गरुड़ध्वज (लक्ष्मीनारायण मिश्र)
Number of Questions 10
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 11 Sahityik Hindi नाटक Chapter 3 गरुड़ध्वज (लक्ष्मीनारायण मिश्र)

प्रश्न 1:
‘गरुड़ध्वज’ नाटक की कथावस्तु को संक्षेप में लिखिए।
या
‘गरुड़ध्वज’ नाटक के प्रथम अंक का कथासार अपने शब्दों में लिखिए।
या
‘गरुड़ध्वज’ नाटक के द्वितीय अंक की कथा संक्षेप में लिखिए।
या
‘गरुड़ध्वज’ नाटक के अन्तिम (तृतीय) अंक की घटनाओं का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
या
‘गरुड़ध्वज’ नाटक के किसी एक अंक के कथानक पर प्रकाश डालिए।
या
गरुड़ध्वज’ नाटक के कथानक का सार लिखिए।
या
‘गरुड़ध्वज’ नाटक में कौन-सा अंक आपको सबसे अच्छा लगा और क्यों ?
उत्तर:
श्री लक्ष्मीनारायण मिश्र कृत ‘गरुड़ध्वज’ नाटक की कथा ऐतिहासिक है। कथा में प्रथम शती ईसा पूर्व के भारतवर्ष की सांस्कृतिक, धार्मिक, राजनीतिक तथा सामाजिक झाँकी प्रस्तुत की गयी है। कहानी में शुंग वंश के अन्तिम सेनापति विक्रमादित्य, मालवा के जननायक ‘विषमशील’ के त्याग और शौर्य की गाथा वर्णित है। विषमशील ही ‘विक्रमादित्य’ के नाम से प्रसिद्ध हुए।

प्रथम अंक – नाटक के प्रथम अंक में पहली घटना विदिशा में घटित होती है। विक्रममित्र स्वयं को सेनापति सम्बोधित कराते हैं, महाराज नहीं। विक्रममित्र के सफल शासन में प्रजा सुखी है। बौद्धों के पाखण्ड को समाप्त करके ब्राह्मण धर्म की स्थापना की गयी है। सेनापति विक्रममित्र ने वासन्ती नामक एक युवती का उद्धार किया है। उसके पिता वासन्ती को किसी यवन को सौंपना चाहते थे। वासन्ती; एकमोर नामक युवक से प्रेम करती है। इसी समय कवि और योद्धा कालिदास प्रवेश करते हैं। कालिदास; विक्रममित्र को आजन्म ब्रह्मचारी रहने के कारण भीष्म पितामह’ कहते हैं। विक्रममित्र इस समय सतासी वर्ष के हैं। इसी समय साकेत के एक यवन-श्रेष्ठी की कन्या कौमुदी का सेनापति देवभूति द्वारा अपहरण करने की सूचना विक्रममित्र को मिलती है। देवभूति कन्या को अपहरण कर उसे काशी ले जाते हैं। विक्रममित्र कालिदास को काशी पर आक्रमण करने की आज्ञा देते हैं।

द्वितीय अंक – नाटक के दूसरे अंक में दो घटनाएँ प्रस्तुत की गयी हैं। प्रथम में तक्षशिला के राजा अन्तिलिक का मन्त्री ‘हलोदर’ विक्रममित्र से अपने राज्य के दूत के रूप में मिलता है। हलोदर भारतीय संस्कृति में आस्था रखता है तथा सीमा विवाद को वार्ता के द्वारा सुलझाना चाहता है। वार्ता सफल रहती है तथा हलोदर विक्रममित्र को अपने राजा की ओर से रत्नजड़ित स्वर्ण गरुड़ध्वज भेटस्वरूप देता है।

विक्रममित्र के आदेशानुसार कालिदास काशी पर आक्रमण करते हैं तथा अपने ज्ञान और विद्वत्ता से काशी के दरबार में बौद्ध आचार्यों को प्रभावित कर देते हैं। वे कौमुदी का अपहरण करने वाले देवभूति तथा काशी नरेश को बन्दी बनाकर विदिशा ले जाते हैं। नाटक के इसी भाग में वासन्ती काशी विजयी ‘कालिदास’ का स्वागत उनके गले में पुष्पमाला डालकर करती है।

तृतीय अंक – नाटक के तृतीय तथा अन्तिम अंक की कथा ‘अवन्ति’ में प्रस्तुत की गयी है। विषमशील के नेतृत्व में अनेक वीरों ने मालवा को शकों से मुक्त कराया। विषमशील के शौर्य के कारण अनेक राजा उसके समर्थक हो जाते हैं। अवन्ति में महाकाल का एक मन्दिर है, इस पर गरुड़ध्वज फहराता रहता है। मन्दिर का पुजारी मलयवती और वासन्ती को बताता है कि युद्ध की सभी योजनाएँ इसी मन्दिर में बनती हैं। इसी समय विषमशील युद्ध जीतकर आते हैं तथा काशिराज अपनी पुत्री वासन्ती का विवाह कालिदास के साथ विक्रममित्र की आज्ञा लेकर कर देते हैं। इसी अंक में विषमशील का राज्याभिषेक होता है तथा कालिदास को मन्त्री-पद पर नियुक्त किया जाता है। राजमाता जैन आचार्यों को क्षमादान देती हैं। कालिदास की मन्त्रणा से विषमशील का नाम उसके पिता महेन्द्रादित्य तथा किंक्रममित्र के आधार पर विक्रमादित्य रखा जाता है। विक्रममित्र संन्यासी बन जाते हैं तथा कालिदास अपने राजा विक्रमादित्य के नाम पर उसी दिन से विक्रम संवत् का प्रवर्तन करते हैं। नाटक की कथा यहीं समाप्त हो जाती है।

