UP Board Solutions for Class 11 Sahityik Hindi काव्य सौन्दर्य के तत्त्व रस्

UP Board Solutions for Class 11 Sahityik Hindi काव्य सौन्दर्य के तत्त्व रस् are part of UP Board Solutions for Class 11 Sahityik Hindi . Here we have given UP Board Solutions for Class 11 Sahityik Hindi काव्य सौन्दर्य के तत्त्व रस्.

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 11
Subject Sahityik Hindi
Chapter Chapter 1
Chapter Name संस्कृत दिग्दर्शिका काव्य सौन्दर्य के तत्त्व रस्
Number of Questions 2
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 11 Sahityik Hindi काव्य सौन्दर्य के तत्त्व रस्

काव्य सौन्दर्य के तत्त्व

रस

प्रश्न 1:
रस क्या है? उसके अंगों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
श्रव्य काव्य पढ़ने या दृश्य काव्य देखने से पाठक, श्रोता या दर्शक को जो अलौकिक आनन्द प्राप्त होता है, उसे ‘रस’ कहते हैं। विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी (या संचारी) भावों के संयोग से रस की निष्पत्ति (अभिव्यक्ति) होती है। मनुष्य के हृदय में रति, शोक आदि कुछ भाव हर समय सुप्तावस्था में रहते हैं, जिन्हें स्थायी भाव कहते हैं। ये स्थायी भाव अनुकूल परिस्थिति या दृश्य उपस्थित होने पर जाग्रत हो जाते हैं। सफल कवि द्वारा वर्णित वृत्तान्त को पढ़ या सुनकर काव्य के पाठक या श्रोता को एक ऐसे अलौकिक आनन्द का अनुभव होती है कि वह स्वयं को भूलकर आनन्दमय हो जाता है। यही आनन्द काव्यशास्त्र में रस कहलाता है।

रस के अंग

रस के प्रमुख चार अवयव (अंग) हैं – (1) स्थायी भाव, (2) विभाव, (3) अनुभाव, (4) संचारी भाव। इन अंगों को परिचय निम्नलिखित है

(1) स्थायी भाव
रति (प्रेम), जुगुप्सा (घृणा), अमर्ष (क्रोध) आदि भाव मनुष्य के मन में स्वाभाविक रूप से सदा विद्यमान रहते हैं, इन्हें स्थायी भाव कहते हैं। ये नौ हैं और इसी कारण इनसे सम्बन्धित रस भी नौ ही हैं

स्थायी भाव                                                 रस
(1) रति                                                         शृंगार
(2) हास                                                        हास्य
(3) शोक                                                       करुण
(4) उत्साह                                                      वीर
(5) अमर्ष (क्रोध)                                            रौद्र
(6) भय                                                         भयानक
(7) जुगुप्सा (घृणा)                                         वीभत्स
(8) विस्मय (आश्चर्य)                                      अद्भुत
(9) निर्वेद (उदासीनता)                                  शान्त

रति नामक स्थायी भाव के प्राचीन ग्रन्थों में तीन भेद किये गये हैं–(i) कान्ताविषयक रति (नर-नारी को पारस्परिक प्रेम), (i) सन्ततिविषयक रति और (iii) देवताविषयक रति। अपत्य (सन्तान) विषयक रति की रस-रूप में परिणति करके सूर ने दिखा दी; अतः अब वात्सल्य रस को एक स्वतन्त्र रस की मान्यता प्राप्त हो गयी है। इसी प्रकार गोस्वामी तुलसीदास जी के काव्य-कौशल के फलस्वरूप देवताविषयक रति की भक्ति रस में परिणति होने से भक्ति रस भी एक स्वतन्त्र रस माना जाने लगी है; अतः अब रसों की संख्या ग्यारह हो गयी है–उपर्युक्त नौ तथा
(10) वात्सल्य रसवत्सलता (स्थायी भाव) तथा
(11) भक्ति रस देवताविषयक रति (स्थायी भाव)।

(2) विभाव
स्थायी भाव सामान्यत: सुषुप्तावस्था में रहते हैं, इन्हें जाग्रत एवं उद्दीप्त करने वाले कारणों को विभाव कहते हैं। विभाव निम्नलिखित दो प्रकार के होते हैं

