UP Board Solutions for Class 10 Sanskrit Chapter 6 नागाधीरजः (पद्य – पीयूषम्)

Free PDF download of UP Board Solutions for Class 10 Sanskrit Chapter 6 नागाधीरजः (पद्य – पीयूषम्), Having good knowledge and help you revise the whole chapter 1 in minutes, in exam days is one of the best tips recommended by teachers during exam days.

UP Board Solutions for Class 10 Sanskrit Chapter 6 नागाधीरजः (पद्य – पीयूषम्)

परिचय

महाकवि कालिदास संस्कृत-साहित्य में ‘कविकुलगुरु’ की उपाधि से समलंकृत तथा विश्व के कवि-समाज में सुप्रतिष्ठित हैं। इनकी जन्मभूमि भारतवर्ष थी। इन्होंने निष्पक्ष होकर भारतभूमि व उसके प्रदेशों के वैशिष्ट्य का वर्णन किया है। इनके काव्यों व नाटकों में हिमालय से लेकर समुद्रतटपर्यन्त भारत का दर्शन होता है। प्रस्तुत पाठ महाकवि कालिदास द्वारा विरचित ‘कुमारसम्भवम्’ नामक महाकाव्य से संगृहीत है। इस महाकाव्य (UPBoardSolutions.com) में सत्रह सर्ग हैं और इसका प्रारम्भ हिमालय-वर्णन से होता है। प्रस्तुत पाठ के आठ श्लोक उसी हिमालय-वर्णन से संगृहीत हैं।

UP Board Solutions

पाठ-सारांश

भारतवर्ष के उत्तर में नगाधिराज हिमालय, पूर्वी और पश्चिमी समुद्रों का अवगाहन करके पृथ्वी के मानदण्ड के समान स्थित है। सभी पर्वतों ने इसे बछड़ा और सुमेरु पर्वत को ग्वाला बनाकर पृथ्वीरूपी गाय से रत्नों और महौषधियों को प्राप्त किया। अनन्त रत्नों को उत्पन्न करने वाले हिमालय के सौन्दर्य को बर्फ कम नहीं कर सकी; क्योंकि गुणों के समूह में एक दोष चन्द्रमा की किरणों में उसके कलंक के समान ही छिप जाता है। सिद्धगण हिमालय के मध्यभाग में घूमने वाले मेघों की छाया में बैठकर वर्षा से पीड़ित होकर उसके धूप वाले शिखरों पर पहुँच जाते हैं। हाथियों को मारने से पंजों में लगे हुए रक्त के पिघली हुई बर्फ द्वारा धुल जाने पर यहाँ रहने वाले भील लोग सिंहों के नखों में से गिरे हुए गज-मोतियों से सिंहों के जाने के मार्ग को जान लेते हैं। हाथियों के द्वारा (UPBoardSolutions.com) अपने गालों की खाज को खुजाने के लिए चीड़ के वृक्षों से रगड़ने पर उनसे बहते दूध से हिमालय के शिखर सुगन्धित हो जाते हैं। हिमालय दिन में डरे हुए और अपनी शरण में आये हुए अन्धकार
को अपनी गुफाओं में शरण देकर सूर्य से उसकी रक्षा करता है। चमरी गायें, अपनी पूँछ को इधर-उधर हिलाने के कारण अपनी पूँछ के बालों के चँवरों से हिमालय के ‘गिरिराज’ शब्द को सार्थक करती हैं।

UP Board Solutions

पद्यांशों की ससन्दर्भ हिन्दी व्याख्या

(1)
स्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा हिमालयो नाम नगाधिराजः।
पूर्वापरौ तोयनिधी वगाह्य स्थितः पृथिव्या इव मानदण्डः ॥ [2007,11, 14, 15]