प्रश्न 2:
नाटक के तत्वों (नाट्यकला की दृष्टि) के आधार पर ‘गरुडध्वज’ नाटक की समीक्षा (आलोचना) कीजिए।
या
‘गरुड़ध्वज’ नाटक में निहित सन्देश पर प्रकाश डालिए।
या
पात्र तथा चरित्र-चित्रण की दृष्टि से ‘गरुड़ध्वज’ नाटक की समीक्षा कीजिए।
या
संवाद-योजना (कथोपकथन) की दृष्टि से ‘गरुड़ध्वज’ नाटक की विवेचना कीजिए।
या
‘गरुड़ध्वज’ नाटक की भाषा-शैली की समीक्षा कीजिए।
या
‘गरुड़ध्वज’ नाटक के देश-काल तथा वातावरण की समीक्षा कीजिए।
या
अभिनेयता अथवा रंगमंच की दृष्टि से ‘गरुडध्वज’ नाटक की सफलता पर प्रकाश डालिए।
या
‘गरुड़ध्वज’ नाटक के उद्देश्य पर अपने विचार व्यक्त कीजिए।
या
‘गरुड़ध्वज’ नाटक की विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:

‘गरुडध्वज’ की तात्त्विक समीक्षा

नाटक के तत्त्वों की दृष्टि से श्री लक्ष्मीनारायण मिश्र कृत ‘गरुड़ध्वज’ एक उच्चकोटि की रचना है। इसका तात्त्विक विवेचन निम्नवत् है

(1) कथावस्तु (कथानक) – नाटक की कथावस्तु ऐतिहासिक है। इसमें ईसा से एक शताब्दी पूर्व के प्राचीन भारत का सांस्कृतिक, सामाजिक एवं राजनीतिक परिवेश चित्रित किया गया है। प्रथा अंक में कार्य का आरम्भ हुआ है, दूसरे अंक में उसका विकास है तथा तीसरे अंक में चरम-सीमा, उतार तथा समाप्ति है। प्रथम अंक में विक्रममित्र के चरित्र, काशिराज का अनैतिक चरित्र तथा वासन्ती की असन्तुलित मानसिक दशा के साथ ही समाज में बौद्ध भिक्षुओं द्वारा किये जा रहे अनाचार का चित्रण किया है। विदेशियों के आक्रमण और बौद्ध धर्मावलम्बियों द्वारा राष्ट्रहित को त्यागकर उनकी सहायता इसमें चित्रित की गयी है। दूसरा अंक राष्ट्रहित में धर्म-स्थापना के संघर्ष की है। इस अंक में विक्रममित्र की दृढ़ता एवं वीरता का परिचय प्राप्त होता है। साथ ही , उनके कुशल नीतिज्ञ और एक अच्छे मनुष्य होने का बोध भी होता है। तीसरे अंक के अन्तर्गत युद्ध में विदेशियों की पराजय, कालकाचार्य एवं काशिराज का पश्चात्ताप विक्रममित्र की उदारता तथा आक्रमणकारी हूणों की क्रूर जातिगत प्रकृति को चित्रित किया गया है। इस नाटक का कथानक राज्य के संचालन, धर्म, अहिंसा एवं हिंसा के वास्तविक स्वरूप पर प्रकाश डालता है।

(2) पात्र और चरित्र-चित्रण – पात्र और चरित्र-चित्रण की दृष्टि से यह एक सफल नाटक है। प्रस्तुत नाटक में 14 पुरुष-पात्रों और 4 स्त्री-पात्रों को मिलाकर कुल 18 पात्र हैं। इसके मुख्य पात्र हैं – विक्रममित्र, विषमशील, कालिदास, मलयवती, वासन्ती, काशी-नरेश और कुमार कार्तिकेय। पात्रों में विविध प्रकार के चरित्र हैं-सदाचारी, वीर, साहित्यकार, संगीतकार, लम्पट तथा देशद्रोही। विक्रममित्र आजीवन ब्रह्मचारी रहने के कारण परिचित जनों द्वारा ‘भीष्म पितामह’ के नाम से पुकारे जाते हैं। पात्रों का चरित्र-चित्रण नाटक के कथ्य के अनुसार ही किया गया है। मुख्य पात्र विक्रममित्र हैं, सम्पूर्ण नाटक इनके चारों ओर ही घूमता है। चरित्रों के द्वारा नाटक के कथ्य को दर्शकों तक पहुँचाने के लिए इसके सभी पात्रों का चित्रण उपयुक्त है। निरर्थक पात्र-योजना का समावेश नहीं किया गया है।

(3) भाषा-शैली – ‘गरुड़ध्वज’ की भाषा सुगम, संस्कृतनिष्ठ खड़ी बोली हिन्दी है। नाटक में लक्ष्मीनारायण मिश्र जी ने सहज, सरल एवं सुबोध शैली का प्रयोग किया है। भाषा में कहीं-कहीं क्लिष्टता है, किन्तु मुहावरों तथा लोकोक्तियों का प्रयोग सफलता से हुआ है, जिसने नाटक की भाषा को सहज, सरल और आकर्षक बना दिया है। ऐतिहासिक नामों के प्रयोग विभिन्न घटनाओं के साथ इस प्रकार आये हैं कि उन्हें समझना आसान है। मिश्र जी ने विचारात्मक, दार्शनिक, हास्यात्मक आदि शैलियों का पात्रों के अनुकूल प्रयोग किया है। भाषा-शैली की दृष्टि से यह एक सफल रचना है। नाटक में प्रयुक्त स्वाभाविक भाषा का एक उदाहरण देखिए-”मैं लज्जा और संकोच से मरने लगता हूँ राजदूत! जब इस युग का सारा श्रेय मुझे दिया जाता है। आत्म-स्तुति । से प्रसन्न नास्तिक होते हैं। उसके भीतर जो दैवी अंश था उसी ने उसे कालिदास बना दिया। उसकी शिक्षा और संस्कार में मैं प्रयोजन मात्र बना था। उसका पालन मैंने ठीक इसी तरह किया, जैसे यह मेरे अंश का ही नहीं, मेरे इस शरीर का हो।”