(1) आलम्बन विभाव – जो स्थायी भाव को उद्बुद्ध (जाग्रत) करे वह आलम्बन विभाव कहलाता है। इसके निम्नलिखित दो अंग होते हैं

  • आश्रय – जिस व्यक्ति के हृदय में स्थायी भाव जाग्रत होता है, उसे आश्रय कहते हैं।
  • विषय – जिस वस्तु या व्यक्ति के कारण आश्रय के हृदय में रति आदि स्थायी भाव जाग्रत होते हैं, उसे विषय कहते हैं।

(2) उद्दीपन विभाव – जो जाग्रत हुए स्थायी भाव को उद्दीप्त करे अर्थात् अधिक प्रबल बनाये, वह उद्दीपन विभाव कहलाता है।

उदाहरणार्थ – श्रृंगार रस में प्रायः नायक-नायिका एक-दूसरे के लिए आलम्बन हैं और वने, उपवन, चाँदनी, पुष्प आदि प्राकृतिक दृश्य या आलम्बन के हाव-भाव उद्दीपन विभाव हैं। भिन्न-भिन्न रसों में आलम्बन और उद्दीपन भी बदलते रहते हैं; जैसे—युद्धयात्रा पर जाते हुए वीर के लिए उसका शत्रु ही आलम्बन है; क्योंकि उसके कारण ही वीर के मन में उत्साह नामक स्थायी भाव जगता है और उसके आस-पास बजते बाजे, वीरों की हुंकार आदि उद्दीपन हैं; क्योंकि इनसे उसका उत्साह और बढ़ता है।

(3) अनुभाव
आलम्बन तथा उद्दीपन के द्वारा आश्रय के हृदय में स्थायी भाव के जाग्रत तथा उद्दीप्त होने पर आश्रय में जो चेष्टाएँ होती हैं, उन्हें अनुभाव कहते हैं। अनुभाव दो प्रकार के होते हैं – (i) सात्त्विक और (ii) कायिक।

(i) सात्त्विक अनुभाव – जो शारीरिक विकार बिना आश्रय के प्रयास के स्वतः ही उत्पन्न होते हैं, वे सात्त्विक अनुभाव कहलाते हैं। ये आठ होते हैं

  1. स्तम्भ,
  2. स्वेद,
  3.  रोमांच,
  4.  स्वरभंग,
  5. कम्प,
  6.  वैवर्य,
  7. अश्रु एवं
  8. प्रलय (सुध-बुध खोना)।।

(ii) कायिक अनुभाव – इनका सम्बन्ध शरीर से होता है। जो चेष्टाएँ आश्रये अपनी इच्छानुसार जान-बूझकर प्रयत्नपूर्वक करता है, उन्हें कायिक अनुभाव कहते हैं; जैसे – क्रोध में कठोर शब्द कहना, उत्साह में पैर पटकना, कूदना आदि।

(4) संचारी (या व्यभिचारी) भाव
जो भाव स्थायी भावों से उद्बुद्ध (जाग्रत) होने पर इन्हें पुष्ट करने में सहायता पहुँचाने तथा इनके अनुकूल कार्य करने के लिए उत्पन्न होते हैं, उन्हें संचारी (या व्यभिचारी) भाव कहते हैं; क्योंकि ये अपना काम करके तुरन्त स्थायी भावों में ही विलीन हो जाते हैं (संचरण करते रहने के कारण इन्हें संचारी और स्थिर न रहने के कारण व्यभिचारी कहते हैं)।

प्रमुख संचारी भावों की संख्या तैतीस मानी गयी है

  1. निर्वेद (उदासीनता)
  2.  आवेग
  3. दैन्य (दीनता)
  4. श्रम
  5.  मद
  6.  जड़ता।
  7.  औग्य (उग्रता)
  8.  मोह
  9. विबोध (अनुभूति)
  10.  स्वप्न
  11.  अपस्मार (मूच्र्छा)
  12. गर्व
  13. मरण
  14.  आलस्य
  15.  अमर्ष (क्षोभ)
  16.  निद्रा
  17.  अवहित्था (भावगोपन)
  18. औत्सुक्य (उत्सुकता)
  19.  उन्माद
  20.  शंका
  21.  स्मृति
  22.  मति
  23.  व्याधि
  24.  सन्त्रास
  25.  लज्जा
  26.  हर्ष
  27.  असूया (जलन)
  28. विषाद
  29.  धृति (धैर्य)
  30. चपलता
  31. ग्लानि
  32. चिन्ता
  33. वितर्क