शब्दार्थ अस्ति = है। उत्तरस्यां दिशि = उत्तर दिशा में। देवतात्मा = देवगण हैं आत्मा जिसकी। हिमालयः नाम = हिमालय नामका नगाधिराजः = पर्वतों का राजा। पूर्वापरौ = पूर्व और पश्चिम तोयनिधी = समुद्रों को। वगा= अवगाहन करके; प्रविष्ट होकर। स्थितः = स्थित है। पृथिव्याः = पृथ्वी के मानदण्डः इवे = मापने के दण्ड के समान

सन्दर्भ प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के पद्य-खण्ड ‘पद्य-पीयूषम्’ के ‘नगाधिराजः’ शीर्षक पाठ से लिया गया है।

[ संकेत इस पाठ के शेष सभी श्लोकों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में हिमालय की स्थिति और उसके भौगोलिक महत्त्व का वर्णन किया गया है।

अन्वय उत्तरस्यां दिशि देवतात्मा हिमालयः नाम नगाधिराजः अस्ति, (यः) पूर्वापरौ तोयनिधी वगाह्य पृथिव्याः (UPBoardSolutions.com) मानदण्डः इव स्थितः (अस्ति)।

व्याख्या महाकवि कालिदास कहते हैं कि (भारतवर्ष की) उत्तर दिशा में देवताओं की आत्मा वाला पर्वतों का राजा हिमालय है, जो पूर्व और पश्चिम दोनों समुद्रों का अवगाहन करके पृथ्वी के मापने के दण्ड के समान स्थित है। तात्पर्य यह है कि हिमालय का विस्तार ऐसा है कि वह पूर्व और पश्चिम दोनों दिशाओं के समुद्रों को छू रहा है।

(2)
यं सर्वशैलाः परिकल्प्य वत्सं मेरौ स्थिते दोग्धरि दोहदक्षे
भास्वन्ति रत्नानि महौषधींश्च पृथूपदिष्टां दुदुहुर्धरित्रीम् ॥ [2006]

शब्दार्थ यं = जिस हिमालय को। सर्वशैलाः = सभी पर्वतों ने परिकल्प्य = बनाकर। वत्सम् = बछड़ा। मेरी = सुमेरु पर्वत के स्थिते = स्थित होने पर दोग्धरि = दुहने वाला। दोहदक्षे = दुहने में निपुण। भास्वन्ति = देदीप्यमाना रत्नानि = रत्नों को। महौषधी (महा + ओषधी) = उत्तम जड़ी-बूटियों को। पृथूपदिष्टाम् = राजा पृथु के द्वारा आदेश दी गयी। दुदुहुः = दुहा। धरित्रीम् = पृथ्वी को।।

UP Board Solutions

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में हिमालय को बछड़ा, सुमेरु को दुहने वाला तथा पृथ्वी को गाय का प्रतीक मानकर उसके दोहन की कल्पना की गयी है।

अन्वय सर्वशैलाः यं वत्सं परिकल्प्य दोहदक्षे मेरौ दोग्धरि स्थिते पृथूपदिष्टां धरित्रीं भास्वन्ति रत्नानि महौषधीन् च दुदुहुः।।

व्याख्या महाकवि कालिदास कहते हैं कि सभी पर्वतों ने जिस हिमालय को बछड़ा बनाकर दुहने (UPBoardSolutions.com) में निपुण सुमेरु पर्वत के दुहने वाले के रूप में स्थित रहने पर पृथु के द्वारा आदेश दी गयी पृथ्वीरूपी गाय से देदीप्यमान रत्नों और संजीवनी आदि महान् ओषधियों को दुहा।

UP Board Solutions

(3)
अनन्तरत्नप्रभवस्य यस्य हिमं न सौभाग्यविलोपि जातम्
एको हि दोषो गुणसन्निपाते निमज्जतीन्दोः किरणेष्विवाङ्कः॥ [2007, 11]

शब्दार्थ अनन्तरत्नप्रभवस्य = अनन्त रत्नों को उत्पन्न करने वाले। यस्य = जिस (हिमालय) के। हिमम् = बर्फ। न = नहीं। सौभाग्यविलोपि = सौन्दर्य का विनाश करने वाली। जातम् = हुई। एकः = एक हि = निश्चित ही, क्योंकि दोषः = दोष। गुणसन्निपाते = गुणों के समूह में। निमज्जति = डूब जाता है, विलीन हो जाता है। इन्दोः = चन्द्रमा की। किरणेषु = किरणों में। इव = समान। अङ्कः = कलंक।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में हिमालय के महान् यश का वर्णन किया गया है।