(4) संवाद-योजना (कथोपकथन – नाटक का सबसे सबल तत्त्व उसका संवाद होता है। संवादों के द्वारा ही पात्रों का चरित्र-चित्रण किया जाता है। इस दृष्टि से नाटककार ने संवादों का उचित प्रयोग किया है। नाटक के संवाद सुन्दर हैं। तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था के अनुरूप संवादों की रचना की गयी है। संवाद संक्षिप्त, परन्तु प्रभावशाली हैं। वे पात्रों की मनोदशा तथा भावनाओं को स्पष्ट करने में समर्थ हैं; जैसे
वासन्ती-नहीं …….नहीं, बस दो शब्द पूगी कवि ! लौट आओ ……।।
कालिदास—(विस्मय से) क्या है राजकुमारी ?
वासन्ती–यहाँ आइए ! आज मैं कुमार कार्तिकेय का स्वागत करूसँगी। उनका वाहन मोर भी यहीं है।
संवादों में कहीं-कहीं हास्य, व्यंग्य, विनोद तथा संगीतात्मकता का पुट भी मिलता है।

(5) देश-काल तथा वातावरण – नाटक में देश-काल तथा वातावरण का निर्वाह उचित रूप में हुआ है। नाटक में ईसा पूर्व की सांस्कृतिक, धार्मिक तथा राजनीतिक हलचलों को सुन्दर तथा उचित प्रस्तुतीकरण है। नाटककार तत्कालीन समाज के वातावरण का चित्रण करने में पूर्णरूपेण सफल रहा है। तत्कालीन समाज में राजमहल, युद्ध-भूमि, पूजागृह, सभामण्डल आदि का वातावरण अत्यन्त कुशलतापूर्वक चित्रित किया गया है। नाम, स्थान तथा वेशभूषा में देश-काल तथा वातावरण का सुन्दर सामंजस्य देखने को मिलता है।

(6) उद्देश्य अथवा सन्देश – नाटक का उद्देश्य, अतीत की घटनाओं के माध्यम से वर्तमान भारतीयों को उच्च चरित्र, आदर्श मानवता तथा ईमानदारी के साथ-साथ देश के नव-निर्माण का सन्देश देना भी है। नाटककार उदार धार्मिक भावनाओं को व्यंजित करके धर्मनिरपेक्षता पर बल देता है। वह देश की रक्षा और अन्यायियों के विनाश के लिए शस्त्रों के उपयोग का समर्थन करता है। नाटक के तीन अंक हैं। तीनों अंकों में एक-एक मुख्य घटना है। ये घटनाएँ क्रमशः न्याय, राष्ट्रीय एकता और राष्ट्रीय शौर्य को प्रदर्शित करती हैं। नाटक की भूमिका में नाटककार स्वयं कहते हैं-”सम्पूर्ण नाटक राष्ट्र की एकता और संस्कृति का सन्देश अपनी घटनाओं में अभिव्यक्त करता है।”

(7) अभिनेयता – ‘गरुड़ध्वज’ नाटक मंच पर अभिनीत किया जा सकता है। नाटक में मात्र तीन अंक हैं। वेशभूषा का प्रबन्ध भी कठिन नहीं है। एकमात्र कठिनाई नाटक की दुरूह भाषा तथा पात्रों के कठिन नाम हैं, जो कहीं-कहीं सफल संवाद-प्रेषण में कठिनाई उत्पन्न कर सकते हैं, परन्तु देश-काल के सजीव चित्रण के लिए, यह आवश्यक था।
इस प्रकार यह नाटक रचना-तत्त्वों की दृष्टि से एक सफल रचना है।

प्रश्न 3:
‘गरुडध्वज’ नाटक के नायक की चारित्रिक विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
या
‘गरुड़ध्वज’ नाटक के प्रमुख पुरुष पात्र का चरित्र-चित्रण कीजिए।
या
विक्रममित्र की चारित्रिक विशेषताओं का उद्घाटन कीजिए।
या
‘गरुडध्वज’ नाटक के आधार पर विक्रममित्र के चरित्र पर प्रकाश डालिए।
या
‘गरुड़ध्वज’ नाटक के किसी पुरुष पात्र का चरित्र-चित्रण कीजिए।
उत्तर:

विक्रममित्र का चरित्र-चित्रण

श्री लक्ष्मीनारायण मिश्र कृत ‘गरुड़ध्वज’ नाटक में विषमशील तथा विक्रममित्र दो प्रमुख पात्र हैं। नाटक के नायक विक्रममित्र हैं, जो नाटक के आरम्भ से अन्त तक की सभी घटनाओं के साथ जुड़े रहते हैं। यह कहा जा सकता है कि सारे कथानक के मेरुदण्ड विक्रममित्र ही हैं, जिन्होंने मूल कथा को सबसे अधिक प्रभावित किया है। विक्रममित्र, पुष्यमित्र शुंग के वंश के अन्तिम शासक हैं। वे ब्रह्मचारी, सदाचारी, वीर, कुशल राजनीतिज्ञ तथा प्रजावत्सल हैं। वह शासन का संचालन कुशलता से करते हैं। उनके चरित्र की प्रमुख विशेषताएँ निम्नवत् हैं-

(1) सज्जन महापुरुष  – विक्रममित्र सज्जन महापुरुष हैं। वे स्वयं को ‘महाराज’ कहलवाना पसन्द नहीं करते, अतः लोग उन्हें सेनापति’ कहते हैं। नारियों के प्रति सम्मान का भाव सदा उनके मन में रहता है।