संचारी भावों की संख्या असंख्य भी हो सकती है। ये स्थायी भावों को गति प्रदान करते हैं तथा उसे व्यापक रूप देते हैं। स्थायी भावों को पुष्ट करके ये स्वयं समाप्त हो जाते हैं।

प्रश्न 2:
रस कितने होते हैं? किसी एक रस का लक्षण उदाहरणसहित लिखिए।
उत्तर:
शास्त्रीय रूप से रस निम्नलिखित नौ प्रकार के होते हैं

(1) श्रृंगार रस

(क) परिभाषा – जब विभाव, अनुभाव और संचारी भावों के संयोग से ‘रति’ नामक स्थायी भाव रस रूप में परिणत होता है तो उसे श्रृंगार रस कहते हैं।

(ख) श्रृंगार रस के अवयव

स्थायी भाव – रति।।
आलम्बन (विभाव) – नायक या नायिका।
उद्दीपन (विभाव) – सुन्दर प्राकृतिक दृश्य तथा नायक-नायिका की वेशभूषा, विविध आंगिक चेष्टाएँ (हाव-भाव) आदि।
संचारी ( भाव) – पूर्वोक्त तैतीस में से अधिकांश।
अनुभाव – आश्रय की प्रेमपूर्ण वार्ता, अवलोकन, स्पर्श, आलिंगन, चुम्बन, कटाक्ष, अश्रु, वैवर्य आदि।

(ग) श्रृंगार रस के भेद – श्रृंगार के दो भेद हैं – संयोग और विप्रलम्भ (वियोग)।

संयोग श्रृंगार
संयोगकाल में नायक और नायिका की पारस्परिक रति को संयोग श्रृंगार कहते हैं। संयोग से आशय है – सुख को प्राप्त करना।

उदाहरण –                               राम कौ रूप निहारति जानकी, कंगन के नग की परछाहीं ।
                                                यातें सबे सुधि भूलि गयी, कर टेकि रहीं पल टारति नाहीं ॥       ( तुलसीदास)

स्पष्टीकरण – यहाँ सीताजी अपने कंगन के नग में पड़ रहे राम के प्रतिबिम्ब को निहारते हुए अपनी सुध-बुध भूल गयीं और हाथ को टेके हुए जड़वत् हो गयीं। इसमें जानकी आश्रये और राम आलम्बन हैं। राम का नग में पड़ने वाला प्रतिबिम्ब उद्दीपन है। रूप को निहारना, हाथ टेकना अनुभाव और हर्ष तथा जड़ता संचारी भाव है।
इस प्रकार विभाव, संचारी भाव और अनुभावों से पुष्ट रति नामक स्थायी भाव संयोग श्रृंगार की अवस्था को प्राप्त हुआ है।

वियोग श्रृंगार

प्रेम में अनुरक्त नायक और नायिका के परस्पर मिलन का अभाव वियोग श्रृंगार कहलाता है।

उदाहरण-                                                    हे खग-मृग, हे मधुकर त्रेनी,
                                                                      तुम देखी सीता मृग नैनी?                                    ( तुलसीदास)

स्पष्टीकरण – यहाँ श्रीराम आश्रय हैं और सीताजी आलम्बन, सूनी कुटिया और वन का सूनापन उद्दीपन हैं। सीताजी की स्मृति, आवेग, विषाद, शंका, दैन्य, मोह आदि संचारी भाव हैं। इस प्रकार विभावानुभावसंचारीभाव के संयोग से रति नामक स्थायी भाव पुष्ट होकर विप्रलम्भ श्रृंगार की रसावस्था को प्राप्त हुआ है।

(2) हास्ये रस

(क) परिभाषा – जब किसी वस्तु या व्यक्ति के विकृत आकार, वेशभूषा, वाणी, चेष्टा आदि से व्यक्ति को बरबस हँसी आ जाए तो वहाँ हास्य रस है।

(ख) हास्य रस के अवयव
स्थायी भाव – हास।
आलम्बन (विभाव) – विचित्र-विकृत चेष्टाएँ, आकार, वेशभूषा।
उद्दीपन (विभाव)—आलम्बन की अनोखी बातचीत, आकृति।
अनुभाव – आश्रय की मुस्कान, अट्टहास।।
संचारी भाव – हर्ष, चपलता, उत्सुकता आदि।