अन्वय हिमम् अनन्तरत्नप्रभवस्य यस्य सौभाग्यविलोपि न जातम्। हि एकः दोषः गुणसन्निपाते इन्दोः किरणेषु अङ्कः इव निमज्जति।

व्याख्या अनन्त रत्नों को उत्पन्न करने वाले जिस पर्वत की शोभा को उस पर सदा जमी रहने वाली बर्फ मिटा नहीं पायी है, क्योंकि गुणों के समूह में एक दोष उसी प्रकार छिप जाता है, जिस प्रकार चन्द्रमा की किरणों में कलंका तात्पर्य यह है कि हिमालय से अनन्त रत्नों की उत्पत्ति (UPBoardSolutions.com) होती है किन्तु उसके अन्दर एक ही दोष है कि वह सदैव हिमाच्छादित रहता है। उसके इस दोष से भी उसका महत्त्व कम नहीं होता; क्योंकि चन्द्रमा में स्थित कलंक उसके गुणों को कम नहीं करता।।

UP Board Solutions

(4)
आमेखलं सञ्चरतां घनानां छायामधः सानुगतां निषेव्य।
उद्वेजिता वृष्टिभिराश्रयन्ते शृङ्गाणि यस्यातपवन्ति सिद्धाः ॥ [2007]

शब्दार्थ आमेखलम् = पर्वत के मध्य भाग तक। सञ्चरताम् = घूमने वाले। घनानां = बादलों के छायां = छाया का। अधः = नीचे। सानुगताम् = नीचे के शिखरों पर पड़ती हुई। निषेव्य = सेवन करके। उद्वेजिताः = पीड़ित किये गये। वृष्टिभिः = वर्षा द्वारा आश्रयन्ते = आश्रय करते हैं। शृङ्गाणि = शिखरों का। आतपवन्ति = धूप से युक्त। सिद्धाः = सिँद्ध नामक देवता अथवा तपस्वी साधक।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में हिमालय पर तपस्या करने वाले सिद्धगणों के क्रिया-कलापों का वर्णन किया गया

अन्वय सिद्धाः आमेखलं सञ्चरतां घनानाम् अधः सानुगतां छायां निषेव्य वृष्टिभिः उद्वेजिताः (सन्तः) यस्य आतपवन्ति शृङ्गाणि आश्रयन्ते।

व्याख्या महाकवि कालिदास कहते हैं कि सिद्धगण (तपस्वी या साधक या सिद्ध नामक देव जाति के) हिमालय पर्वत के मध्य भाग तक घूमने वाले बादलों के नीचे शिखरों पर पड़ती हुई छाया का सेवन करके वर्षा के द्वारा पीड़ित किये जाते हुए हिमालय के धूप वाले शिखरों का आश्रय लेते हैं। तात्पर्य यह है कि बादलों की पहुँच हिमालय के मध्य भाग तक ही है। जब वे वर्षा करने लगते हैं, तब सिद्धगण धूप वाले ऊपर के शिखरों पर चले जाते हैं; अर्थात् उनकी पहुँच बादलों से भी ऊपर है।

UP Board Solutions

(5)
पदं तुषारसुतिधौतरक्तं यस्मिन्नदृष्ट्वाऽपि हतद्विपानाम्।
विदन्ति मार्गे नखरन्ध्रमुक्तैर्मुक्ताफलैः केसरिणां किराताः॥