(2) अनुशासनप्रिय – विक्रममित्र अनुशासनप्रिय हैं तथा कठोर अनुशासन का पालन करने और कराने के पक्षधर हैं। सेनापति के स्थान पर ‘महाराज’ कहे जाने पर सेवक को डर लगता है कि कहीं सेनापति उसे दण्ड न दे दें। विक्रममित्र के शासन में अनुशासन भंग करना और मर्यादा का उल्लंघन करना अक्षम्य अपराध है।

(3) प्रजा के सेवक – विक्रममित्र अपनी प्रजा को अपनी सन्तान की भाँति स्नेह करते हैं। वे अत्याचारी नहीं हैं। उनका मत है-‘सेनापति धर्म और जाति का सबसे बड़ा सेवक है।”

(4) भागवत धर्म के रक्षक – विक्रममित्र भारतवर्ष में मिटती हुई वैदिक संस्कृति तथा ब्राह्मण धर्म के रक्षक हैं। वे भागवत धर्म और उसकी प्रतिष्ठा के लिए आजीवन संघर्ष करते हैं। उनको सेवक कालिदास काशी में हुए शास्त्रार्थ में बौद्धों को निरुत्तर कर देता है।

(5) संगठित राष्ट्र-निर्माता – उस समय देश छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त था। विक्रममित्र ने उन्हें इकट्ठा करने का सफल प्रयास किया। विक्रममित्र का मत है – “देश का गौरव, इसके सुख और शान्ति की रक्षा मेरा धर्म है।” वे कालिदास का विवाह काशी-नरेश की पुत्री से कराते हैं। विक्रममित्र के संन्यास के समय तक मगध, साकेत तथा अवन्ति को मिलाकर एक सुदृढ़ राज्य की स्थापना हो चुकी होती है।

(6) निष्काम कर्मवीर –  विक्रममित्र राजा होते हुए भी महाराजा कहलाना पसन्द नहीं करते। वे स्वयं को प्रजा का सेवक ही मानते हैं। विषमशील के योग्य हो जाने पर वे उसे शासक बनाकर स्वयं संन्यासी हो जाते हैं। कालिदास का उन्हें भीष्म पितामह कहना सटीक सम्बोधन है।

(7) नीतिप्रिय – आचार्य विक्रममित्र नीति के अनुसार चलने वाले जननायक हैं। कुमार विषमशील की सफलता का एकमात्र कारण सेनापति विक्रममित्र की नीतियाँ ही हैं। वह नागसेन और पुष्कर से कहते हैं- “तुम जानते हो विक्रममित्र के शासन में अनीति चाहे कितनी छोटी क्यों न हो, छिपी नहीं रह सकती है।”

(8) शरणागतवत्सल – विक्रममित्र अपनी शरण में आये हुए की रक्षा करते हैं। चंचु और कालकाचार्य को क्षमा-दान देना उनकी शरणागतवत्सलता के प्रमाण हैं।

(9) निरभिमानी – विक्रममित्र शासक होते हुए भी अभिमान से कोसों दूर रहते हैं। वे हलोदर से कहते हैं-”मैं लज्जा और संकोच से मरने लगता हूँ; राजदूत! जब इस युग का सारा श्रेय मुझे दिया जाता है।”

इस प्रकार विक्रममित्र न्यायप्रिय, प्रजावत्सल, वीर शासक तथा निष्काम महामानव हैं।

प्रश्न 4:
‘गरुड़ध्वज़’ के आधार पर कालिदास का चरित्र-चित्रण कीजिए।
या
‘गरुडध्वज’ के अन्य पुरुष-पात्रों की तुलना में कालिदास की चारित्रिक विशेषताओं को प्रकाशित कीजिए।
उत्तर:
‘गरुड़ध्वज’ के पुरुष पात्रों में कालिदास भी एक प्रमुख पात्र हैं। विक्रममित्र शुंगवंशीय शासक एवं वीर सेनापति के रूप में प्रमुख पात्र है। इसके पश्चात् द्वितीय एवं तृतीय क्रम पर क्रमशः विषमशील, कालिदास का ही नाम आता है। विषमशील और विक्रममित्र तो प्रबुद्ध, शासक, सेनापति और शूरवीर पुरुष हैं। कालिदास शकारि विक्रमादित्य के दरबारी रत्नों में एक मुख्य रत्न माने जाते थे। ये एक विद्वान् कवि थे और वीर सैनिक भी थे; अतः वे विषमशील तथा विक्रममित्र से भी कुछ अधिक गुणों के स्वामी हैं। उनकी चरित्र की कुछ प्रमुख विशेषताएँ अग्रवत् हैं

(1) वीरता – कालिदास एक वीर पुरुष हैं। जब देवभूति कौमुदी का अपहरण कर लेता है तो कालिदास उसे काशी में घेर कर पकड़ लाते हैं। उसकी इसी वीरता पर मुग्ध होकर काशी की राजकुमारी वासन्ती उससे प्रेम करने लगती है और काशिराज भी प्रसन्न होकर उन दोनों के विवाह की स्वीकृति देते हैं।

(2) सच्चा-मित्र – कालीदास विषमशील का मित्र है, इसीलिए विषमशील के साथ उसका हास-परिहास चलता रहता है। वह मलयवती के बारे में राजकुमार विषमशील से चुटकी लेता हुआ कहता है
“किस तरह भूल गये विदिशा के प्रासाद का वह उपवन ……….”। घूम-घाम कर मलयवती को आँखों से पी जाना चाहते थे।”

(3) सच्चा-प्रेमी और कवि – वह वासन्ती का सच्चा प्रेमी है। वासन्ती को भी उस पर पूरा विश्वास है। वह वासन्ती के बारे में कहता है-“मैं सब कुछ जानता हूँ। उन्होंने तो उस यवन को देखा भी नहीं, फिर उसकी पवित्रता में शंका उत्पन्न करना तो पार्वती की पवित्रता में शंका उत्पन्न करना होगा। इसके अतिरिक्त वे एक महाकवि भी हैं। जैसा कि मलयवती ने कहा भी है-”क्यों महाकवि को यह क्या सूझी है ?” निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि कालिदास ‘गरुड़ध्वज’ के अन्य पुरुष-पात्रों की अपेक्षा विलक्षण हैं। वे वीर, सच्चे मित्र, सच्चे प्रेमी और महाकवि भी हैं। वे शासक भी हैं और शासित भी; वे वीर हैं, न्यायप्रिय हैं, कठोर हैं और कोमल भी हैं।