उदाहरण

नाना वाहन नाना वेषा। बिहँसे सिव समाज निज देखा ॥
कोउ मुख-हीन बिपुल मुख काहू। बिनु पद-कर कोउ बहु पद-बाहू ॥     

 ( तुलसीदास)

स्पष्टीकरण – इस उदाहरण में स्थायी भाव हास के आलम्बन-शिव समाज, आश्रय-शिव, उद्दीपन-विचित्र वेशभूषा, अनुभाव-शिवजी का हँसना तथा संचारी भाव-रोमांच, हर्ष, चापल्य आदि। इनसे पुष्ट हुआ हास नामक स्थायी भाव हास्य-रसावस्था को प्राप्त हुआ है।

(3) करुण रस

(क) परिभाषा – किसी प्रिय वस्तु या वस्तु के विनाश से या अनिष्ट की प्राप्ति से करुण रस की निष्पत्ति होती

(ख) करुण रस के अवयव
स्थायी भाव – शोक।
आलम्बन (विभाव) – विनष्ट वस्तु या व्यक्ति।
उद्दीपन (विभाव)-इष्ट के गुण तथा उनसे सम्बन्धित वस्तुएँ।
अनुभाव – रुदने, प्रलाप, मूच्र्छा, छाती पीटना, नि:श्वास, उन्माद आदि।
संचारी भाव – स्मृति, मोह, विषाद , जड़ता, ग्लानि, निर्वेद आदि।
उदाहरण

जो भूरि भाग्य भरी विदित थी निरुपमेय सुहागिनी।
हे हृदयवल्लभ ! हूँ वही अब मैं महा हतभागिनी ॥
जो साथिनी होकर तुम्हारी थी अतीव सनाथिनी।।
है अब उसी मुझ-सी जगत् में और कौन अनाथिनी ॥             

( जयद्रथ-वध)

स्पष्टीकरण – अभिमन्यु की मृत्यु पर उत्तरा के इस विलाप में उत्तरा–आश्रय और अभिमन्यु की मृत्यु-आलम्बन है, पति के वीरत्व आदि गुणों का स्मरण-उद्दीपन है। अपने विगत सौभाग्य की स्मृति एवं दैन्य-संचारी भाव तथा (उत्तरा का) क्रन्दन–अनुभाव है। इनसे पुष्ट हुआ शोक नामक स्थायी भाव केरुण-रसावस्था को प्राप्त हुआ है।

वियोग श्रृंगार तथा करुण रस में अन्तर – वियोग श्रृंगार तथा करुण रस में मुख्य अन्तर प्रियजन के वियोग को होता है। वियोग श्रृंगार में बिछुड़े हुए प्रियजन से पुनः मिलन की आशा बनी रहती है; परन्तु करुण रस में इस प्रकार के मिलन की कोई सम्भावना नहीं होती।

(4) वीर रस

(क) परिभाषा – शत्रु की उन्नति, दीनों पर अत्याचार या धर्म की दुर्गति को मिटाने जैसे किसी विकट या दुष्कर कार्य को करने का जो उत्साह मन में उमड़ता है, वही वीर रस का स्थायी भाव है, जिसकी पुष्टि होने पर वीर रस की सिद्धि होती है।

(ख) वीर रस के अवयव

स्थायी भाव – उत्साह।
आलम्बन (विभाव) – अत्याचारी शत्रु।
उद्दीपन (विभाव) – शत्रु का अहंकार, रणवाद्य, यश की इच्छा आदि।
अनुभाव – गर्वपूर्ण उक्ति, प्रहार करना, रोमांच आदि।
संचारी भाव – आवेग, उग्रता, गर्व, औत्सुक्य, चपलता आदि।।

उदाहरण

मैं सत्य कहता हूँ सखे, सुकुमार मत जानो मुझे।
यमराज से भी युद्ध में प्रस्तुत सदा मानो मुझे ॥
है और की तो बात क्या, गर्व मैं करता नहीं।
मामा तथा निज तात से भी युद्ध में डरता नहीं ।। (मैथिलीशरण गुप्त)