शब्दार्थ पदम् = पैर (के निशान) को। तुषारसुतिधौतरक्तम् = बर्फ के पिघलकर बहने से धुले हुए रक्त वाले। यस्मिन्नदृष्ट्वाऽपि (यस्मिन् + अदृष्ट्वा + अपि) = जिस (हिमालय) पर बिना देखे भी। हतद्विपानां = हाथियों को मारने वाले। विदन्ति = जान जाते हैं। मार्गं = मार्ग को। नखरन्ध्रमुक्तैः = नखों के छिद्रों से गिरे हुए। मुक्ताफलैः = मोतियों के दानों जैसे। केसरिणाम् =सिंहों के। किराताः =(पहाड़ों पर रहने वाली) भील जाति के लोग।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में किरातों द्वारा हिमालय के बर्फीले भाग में भी मार्ग ढूँढ़ने के संकेतों का वर्णन किया गया है।

अन्वय किराताः यस्मिन् तुषारसुतिधौतरक्तं हतद्विपानां (सिंहानां) पदम् अदृष्ट्वा अपि नखरन्ध्रमुक्तैः मुक्ताफलैः केसरिणां मार्गं विदन्ति।

व्याख्या महाकवि कालिदास कहते हैं कि भील जाति के लोग जिस हिमालय पर पिघली हुई बर्फ के बहने से धुले हुए रक्त वाले, हाथियों को मार डालने वाले सिंहों के पदचिह्नों को न देखकर भी उनके नाखूनों के मध्य भाग के छिद्रों से गिरते हुए मोतियों से सिंहों के (जाने के) मार्ग को जाने जाते हैं। तात्पर्य यह है कि हाथियों के मस्तक में मोती होते हैं। जब सिंह अपने पैरों से हाथी के मस्तक को विदीर्ण करता है तो उसके पंजे में मोती फँस जाते हैं और चलते समय वे (UPBoardSolutions.com) मार्ग में गिर जाते हैं। ऐसी स्थिति में उन सिंहों का शिकार करने वाले किरात उन गज-मुक्ताओं को देखकर ही उनके जाने के मार्ग का पता लगा लेते हैं क्योंकि रक्त के निशान तो बहती हुई बर्फ से धुल जाते हैं।

(6)
कपोलकण्डूः करिभिर्विनेतुं विघट्टितानां सरलद्माणाम्।
यत्र खुतक्षीरतया प्रसूतः सानूनि गन्धः सुरभीकरोति ॥

शब्दार्थ कपोलकण्डूः = गोलों की खुजली को। करिभिः = हाथियों के द्वारा। विनेतुम् = मिटाने के लिए। विघट्टितानाम् = रगड़े गये। सरलद्माणाम् = सरल (चीड़) के वृक्षों केा ‘तुतक्षीरतया = दूध के बहने के कारण। प्रसूतः = उत्पन्न। सानूनि = शिखरों को। गन्धः = गन्धा सुरभीकरोति = सुगन्धित करती है।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में हाथियों की रगड़ से छिले चीड़ के वृक्षों की गन्ध से पर्वत शिखरों के सुवासित होने का वर्णन है।

UP Board Solutions

अन्वय यत्र कपोलकंण्डू: विनेतुं करिभिः विघट्टितानां सरलद्माणां सुतक्षीरतया प्रसूतः गन्धः सानूनि सुरभीकरोति।।

व्याख्या महाकवि कालिदास कहते हैं कि जहाँ गालों की खोज को मिटाने के लिए हाथियों के द्वारा रगड़े गये चीड़ के वृक्षों से दूध के बहने के कारण उत्पन्न हुई गन्ध हिमालय के शिखरों को सुगन्धित करती रहती है।

(7)
दिवाकराद्रक्षति सो गुहासु लीनं दिवा भीतमिवान्धकारम्।
क्षुद्रेऽपि नूनं शरणं प्रपन्ने ममत्वमुच्चैः शिरसां सतीव ॥ [2006, 09]