प्रश्न 5:
‘गरुड़ध्वज’ के आधार पर विषमशील का चरित्र-चित्रण कीजिए।
उत्तर:
कुमार विषमशील ‘गरुड़ध्वज’ नाटक के दूसरे प्रमुख पात्र हैं। ये धीरोदात्त स्वभाव के उच्च कुलीन श्रेष्ठ पुरुष हैं। आदि से अन्त तक इनके चरित्र का क्रमिक विकास होता है। इनके चरित्र में निम्नलिखित विशेषताएँ पायी जाती हैं:

(1) उदार और गुणग्राही – कुमार विषमशील मालवा के गर्दभिल्लवंशी महाराज महेन्द्रादित्य के वीर सुपुत्र हैं। अपने महान् कुल के अनुरूप ही उनमें उदारता और गुणग्राहकता विद्यमान है। कवि कालिदास की विद्वत्ता, वीरता आदि गुणों को देखकर वे उनके गुणों पर ऐसे मुग्ध हो जाते हैं कि उनसे अलग होना नहीं चाहते।

(2) महान् वीर – वीरता कुमार विषमशील के चरित्र की महती विशेषता है। अपनी वीरता के कारण वह शकारि क्षत्रियों को पराजित कर भारी विजय प्राप्त करते हैं। कुमार की वीरता और योग्यता को देखकर ही आचार्य विक्रममित्र उसे सम्राट बनाकर निश्चिन्त हो जाते हैं।

(3) सच्चा-प्रेमी – कुमार विषमशील एक भावुक व्यक्ति है। उसके हृदय में दया, प्रेम, उत्साह आदि मानवीय भावनाएँ पर्याप्त मात्रा में पायी जाती हैं। स्वभाव से धीर होते हुए भी कुमारी मलयवती को देखकर उनके हृदय में प्रेम अंकुरित हो जाता है।

(4) विवेकशील – कुमार विषमशील एक विवेकशील व्यक्ति के रूप में चित्रित हुए हैं। वे भली-भाँति समझते हैं कि किस प्रकार, किस अवसर पर अथवा किस स्थान पर किस प्रकार की बात करनी चाहिए। कालिदास के साथ उसका व्यवहार मित्रों जैसा होता है, हास और उपहास भी होता है किन्तु सेनापति विक्रममित्र के सामने वे सर्वत्र संयत और शिष्ट-आचरण करते हैं। वासन्ती और मलयवती के साथ बातें करते समय वह भावुक हो। उठते हैं। किसी काम को करने से पूर्व वह विवेक से काम लेते हैं तथा उसके दूरगामी परिणाम को सोचते हैं। जब सेनापति विक्रममित्र साकेत और पाटलिपुत्र का राज्य भी उसे सौंपते हैं तो वह बहुत विवेक से काम लेता । है। अवन्ति में रहकर सुदूर पूर्व के इन राज्यों की व्यवस्था करना कोई सरल काम नहीं था। इसलिए वह विक्रममित्र से निवेदन करता है ।
“आचार्य! अभी कुछ दिन आप महात्मा काशिराज के साथ उधर की व्यवस्था करें। मैं चाहता हूँ, मेरे सिर पर किसी मनस्वी ब्राह्मण की छाया रहे और फिर मैं यह देख भी नहीं सकता कि जिस क्षेत्र में प्रायः डेढ़ सौ वर्षों से आपके पूर्व-पुरुषों का अनुशासन रहा, वह अकस्मात् इस प्रकार मिट जाये।”

(5) कृतज्ञता – कुमार विषमशील दूसरे के किये हुए उपकार से अपने को उपकृत मानता है। कालिदास के उपकार के प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हुए वह कहता है “और वह राज्य मुझे देकर मुझ पर, मेरे मन, मेरे प्राण पर राज्य करने की युक्ति निकाल ली।………. मैं सुखी हूँ ……… तुम्हारा अधिकार मेरे मन पर सदैव बना रहे ……… महाकाल से मेरी यही कामना है।”

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि कुमार विषमशील का चरित्र एक सुयोग्य राजकुमार का चरित्र है। वह स्वभाव से उदार, गुंणग्राही तथा भावुक व्यक्ति है। उसमें वीरता, विवेकशीलता आदि कुछ ऐसे गुण हैं जिनके आधार पर उसमें एक श्रेष्ठ शासक बनने की क्षमता सिद्ध हो जाती है। उसका चरित्र स्वाभाविक तथा मानवीय है।

प्रश्न 6:
‘गरुड़ध्वज’ के आधार पर वासन्ती का चरित्र-चित्रण कीजिए।
या
‘गरुड़ध्वज’ नाटक के किसी नारी-पात्र का चरित्र-चित्रण कीजिए।
या
‘गरुड़ध्वज’ के प्रमुख नारी-पात्र के विषय में अपने विचार प्रकट कीजिए।
या
‘गरुड़ध्वज’ नाटक की नायिका (प्रमुख नारी-पात्र) का चरित्र-चित्रण कीजिए।
या
क्या वासन्ती का चरित्र आधुनिक नारियों के लिए अनुकरणीय है ? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:

वासन्ती का चरित्र-चित्रण

श्री लक्ष्मीनारायण मिश्र कृत ‘गरुड़ध्वज’ नाटक की नायिका वासन्ती है। वासन्ती काशिराज की इकलौती पुत्री है। बौद्ध धर्म के अनुयायी होने के कारण वे वासन्ती का विवाह किसी राजकुल में नहीं कर पाते, अतः अपनी युवा पुत्री का विवाह शाकल के 50 वर्षीय यवन राजकुमार से निश्चित करते हैं, किन्तु इसी बीच विक्रममित्र के प्रयास से यह विवाह बीच में रोक दिया जाता है और वासन्ती को राजमहल में सुरक्षित पहुँचा दिया जाता है। बाद में वह कालिदास की प्रेयसी के रूप में हमारे सम्मुख आती है। वासन्ती के चरित्र में निम्नलिखित प्रमुख विशेषताएँ पायी जाती हैं

(1) अनुपम सुन्दरी – वासन्ती रूप और गुण दोनों में अद्वितीय है। उसका सौन्दर्य कालिदास जैसे संयमी पुरुष को भी आकर्षित कर लेता है। उसके सौन्दर्य की प्रशंसा करते हुए कुमार विषमशील कालिदास से कहते हैं  “और तुम्हारी वासन्ती-रूप और गुण का इतना अद्भुत मिश्रण ………… पता नहीं, कितने कुण्ड इस पर्वतीय स्रोत के सामने फीके पड़ेंगे।”

(2) उदारता और प्रेमभावना से परिपूर्ण – वासन्ती विश्व के समस्त प्राणियों के लिए अपने हृदय में उदार भावना रखती है। उसमें बड़े-छोटे, अपने-पराये सभी के लिए एक समान प्रेमभाव ही भरा हुआ है।

(3) धार्मिक संकीर्णता से त्रस्त – पिता के बौद्ध धर्मानुयायी होने के कारण कोई भी राज-परिवार वासन्ती से विवाह-सम्बन्ध के लिए तैयार नहीं होता। अन्त में उसके पिता काशिराज उसे 50 वर्षीय यवन राजकुमार को सौंप देने का निश्चय कर लेते हैं, जब कि वासन्ती उससे विवाह नहीं करना चाहती। इस प्रकार वासन्ती तत्कालीन समाज में व्याप्त धार्मिक संकीर्णता से त्रस्त है। धार्मिक संकीर्णता से ऊपर उठना चाहिए तथा योग्य व्यक्ति का वरण करना चाहिए।

(4) आत्मग्लानि से विक्षुब्ध – वासन्ती आत्मग्लानि से विक्षुब्ध होकर अपने जीवन से छुटकारा पाना चाहती है। और अपनी जीवन-लीला समाप्त करने का प्रयास करती है, परन्तु विक्रममित्र उसको ऐसा करने से रोक लेते हैं। वह असहाय होकर कहती है-”वह महापुरुष कौन होगा, जो स्वेच्छा से आग के साथ विनोद करेगा।” नारियों को इस तरह की भावना को त्यागकर साहसपूर्वक जीवनयापन करना चाहिए और समाज के सामने एक उदाहरण प्रस्तुत करना चाहिए।

(5) स्वाभिमानिनी – वासन्ती धार्मिक संकीर्णता से त्रस्त होने पर भी अपनी स्वाभिमान नहीं खोती। वह किसी ऐसे राजकुमार से विवाह-बन्धन में नहीं बँधना चाहती, जो विक्रममित्र के दबाव के कारण ऐसा करने के लिए विवश हो। अतः आधुनिक नारियों को भी इस तरह संकल्प लेना चाहिए।

(6) सहृदय और विनोदप्रिय – वासन्ती विक्षुब्ध और निराश होने पर भी सहृदय और विनोदप्रिय दृष्टिगोचर . होती है। वह कालिदास के काव्य-रस का पूरा आनन्द लेती है।

(7) आदर्श प्रेमिका – वासन्ती एक सहृदया, सुन्दर, आदर्श प्रेमिका है। वह निष्कलंक और पवित्र है।

सार रूप में यह कहा जा सकता है कि वासन्ती एक आदर्श नारी-पात्र है और इस नाटक की नायिका है|

वासन्ती का चरित्र आधुनिक नारियों के लिए अनुकरणीय है।

प्रश्न 7:
‘गरुड़ध्वज’ नाटक के आधार पर मलयवती का चरित्र-चित्रण कीजिए।
उत्तर:

मलयवती का चरित्र-चित्रण

मलयवती; श्री लक्ष्मीनारायण मिश्र कृत ‘गरुड़ध्वज’ नाटक के नारी-पात्रों में एक प्रमुख पात्र है। सम्पूर्ण नाटक में अनेक स्थलों पर उसका चरित्र पाठकों को आकर्षित करता है। उसके चरित्र की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

(1) अपूर्व सुन्दरी – मलयवती का व्यक्तित्व अत्यन्त प्रभावपूर्ण है। वह मलय देश की राजकुमारी और अपूर्व सुन्दरी है। विदिशा के राजप्रासाद के उपवन में उसके रूप-सौन्दर्य को देखकर कुमार विषमशील भी उस पर मुग्ध हो जाते हैं।

(2) ललित कलाओं में रुचि रखने वाली – मलयवती की ललित-कलाओं में विशेष रुचि है। ललित कलाओं में दक्ष होने के उद्देश्य से ही वह विदिशा जाती है और वहाँ मलय देश की चित्रकला, संगीतकला आदि भी
सीखती है।

(3) विनोदप्रिय – राजकुमारी मलयवती प्रसन्नचित्त और विनोदी स्वभाव की है। वासन्ती उसकी प्रिय सखी है। और वह उसके साथ खुलकर हास-परिहास करती है। जब राजभृत्य उसे बताता है कि महाकवि कह रहे थे कि मलयवती और वासन्ती दोनों को ही राजकुमारी के स्थान पर राजकुमार होना चाहिए था तो मलयवती कहती है-“क्यों महाकवि को यह सूझी है? इस पृथ्वी की सभी कुमारियाँ कुमार हो जाएँ, तब तो अच्छी रही। कह देना महाकवि से इस तरह की उलट-फेर में कुमारों को कुमारियाँ होना होगा और महाकवि भी कहीं उस चक्र में न आ जाएँ।’