स्पष्टीकरण – अभिमन्यु का यह कथन अपने सारथी के प्रति है। इसमें कौरव-आलम्बन, अभिमन्यु–आश्रय, चक्रव्यूह की रचना–उद्दीपन तथा अभिमन्यु के वाक्य–अनुभाव हैं। गर्व, औत्सुक्य, हर्ष आदि संचारी भाव हैं। इन सभी के संयोग से वीर रस की निष्पत्ति हुई है।

(5) रौद्र रस

(क) परिभाषा – अपना अपमान, बड़ों की निन्दा या उनका अपकार, शत्रु की चेष्टाओं तथा शत्रु या किसी दुष्ट अत्याचारी द्वारा किये गये अत्याचारों को देखकर अथवा गुरुजनों की निन्दा आदि सुनकर उत्पन्न हुए अमर्ष (क्रोध) के पुष्ट होने पर रौद्र रस की सिद्धि होती है।

(ख) रौद्र रस के अवयव
स्थायी भाव – क्रोध।।
आलम्बन (विभाव) – अनुचित व्यवहार करने वाला, विपक्षी।
उद्दीपन (विभाव) – विपक्षी की अनुचित बात और कार्य।
अनुभाव – दाँत पीसना, भौंहें चढ़ाना, मुख लाल होना, गर्जन, कम्प आदि।
संचारी भाव – उग्रता, मद, आवेग, अमर्ष, उद्वेग आदि।

उदाहरण (1) –  भाखे लखनु कुटिल भई भौंहें। रदपट फरकट नयन रिसौहें।
स्पष्टीकरण – इसमें सीता स्वयंवर में जनक के अपमानजनक कटु वचन–उद्दीपन, अमर्ष-संचारी तथा लक्ष्मण की भौंहें टेढ़ी होना, होंठ फड़कना, आँखें लाल होना–अनुभाव हैं। इनसे पुष्ट अमर्ष नामक स्थायी भाव रौद्र-रसावस्था को प्राप्त हुआ है।

उदाहरण (2) – उस काल मारे क्रोध के, तन काँपने उनका लगा।
मानो हवा के वेग से, सोता हुआ सागर जगा ।।

स्पष्टीकरण – प्रस्तुत पद्यांश में अभिमन्यु के वध का समाचार सुनकर अर्जुन के क्रोध का वर्णन किया गया है। इसमें स्थायी भाव-क्रोध, आश्रय–अर्जुन, विभाव–अभिमन्यु का वध, अनुभाव – मुख लाल होना एवं शरीर काँपना तथा संचारी भाव-उग्रता से पुष्ट रौद्र रस की अभिव्यक्ति हुई है।

(6) भयानक रस

(क) परिभाषा – किसी भयजनक वस्तु को देखने, घोर अपराध करने पर दण्डित होने के विचार, शक्तिशाली शत्रु या विरोधी के सामना होने की आशंका से उत्पन्न भय के पुष्ट होने पर भयानक रस की सिद्धि होती है।

(ख) भयानक रस के अवयव

भाव – भय।।
आलम्बन (विभाव) – शेर, सर्प, चोर, शून्य स्थान, भयंकर वस्तु आदि।।
उद्दीपन (विभाव) – भयंकर दृश्य, निर्जनता, हिंसक जीवों की भयानक चेष्टाएँ आदि।
अनुभाव – कम्पन, रोमांच, मूच्र्छा, पलायन, पसीना छूटना आदि।
संचारी भाव – चिन्ता, सम्भ्रम, दैन्य, त्रास, सम्मोह।

उदाहरण – लंका की सेना तो कपि के गर्जन-रव से काँप गयी।
हनूमान् के भीषण दर्शन से विनाश ही भाँप गयी।
उस कंपित शंकित सेना पर कपि नाहर की मार पड़ी।
त्राहि-त्राहि शिव त्राहि-त्राहि की चारो ओर पुकार पड़ी।

स्पष्टीकरण – यहाँ स्थायी भाव भय है। लंका की सेना – आश्रय और हनुमान्-आलम्बन हैं। गर्जन-रव और भीषण दर्शन – उद्दीपन हैं। काँपना तथा त्राहि-त्राहि करना-अनुभाव हैं। शंका, चिन्ता, सन्त्रास आदि संचारी भाव हैं। इन सबसे पुष्ट भय नामक स्थायी भाव भयानक रस की अवस्था को प्राप्त हुआ है।