शब्दार्थ दिवाकरात् = सूर्य से। रक्षति = बचाता है। सः = वह। गुहासु = गुफाओं में लीनं = छिपे हुए। दिवा भीतम् इव = दिन में डरे हुए के समान| अन्धकारम् = अँधेरे को। क्षुद्रेऽपि = नीच मनुष्य के भी। नूनं = निश्चय ही। शरणं प्रपन्ने = शरण में पहुँचने पर। ममत्वम् = आत्मीयता, अपनापन। उच्चैः शिरसाम् = ऊँचे मस्तक वालों का, महापुरुषों का। सतीव = श्रेष्ठ पुरुष की तरह।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में हिमालय को शरणागतवत्सल के रूप में प्रदर्शित किया गया है।

अन्वये यः दिवा दिवाकरात् भीतम् इव गुहासु लीनम् अन्धकारम् रक्षति। नूनं क्षुद्रे अपि शरणं प्रपन्ने सतीव उच्चैः शिरसां ममत्वं (भवति एव)।

व्याख्या महाकवि कालिदास कहते हैं कि जो (हिमालय) दिन में सूर्य से डरे हुए की तरह गुफाओं में छिपे (UPBoardSolutions.com) अन्धकार की रक्षा करता है। निश्चय ही नीच व्यक्ति के शरण में आने पर भी श्रेष्ठ पुरुष की तरह उच्चाशय वाले महापुरुषों का अपनापन होता ही है।

UP Board Solutions

(8)
लाङगूलविक्षेपविसर्पिशोभैरितस्ततश्चन्द्रमरीचिगौरैः ।।
यस्यार्थयुक्तं गिरिराजशब्दं कुर्वन्ति बालव्यजनैश्चमर्यः॥

शब्दार्थ लागूलविक्षेपविसर्पिशोभैः = पूँछ को हिलाने से फैलने वाली शोभा वाली। इतस्ततः = इधर-उधर। चन्द्रमरीचिगौरैः = चन्द्रमा की किरणों के समान उजले। यस्य = जिसके अर्थात् हिमालय के अर्थयुक्तं = अर्थ से युक्त सार्थका गिरिराजशब्दम् = गिरिराज शब्द को। कुर्वन्ति = कर रही हैं। बाल-व्यजनैः = बालों के पंखों अर्थात् चँवरों से। चमर्यः = चमरी गायें, सुरा गायें (इनके पूँछ के बालों की चँवर बनती है)।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में हिमालय के पर्वतों का राजा होने की कल्पना को सार्थक अभिव्यक्ति प्रदान की गयी है।

अन्वय चमर्यः इतस्तत: लागूलविक्षेपविसर्पिशोभैः चन्द्रमरीचिगौरै: बालव्यजनैः यस्य गिरिराजशब्दम् अर्थयुक्तं कुर्वन्ति।

व्याख्या महाकवि कालिदास कहते हैं कि चमरी गायें; जिनकी शोभा पूँछों के हिलाने से इधर-उधर फैलती रहती है तथा जो चन्द्रमा की किरणों के समान श्वेत बालों के चँवरों से जिस हिमालय के ‘गिरिराज शब्द को सार्थक करती हैं। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार सिंहासन पर बैठे हुए राजा पर चँवर डुलाये जाते हैं, उसी प्रकार हिमालय पर ‘गिरिराज’ होने के कारण चमरी गायें अपने पूँछों के बालों के चँवर डुलाती रहती हैं।

UP Board Solutions

सूक्तिपरक वाक्यांशों की व्याख्या

(1) अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा हिमालयों नाम नगाधिराजः।

सन्दर्भ प्रस्तुत सूक्तिपरक पंक्ति हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के पद्य-खण्ड ‘पद्य-पीयूषम्’ के ‘नगाधिराजः’ नामक पाठ से ली गयी है।

[ संकेत इस पाठ की शेष सभी सूक्तियों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा। ]

प्रसग प्रस्तुत सूक्ति में हिमालय की महानता पर प्रकाश डाला गया है। अर्थ उत्तर दिशा में देवताओं की आत्मास्वरूप हिमालय नाम का पर्वतों का राजा स्थित है।