(4) आदर्श प्रेमिका – मलयवती के हृदय में कुमार विषमशील के प्रति प्रेम का भाव जाग्रत हो जाता है। वह विषमशील का मन से वरण कर लेने के उपरान्त, एकनिष्ठ भाव से केवल उन्हीं का चिन्तन करती है। वह स्वप्न में भी किसी अन्य की कल्पना करना नहीं चाहती। उसका प्रेम सच्चा है और उसे अपने प्रेम पर पूर्ण विश्वास है। अन्ततः प्रेम की विजय होती है और कुमार विषमशील के साथ उसका विवाह हो जाता है। इस प्रकार मलयवती का चरित्र एवं व्यक्तित्व अनुपम है। वह एक आदर्श राजकुमारी की छवि प्रस्तुत करती है।

प्रश्न 8.
” ‘गरुडध्वज’ नाटक राष्ट्र की एकता और संस्कृति का सन्देश अपनी घटनाओं में अभिव्यक्त करता है।” नाटक की कथावस्तु से इस कथन की पुष्टि कीजिए।
या
” ‘गरुड़ध्वज’ नाटक में राष्ट्र की एकता और संस्कृति का सन्देश है।” इस कथन को स्पष्ट कीजिए।
या
‘गरुड़ध्वज’ नाटक की राष्ट्रीयता को स्पष्ट कीजिए।
या
“राष्ट्र को गतिशील बनाने वाले जो उच्च विचार हैं, वे ‘गरुड़ध्वज’ नाटक में समाविष्ट हैं।” विवेचना कीजिए।
या
‘गरुड़ध्वज’ नाटक में युगीन समाज का यथार्थ चित्र प्रस्तुत किया गया है? स्पष्ट कीजिए।
या
‘मरुड़ध्वज’ नाटक के शीर्षक की सार्थकता को स्पष्ट कीजिए।
या
‘गरुड़ध्वज’ में राष्ट्रीय भावना का संयोजन है। स्पष्ट कीजिए।
या
‘गरुड़ध्वज’ नाटक में ‘नीति और संस्कृति के मानदण्ड स्थापित हैं। इस कथन पर प्रकाश डालिए।
या
राष्ट्रीय एकता और सामाजिक समरसता की दृष्टि से ‘गरुड़ध्वज’ नाटक कितना समर्थ है ? साधार स्पष्ट कीजिए।
या
‘गरुड़ध्वज’ नाटक के कथानक में न्याय और राष्ट्रीय एकता पर विचार व्यक्त कीजिए।
उत्तर:

‘गरुड़ध्वज’ का महत्त्व

श्री लक्ष्मीनारायण मिश्र द्वारा रचित ‘गरुड़ध्वज’ नाटक में ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी के भारतीय इतिहास के एक महत्त्वपूर्ण युग के धुंधले स्वरूप को चित्रित किया गया है, जो भारत की राष्ट्रीय एकता और प्राचीन संस्कृति को प्रस्तुत करता है। इसमें तत्कालीन न्यायव्यवस्था का स्वरूप भी परिलक्षित होता है।
राष्ट्रीय एकता और भारतीय संस्कृति का चित्रण – प्रस्तुत नाटक में मगध, साकेत, अवन्ति और मलय देश के एकीकरण की घटना, सुदृढ़ भारत राष्ट्र के निर्माण, राष्ट्रीय अखण्डता तथा एकता की प्रतीक है। विक्रममित्र तथा विषमशील के चरित्र सशक्त राष्ट्र के निर्माता और राष्ट्रीय एकता के संरक्षक-सन्देशवाहक हैं। इस नाटक में नाटककार धार्मिक संकीर्णताओं और स्वार्थों के परिणामस्वरूप देश की विशृंखलता और अध:पतन की ओर पाठकवर्ग का ध्यान आकर्षित करके राष्ट्र को एकता के सूत्र में बाँधने का सन्देश देता है। नाटक का नायक विक्रममित्र वैदिक संस्कृति और भागवत् धर्म का उन्नायक है। वह भगवान् विष्णु का उपासक है, इसीलिए उसका राजचिह्न गरुड़ध्वज है, जो उसके लिए सर्वाधिक पवित्र और पूज्य है। वह सनातन भागवत धर्म की ध्वजा सर्वत्र फहरा देता है। इस दृष्टि से नाटक का शीर्षक ‘गरुड़ध्वज’ भी सार्थक हो उठी है।

निष्पक्ष एवं सुदृढ़ न्याय-व्यवस्था – प्राचीन भारत में न्याय निष्पक्ष होता था। शासक द्वारा प्रत्येक नागरिक की भाँति अपने रिवारजनो को भी अपराध के लिए समान कठोर दण्ड दिये जाने की व्यवस्था थी। नाटक के प्रथम अंक’ की घरना इसका उदाहरण है। शुंग वंश के कुमार सेनानी देवभूति ने श्रेष्ठी अमोघ की कन्या कौमुदी को अपहरण विह-मण्डप से कर लिया। इस समाचार से विक्रममित्र बहुत दु:खी हुए। देवभूति शुंग साम्राज्य के शासक हैं, किन्तु विक्रममित्र अपने सैनिकों को तत्काल काशी का घेरा डालने और देवभूति को पकड़ने का आदेश देते हैं। यह तत्कालीन निष्पक्ष एवं सुदृढ़ न्याय-व्यवस्था का स्पष्ट प्रमाण है।