(7) वीभत्स रस

(क) परिभाषा – गन्दी, घोर अरुचिकर, घृणित वस्तुओं; जैसे-पीव, हड्डी, रक्त, चर्बी, मांस, उनकी दुर्गन्ध आदि के वर्णन से मन में जो जुगुप्सा (घृणा) जगती है, वही पुष्ट होकर वीभत्स रस की स्थिति प्राप्त करती है।।

(ख) वीभत्स रस के अवयव
स्थायी भाव – जुगुप्सा या घृणा।
आलम्बन (विभाव) – घृणित व्यक्ति या दृश्य। उद्दीपन (विभाव)-कुरूपती, दुर्गन्ध, जानवरों द्वारा खाल खींचना, घायलों का कराहना आदि।
अनुभाव – नाक सिकोड़ना, मुंह फेर लेना, आँख बन्द कर लेना आदि।
संचारी भाव – ग्लानि, आवेग, व्याधि, चिन्ता, शंका, जड़ता आदि।

उदाहरण – सिर पर बैठ्यौ काग, आँखि दोउ खात निकारत।
खींचत जीवहिं स्यार, अतिहि आनँद उर धारत ॥
गिद्ध जाँघ कोह खोदि-खोदि कै मांस उपारत।
स्वान आँगुरिन काटि-कोटि कै खात बिदारत ॥

स्पष्टीकरण – यहाँ श्मशान का दृश्य-आलम्बन और जुगुप्सा स्थायी भाव का आश्रय पाठक है। कौवे, सियार, गिद्ध और कुत्ते द्वारा शव को खाया जाना – उद्दीपन है। यहाँ अनुभाव-विभावादि से पुष्ट जुगुप्सा
नामक स्थायी भाव की वीभत्स रस में व्यंजना हुई है।

(8) अदभुत रस

(क) परिभाषा – किसी असाधारण वस्तु या कार्य को देखकर हमारे मन में जो विस्मय होता है, वही पुष्ट होकर अदभुत रस में परिणत हो जाता है।

(ख) अद्भुत रस के अवयव
स्थायी भाव – विस्मय।
आलम्बन (विभाव) – आश्चर्ययुक्त अलौकिक वस्तु या व्यक्ति।
उद्दीपन (विभाव) – आश्चर्ययुक्त वस्तु या व्यक्ति के दर्शन या श्रवण।
अनुभाव – विस्मय से आँख फाड़कर देखना, दाँतों तले अँगुली दबाना, गद्गद होना, रोमांच, कम्प, स्वेद।
संचारी भाव – उत्सुकता, आवेग, हर्ष, जड़ता, मोह।

उदाहरण – बिनु पद चलै सुनै बिनु काना। कर बिनु कर्म करै बिधि नाना॥
आनन रहित सकल रस भोगी। बिनु वाणी वक्ता बड़ जोगी।

स्पष्टीकरण – यहाँ स्थायी भाव-विस्मय, उक्त काव्य-पंक्तियाँ—आलम्बन तथा पाठक- आश्रय है। बिना शरीर के कार्य सम्पन्न होना–उद्दीपन है। इस प्रकार विस्मय स्थायी भाव, विभावादि से पुष्ट होकर वीभत्स रस की व्यंजना करा रहा है।

(9) शान्त रस

(क) परिभाषा – संसार की क्षणभंगुरता एवं सांसारिक विषय-भोगों की असारता तथा परमात्मा के ज्ञान से उत्पन्न निर्वेद (वैराग्य) ही पुष्ट होकर शान्त रस में परिणत होता है।

(ख) शान्त रस के अवयव

स्थायी भाव – निर्वेद (उदासीनता)।
आलम्बन (विभाव) – संसार की क्षणभंगुरती, परमात्मा का चिन्तन आदि।
उद्दीपन (विभाव) – सत्संग, शास्त्रों का अनुशीलन, तीर्थ-यात्रा आदि।
अनुभाव – अश्रुपात, पुलक, संसारभीरुता, रोमांच आदि।
संचारी भाव – हर्ष, स्मृति, धृति, निर्वेद, विबोध, उद्वेग आदि।