व्याख्या भारत की उत्तर दिशा में देवताओं की आत्मास्वरूप पर्वतों का राजा हिमालय नाम का पर्वत स्थित है। (UPBoardSolutions.com) हिमालय को क्योकि भगवान् शिव का निवासस्थान माना जाता है और भगवान् शिव समस्त देवताओं के आराध्य हैं; इसीलिए उसे देवताओं की आत्मा कहा गया है।

(2) स्थितः पृथिव्या इव मानदण्डः।। [2010, 12, 13, 15]

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में हिमालय की महत्ता का प्रतिपादन किया गया है।

अर्थ पृथ्वी पर स्थित मानदण्ड के समान है।

व्याख्या भारत की उत्तरी सीमा पर स्थित हिमालय पर्वत अत्यन्त महान् और सुविस्तृत है। इसको देखकर ऐसा लगता है कि यह पृथ्वी के एक छोर से आरम्भ होकर दूसरे छोर (किनारा) तक फैला हुआ है। हिमालय की इसी विशालता और सुविस्तार को व्यक्त करने के लिए कवि कल्पना करता है कि यह धरती की विशालता को मापने के लिए मापदण्ड (पैमाना) के रूप में पृथ्वी पर स्थित है। मापदण्ड के रूप में इसकी विशालता और महत्ता के आधार पर ही पृथ्वी की भी विशालता और महत्ता का अनुमान भली-भाँति लगाया जा सकता है।

UP Board Solutions

(3) एको हि दोषो गुणसन्निपाते, निमज्जतीन्दोः किरणेष्विवाङ्कः। [2007, 11, 12, 14]

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में कहा गया है कि किसी व्यक्ति के एकाध दोष उसके गुणों में ही छिप जाते हैं।

अर्थ गुणों के समूह में एक दोष उसी प्रकार छिप जाता है, जिस प्रकार चन्द्रमा की किरणों में उसका काला धब्बा।।

व्याख्या कविकुलगुरु कालिदास ने प्रस्तुत सूक्ति में बताया है कि यदि किसी व्यक्ति में बहुत-से गुण हों तो उसके एकाध दोष का पता भी नहीं लग पाता है; क्योंकि लोगों का ध्यान उसके गुणों की ओर होता है, उसके दोष पर उनका ध्यान ही नहीं जाता है। जैसे चन्द्रमा की किरणों के जाल में उसका काला धब्बा छिप जाता है; क्योंकि लोग चन्द्रमा की किरणों के सौन्दर्य में ही लीन हो जाते हैं। उसके काले धब्बे की ओर उनका ध्यान ही नहीं जाता है। जहाँ हिमालय में अनन्त रत्न और ओषधियाँ पायी जाती हैं, वहाँ उसके शिखरों पर सदैव भारी मात्रा में बर्फ का जमा रहना बड़ा दोष भी है, लेकिन अनन्त रत्नों को उत्पन्न करने वाले हिमालय पर गिरने (UPBoardSolutions.com) वाली बर्फ उसके महत्त्व को कम नहीं करती; क्योंकि गुणों के समूह में एक दोष नगण्य होता है।

(4) क्षुद्रेऽपि नूनं शरणं प्रपन्ने, ममत्वमुच्चैः शिरसां सतीव। [2010]

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में कहा गया है कि यदि कोई क्षुद्र व्यक्ति उच्च आशय वाले व्यक्ति के पास जाता है। तो वे उसके प्रति भी श्रेष्ठ पुरुष की तरह ही आत्मीयता प्रकट करते हैं।

अर्थ क्षुद्र व्यक्ति के शरण में आने पर महान् व्यक्ति उन पर भी सज्जनों के समान ही स्नेह करते हैं।