प्रश्न 9:
‘गरुड़ध्वज’ नाटक की ऐतिहासिकता प्रमाणित कीजिए।
या
‘गरुडध्वज’ नाटक की कथावस्तु के ऐतिहासिक पक्ष को स्पष्ट कीजिए।
या
” ‘गरुडध्वज’ की कथा में ऐतिहासिकता एवं काल्पनिकता का मेल है।” इस कथन का विवेचन कीजिए।
या
‘गरुड़ध्वज’ नाटक में अभिव्यक्त सांस्कृतिक चेतना पर प्रकाश डालिए।
या
‘गरुड़ध्वज’ नाटक में नाटककार ने इतिहास के किस काल को अपनी रचना के विषय रूप में चुना है, प्रकाश डालिए।
उत्तर:

‘गरुड़ध्वज’ की ऐतिहासिकता तथा संस्कृति

श्री लक्ष्मीनारायण मिश्र द्वारा रचित ‘गरुड़ध्वज’ नाटक में ईसा से एक शती पूर्व के समय का वर्णन है। उस समय भारत में विक्रमादित्य नाम का एक शासक था। नाटक में कुमार विषमशील का नामकरण ‘विक्रमादित्य’ हुआ है। शुंग वंश में सेनापति पुष्यमित्र के वंश में विक्रममित्र अन्तिम ऐतिहासिक व्यक्ति हुए। वंश-परम्परा का लोप, नाटककार के अनुसार विक्रममित्र के आजीवन ब्रह्मचारी रहने के कारण हुआ।

नाटक के प्रसिद्ध पात्र इतिहाससम्मत हैं; जैसे-तक्षशिला की यवन शासक अन्तिलिक, उसका मन्त्री हलोदर, शुंग साम्राज्य में काशी का शासक देवभूति, कालिदास, जैन आचार्य कोलके आदि। नाटक के कुछ स्थानों के नाम भी ऐतिहासिक हैं; जैसे—विदिशा, पाटलिपुत्र, अवन्ति, साकेत, काशी इत्यादि। घटना की दृष्टि से भी नाटक को इतिहास से अनुप्राणित किया गया है। विक्रमादित्य द्वारा शकों को पराजित करने की घटना, कालिदास का विक्रमादित्य का सभासद होना तथा ईसा से 57 वर्ष पूर्व विक्रम संवत् का प्रवर्तन होना इतिहास-सम्मत है। इस काल में भारत के सामाजिक परिवेश पर जैनों, बौद्धों तथा वैदिक धर्माचार्यों का प्रभाव था। नाटककार ने नाटक में सामाजिक, सांस्कृतिक तथा राजनीतिक परिस्थितियों का चित्रण करते समय इस तथ्य का ध्यान रखा है। भारत में उस समय अनेक गणराज्य थे। बौद्धों, सनातनियों तथा जैनियों के संघर्ष धार्मिक वातावरण को प्रभावित कर रहे थे। नाटक में नारी अपहरण के साथ-साथ विक्रममित्र द्वारा अपहरणकर्ता को दण्ड, प्रेम-विवाह, बहु-विवाह, संगीत तथा ललित-कलाओं में अभिरुचि का चित्रण करके तत्कालीन धार्मिक और सांस्कृतिक वातावरण को उद्घाटित करने का प्रयास किया गया है। विक्रममित्र मूलभूत वैदिक संस्कृति के आधार पर राज्य और समाज को चलाना चाहते थे। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि ‘गरुड़ध्वज’ नाटक में ऐतिहासिकता तथा तत्कालीन भारतीय संस्कृति को समन्वित रूप प्रस्तुत करके नाटककार ने स्तुत्य कार्य किया है।

प्रश्न 10:
‘गरुड़ध्वज’ नाटक की रचना नाटककार ने किन उद्देश्यों से प्रेरित होकर की है ?
या
‘गरुड़ध्वज’ के रचनात्मक उद्देश्य (प्रतिपाद्य) पर प्रकाश डालिए।
या
‘गरुड़ध्वज’ में किस समस्या को उठाया गया है ?
उत्तर:

‘गरुड़ध्वज’ का उद्देश्य

‘गरुड़ध्वज’ ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी के भारतीय इतिहास के कथानक पर आधारित नाटक है। नाटककार श्री लक्ष्मीनारायण मिश्र ने आदियुग के एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण किन्तु धुंधले स्वरूप को उजागर करने का प्रयास किया है। पाठकों के सम्मुख एक ज्वलन्त ऐतिहासिक तथ्य को प्रस्तुत किया गया है, जिसमें धार्मिक संकीर्णताओं तथा स्वार्थों के कारण देश की एकता के बिखराव और उसके नैतिक पतन की ओर ध्यान आकृष्ट करके नाटककार पूरे राष्ट्र को एकता के सूत्र में बाँधने का संकेत देता है। परोक्ष रूप में नाटक के निम्नलिखित उद्देश्य भी हैं

  1.  नाटककार को धार्मिक कट्टरता बिल्कुल भी मान्य नहीं है। वह धर्म और सम्प्रदाय की दीवारों से बाहर होकर लोक-कल्याण की ओर उन्मुख होना चाहता है।
  2. हलोदर के कथन में नाटककार स्वयं बोल रहा है। वह देश की रक्षा करना प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य मानता है।
  3.  उदार धार्मिक भावना का सन्देश ही नाटक का मूल स्वर है।
  4.  नाटक में राष्ट्रीय एकता एवं जनवादी विचारधारा का समर्थन किया गया है।
  5. वासन्ती, कौमुदी आदि नारियों के उद्धार के पीछे नारी के शील और सम्मान की रक्षा के लिए प्रेरणा देने का उद्देश्य निहित है।
  6. प्रस्तुत नाटक में धर्मनिरपेक्षता का उद्देश्य भी स्पष्ट रूप में चित्रित किया गया है।
  7.  नाटक में स्वस्थ गणराज्य की स्थापना पर बल दिया गया है।
  8. देश की रक्षा तथा अन्यायियों के विनाश के लिए शस्त्रों का उपयोग उचित माना गया है।

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