उदाहरण –                      मन पछितैहैं अवसर बीते।
दुर्लभ देह पाई हरिपद भजु, करम वचन अरु होते ॥
अब नाथहिं अनुराग, जागु जड़-त्यागु दुरासा जीते ॥
बुझे न काम अगिनी तुलसी कहुँ बिषय भोग बहु घी ते ॥

स्पष्टीकरण – यहाँ तुलसी (या पाठक)–आश्रय हैं; संसार की असारता-आलम्बन; अपना मनुष्य जन्म व्यर्थ होने की चिन्ता–उद्दीपन; मति-धृति आदि संचारी एवं वैराग्यपरक वचन–अनुभाव हैं। इनसे मिलकर शान्त रस की निष्पत्ति हुई है।

(10) वात्सल्य रस

(क) परिभाषा – बालकों के प्रति बड़ों का जो स्नेह होता है, वही वत्सले (अपत्यविषयक रति) है, जो पुष्ट होकर वात्सल्य रस में परिणत होता है।

(ख) वात्सल्य रस के अवयव

स्थायी भाव – वत्सलता, स्नेह।
आलम्बन (विभाव) – पुत्र, शिशु एवं शिष्य।
उद्दीपन (विभाव)-बाल चेष्टाएँ, तुतलाना, घुटनों के बल चलना, हठ करना आदि।
अनुभाव – गोद लेना, झुलाना, दुलारना, थपथपाना आदि।
संचारी भाव – हर्ष, मोह, गर्व, चिन्ता, शंका, आवेग।।

उदाहरण –                    स्याम गौर सुंदर दोऊ जोरी। निरखहिं छवि जननी तृन तोरी ॥
कबहूँ उछंग कबहुँ वर पलना। मातु दुलारईं कहि प्रिय ललना ॥

स्पष्टीकरण – यहाँ शिशु राम और उनके भाई-आलम्बन और माताएँ – आश्रय हैं। शिशुओं की सुन्दरता, वेशभूषा एवं घुटनों और हाथों के बल चलना – उद्दीपन है। माताओं का तृण तोड़कर देखना, गोद में लेना, पालने में झुलाना, दुलारनी–अनुभाव हैं। तृण तोड़ने में बच्चों को नजर लगने से बचाने का भाव उत्पन्न होने से शंका–संचारी है। इसमें हर्ष और गर्व – संचारी भाव हैं। इन सबसे पुष्ट होकर वत्सल स्थायी भाव वात्सल्य रस की अवस्था को प्राप्त हुआ है।

(11) भक्ति रस

(क) परिभाषा – देवताविषयक रति (भगवान् के प्रति अनन्य प्रेम) ही परिपुष्ट होकर भक्ति रस में परिणत हो जाती है।

(ख) भक्ति रस के अवयव

स्थायी भाव – देवताविषयक रति।।
आलम्बन (विभाव) – ईश्वर, देवता, राम, कृष्ण आदि।
उद्दीपन (विभाव)-सत्संग, ईश्वर के अद्भुत क्रिया-कलाप, भक्तों का समागम आदि।
अनुभाव – भजन-कीर्तन, ईश्वर का गुणगान, गद्गद होना।
संचारी भाव – निर्वेद, हर्ष, स्मृति, पुलक, मति, वितर्क आदि।

उदाहरण-                           पुलक गात हियँ सिय रघुबीरू। जीह नामु जप लोचन नीरू॥

स्पष्टीकरण – यहाँ श्रीभरत जी-आश्रय एवं श्रीरघुनाथ जी-आलम्बन हैं। श्रीराम के स्वरूप एवं गुणों का ध्यान – उद्दीपन है; पुलक गात – संचारी हैं; शरीर का पुलकित होना, नेत्रों से अश्रु बहना एवं जिह्वा से निरन्तर नामजप होना-अनुभाव हैं। इस प्रकार पुष्ट हुई भगवद् विषयक रति (स्थायी) भाव ही भक्ति रस की अवस्था को प्राप्त होती है।

We hope the UP Board Solutions for Class 11 Sahityik Hindi काव्य सौन्दर्य के तत्त्व रस् help you. If you have any query regarding UP Board Solutions for Class 11 Sahityik Hindi काव्य सौन्दर्य के तत्त्व रस्, drop a comment below and we will get back to you at the earliest.

 

error: Content is protected !!
Scroll to Top