व्याख्या महापुरुषों की शरण में छोटा-बड़ा या सज्जन-दुर्जन जो भी आता है, वे उस पर अत्यधिक ममता दिखलाते हैं। यदि उनकी शरण में कोई तुच्छ व्यक्ति भी जाता है तो वे उस पर भी उतनी ही ममता दिखाते हैं, जितनी शरण में आये हुए सज्जन व्यक्ति के प्रति उनके मन में छोटे-बड़े, अपने-पराये और सज्जन-दुर्जन का भेदभाव नहीं होता है। नगाधिराज हिमालय इसका आदर्श उदाहरण है। दिन के समय अन्धकार उसकी चोटियों पर नहीं रहता है, वरन् उसकी गुफाओं के भीतर रहता है। कवि की कल्पना है कि अन्धकार ने सूर्य के भय से हिमालय की चोटियों से भागकर उसकी गुफाओं में शरण प्राप्त की है और उन्नत शिखरों वाले हिमालय ने भी तुच्छ अन्धकार को अपनी गुफाओं में शरण देकर उसकी सूर्य से रक्षा की है। यहाँ हिमालय को महान् तथा अन्धकार को क्षुद्र बताया गया है। प्रस्तुत सूक्ति शरणागत की रक्षा के महत्त्व को भी प्रतिपादित करती है।

UP Board Solutions

श्लोक का संस्कृत-अर्थ

(1) अस्त्युत्तरस्यां ………………………………………. इव मानदण्डः ॥ (श्लोक 1) (2010]
संस्कृतार्थः अस्मिन् श्लोके महाकविः कालिदासः कथयति यत् भारतस्य उत्तरस्यां दिशि देवतात्मा हिमालयः नाम पर्वतानां नृपः अस्ति, यः पूर्वापरौ तोयनिधी वगाह्य पृथिव्याः मानदण्डः इव स्थितः अस्ति अर्थात् तस्य विस्तारं इदृशं अस्ति यत् पूर्वस्य पश्चिमस्य च तोयनिधीः स्पर्शयति।

(2) अनन्तरत्नप्रभवस्य ………………………………………. किरणेष्विवाङ्कः॥ (श्लोक 3)
संस्कृतार्थः अस्मिन् श्लोके महाकविः कालिदासः हिमालयस्य सौन्दर्यं वर्णयन् कथयति यत् हिमालये बहूनि रत्नानि उत्पन्नं भवन्ति, तस्य शिखरेषु हिमम् अपि भवति, परम् तत् हिमं तस्य सौन्दर्यं क्षीणं न अकरोत्। तस्य हिमस्य अयं दोष: रत्नानां गुणेषु प्रभावरहितः अभवत्। गुणेषु एकः दोष: तथैव प्रभावहीनं भवति यथा चन्द्रस्य किरणेषु तस्य कलङ्क अदृश्यः भवति।।

UP Board Solutions

(3) दिवाकराद्रक्षति ………………………………………. शिरसां सतीव॥ (श्लोक 7)
संस्कृतार्थः अस्मिन् श्लोके महाकविः कालिदासः कथयति यत् हिमालयस्य गुहासु अन्धकारं वर्तते। अत्र कविः (UPBoardSolutions.com) उत्प्रेक्षां करोति यत्र दिवाकरात् भीत: अन्धकारः हिमालये शरणं प्राप्तवान्, अतएव हिमालयः अन्धकारस्य रक्षां करोति। इदं सत्यमेव यदि क्षुद्रः अपि महात्मनां शरणं प्राप्नोति तदा महात्मनां ममत्वं नूनम् एव उत्पन्नं भवति।

(4) लाङ्गूलविक्षेपविसर्पिशोभैः ………………………………………. बालव्यजनैश्चमर्यः ॥ (श्लोक 8)
संस्कृतार्थः अस्मिन् श्लोके महाकवि कालिदासः कथयति—-हिमालयः पर्वतानां राजा अस्ति, अतएव स: गिरिराजः इति कथ्यते। तत्र स्थिताः चमर्यः धेनवः स्वपुच्छविक्षेपविसर्पिशोमैः चन्द्रधवलगौरे: बालव्यजनैः तस्योपरि व्यजनं कृत्वा ‘गिरिराज’ शब्दं अर्थयुक्तं कुर्वन्ति।

Hope given UP Board Solutions for Class 10 Sanskrit Chapter 6 are helpful to complete your homework.
If you have any doubts, please comment below. UP Board Solutions try to provide online tutoring for you

error: Content is protected !!
Scroll to Top